सत्यवीर सिंह सभी पाठकों को विदित ही है, कि फरीदाबाद के थाना एनआईटी पांच नम्बर के पास वाले विख्यात ‘शहीद भगतसिंह चौक’ का जीर्णोद्धार हुआ और इस बहाने उसका नाम बदलकर ‘विस्थापन विभीषिका स्मारक’ हो गया। उस गोल चक्कर में लगभग 10 फुट भराव डला और उसके ऊपर काले रंग की, धातु की बनीं तीन विशालकाय मूर्तियाँ प्रस्थापित हो गईं। आधे भाग में ग्रेनाइट बिछ गया और उसके बीचोंबीच फव्वारा लगने का भी प्रावधान है। स्मारक अभी पूरा भी नहीं हुआ लेकिन अधबने स्मारक के उद्घाटन का काम मुख्यमंत्री मनोहर लाल 12 अगस्त को निबटा गए। पाठकों को ये भी याद होगा कि जो मूर्तियाँ वहाँ प्रस्थापित हुई हैं, वे शहीद-ए-आज़म भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु की सारे देश में लगी मूर्तियों से मेल नहीं खातीं। उन्हें गौर से देखने पर पता चलता है, कि ये मूर्तियाँ 23-24 साल के नौजवानों की नहीं हैं, जैसी की इन अमर शहीद क्रांतिकारियों की उम्र 23 मार्च 1931 को थी, जिस दिन शाम 7.30 बजे उन्हें कायर ब्रिटिश औपनिवेशिक लुटेरों ने लाहौर में फांसी चढ़ा दिया था। ज़ाहिर तौर पर ये मूर्तियाँ उनसे कहीं ज्यादा उम्र के व्यक्तियों की नजऱ आती हैं। साथ ही उनके चेहरे-मोहरे की बनावट एक दम अलग नजऱ आती हैं। एक मूर्ति तो एक हाथ आगे और एक हाथ घुमावदार तरीक़े से पीछे किए हुए है, जैसे नृत्य की भाव-भंगिमा होती है। कुल मिलाकर ये दृश्य, क्रोध और शर्मिंदगी पैदा करने वाला है।
इस अत्यंत गंभीर और संवेदनशील मामले की असलियत जानने के लिए, फरीदाबाद नगर निगम में कई व्यक्तियों को फोन लगाने के बाद, अधीक्षण अभियंता ओमबीर सिंह से जानकारी मिली कि इस पार्क को उन्होंने नहीं बल्कि ‘फरीदाबाद स्मार्ट सिटी निगम’ ने बनाया है। वहाँ संपर्क साधा गया और सम्बंधित कार्यकारी अभियंता अरविन्द शेखावत ने बताया कि ये मूर्तियाँ भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव की ही हैं। साथ ही उन्होंने ये भी जानकारी दी, कि वे जल्दी ही वहाँ उनके नाम की पट्टियाँ भी लगवाएँगे। सम्बंधित जानकारी 1 सितम्बर को भेजी गई ई मेल से भी मांगी गई है लेकिन उस मेल का अभी तक कोई जवाब नहीं आया। जब उनसे कहा कि पट्टियाँ लगाने में वक्त लगेगा, जैसा कि आप कह रहे हैं तो ई मेल पर ही बता दीजिए कि आप क्या करने जा रहे हैं। इस बात पर चुप्पी साध ली। बाद में संभलकर जवाब दिया कि सरकारी जवाब ऐसे नहीं दिए जाते। इसके लिए चीफ इंजिनियर और निदेशक स्तर से अनुमति लेनी होगी। …7 सितम्बर को भी उनसे विनती की गई, लेकिन आज तक कोई भी जानकारी आधिकारिक तौर पर प्राप्त नहीं हुई है।
अमर शहीद क्रांतिकारियों का विभाजन की विभीषिका से क्या मतलब? सान्डर्स हत्या मामले में भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को अँगरेज़ अदालत ने कसूरवार मानते हुए, फांसी की सज़ा सुनाई थी। लाहौर जेल में शादमन चौक (अब शहीद भगतसिंह चौक) के नज़दीक फांसी गृह में उन्हें, 24 मार्च 1931, सुबह 8.30 बजे फांसी देने का हुक्म हुआ था लेकिन सारा देश गुस्से से उबलता जा रहा था। शोषक लुटेरे कितने भी हथियारबंद हों, अन्दर से बहुत बुजदिल होते हैं। अँगरेज़ हुकूमत डर गई, कि 23 मार्च की रात कुछ भी हो सकता है। ये भी हो सकता है कि लोग इस जेल पर ही धावा बोल दें। इसलिए अदालती क़ानून के पाखंड की असलियत उजागर करते हुए, तीनों क्रांतिकारियों को, निर्धारित समय से 11 घंटे पहले, 23 मार्च 1931 की शाम 7.30 बजे ही फांसी पर लटका दिया गया। ना सिफऱ् समय से 11 घंटे पहले, बल्कि सूर्यास्त के बाद फांसी दी गई. ऐसा उस वक़्त तक पहले कभी नहीं हुआ था। ना सिफऱ्, महान क्रांतिकारियों को 23 मार्च की शाम 7.30 बजे उन्हें फांसी पर लटका दिया गया बल्कि उनके मृत शरीर भी उन्हें डराते रहे। हथियार बंद, शासक वर्ग उनके मृत शरीरों का भी सामना नहीं कर पाया। उन्हें उनके परिजनों को नहीं सौंपा गया बल्कि रात में चोरी-छुपे हुसैनीवाला के पास, चोरी-छुपे जब वे उनके पार्थिव शरीरों को जला रहे थे तब लोगों को पता लग गया और अपार जन-समुदाय उमड़ पड़ा। अंग्रेजों के भाड़े के टट्टू दुम दबाकर भागने को मज़बूर हुए। अदालतें और क़ानून, भले निर्धारित दायरे में कितने भी उछल-कूद करते नजऱ आएँ, कभी-कभी भले सरकारों को कठघरे में खड़ा करें, भले कई बार आम नागरिक के हित में फैसले भी सुनाएं, लेकिन जैसे ही शासक वर्ग पर कोई गंभीर ख़तरा मंडराता है, तुरंत न्याय को चोला दूर फेंककर, अदालतें नंगे तरीक़े से सत्ताधारी वर्ग की सेवा में हाजिऱ हो जाती हैं। वैसे भी राजनीति-शास्त्र हमें ये स्पष्ट रूप से सिखाता ही है, कि न्यायपालिका, विधायिका, प्रशासन और मीडिया, ये सत्ता के चार अभिन्न अंग होते हैं।
तत्कालीन देश, मतलब, आज के भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश की कोई भी सरकार, आज तक इन अमर शहीद क्रांतिकारियों को विभाजन की विभीषिका से नहीं जोड़ पाई, जैसा कि आज की फासिस्ट मोदी सरकार और हरियाणा की भाजपा सरकार, मतलब ‘डबल इंजन’ की सरकार ने ये हिमाक़त की है। लगता है, शहीद-ए-आज़म के जाने के 91 वर्ष बाद भी सरकार उनके विचारों से भयभीत है। इन क्रांतिकारियों ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि आज़ादी आन्दोलन के नेता, एक दिन हिन्दू-मुस्लिम में बंटकर इस तरह एक दूसरे के खून के प्यासे होंगे और अपने-अपने मज़हब के सरमाएदारों के बाज़ार सुरक्षित करने के लिए देश पर ख़ूनी लकीरें खींच देंगे. ऐसे वहशी हत्यारे बन जाएँगे कि मानवता भी शर्मसार हो जाए. विभाजन विभीषिका से भगतसिंह के विचारों को कैसे जोड़ा गया?
हरियाणा सरकार जवाब दो आईये देखें, भगतसिंह के विचारों में ऐसा क्या है कि आज के शासक भी उन्हें बर्दाश्त नहीं कर पाते. काकोरी के अमर शहीदों, राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी, रोशन सिंह, अशफाकुल्लाह खां तथा रामप्रसाद बिस्मिल को एक ही दिन, 19 दिसम्बर 1927 को फांसी पर लटकाया गया था. उनकी शहादत पर देश में आक्रोश की वैसी लहर नहीं उठी, जैसी भगतसिंह उम्मीद कर रहे थे. सब कुछ पहले जैसा सामान्य, मानो कुछ हुआ ही ना हो, चलता देखकर वे गुस्से से भर गए. इस बात से झल्लाकर, ‘किरती’ के जनवरी 1928 के अंक में काकोरी के शहीदों सम्बन्धी, सम्पादकीय में भगतसिंह और भगवती चरण वोहरा ने संयुक्त रूप से देशवासियों को इस तरह लताड़ा था. “इस हालत को सुधारने का एक ही साधन है, इस दुर्दशा को बदलने का एक मात्र ईलाज है, इस दुर्दशा की एक ही दवा है, और वह है आज़ादी. आज़ादी कुर्बानियों के बगैर नहीं मिल सकती. शहीदों की इज्ज़त करने, शहीदों के कारनामे याद करने से, क़ुरबानी का चाव उमड़ता है. जो कौम शहीदों को शहीद नहीं कह सकती, उसे क्या खाक़ आज़ाद होना है…शहीद वीरो! हम कृतघ्न हैं, हम तुम्हारे किए को नहीं जानते. हम कायर हैं, हम सच-सच नहीं कह सकते. हमें आप माफ़ करो, हमें आप क्षमा दान दो. हमें मौत से भय लगता है, हमारा दिमाग सूली का नाम सुनते ही चक्कर खा जाता है. आप धन्य थे. आपके बड़े जिगर थे कि आपने फांसी को टिच्च समझा. आपने मौत के सामने मजाक किए. पर हम? हमें चमड़ी प्यारी है, हमें तो जऱा सी तक़लीफ़ ही मौत बनकर दिखने लगती है. आज़ादी! आज़ादी का नाम तो सुनते ही हमें कंपकंपी छिड़ जाती है. हाँ! गुलामी के साथ हमें प्यार है, गुलामी की ठोकरों से हमें मज़ा आता है. आपकी नस-नस से रग-रग से आज़ादी की पुकार गूंजती थी लेकिन हमारी रग-रग से, हमारी नस-नस से गुलामी की आवाज़ निकलती है. आपका और हमारा क्या मेल? हमें आप क्षमा को, आप हमारे केवल यह प्रेम के अश्रू ही स्वीकार करो. कहो, धन्य हैं, काकोरी के शहीद..!!” आज धार्मिक आडम्बर, बेहूदी-वाह्यात बकवास को स्कूल पाठ्यक्रमों में शामिल किया जा रहा है, सावरकर को बुलबुल के पंखों पर बिठाकर अंडमान निकोबार से हजारों मील की यात्राएं कराई जा रही हैं, तर्कहीन, अवैज्ञानिक गपोड़ों को ‘महान संतों का ज्ञान’ बताकर परोसा जाने की खुली प्रतियोगिता चल रही है. ऐसे लोगों को भगतसिंह की मूर्तियों से डर लगना स्वाभाविक है. मई 1928 के ‘किरती’ के अंक में धर्म और भगवान के बारे में लिखे भगतसिंह के विचारों से इन लोगों को डर भला क्यों ना लगे!! “प्रश्न उठता है कि ईश्वर ने यह दुखभरी दुनिया क्यों बनाई? क्या तमाशा देखने के लिए? तब तो वह रोम के क्रूर शहंशाह नीरो से भी अधिक ज़ालिम हुआ. क्या यह उसका चमत्कार है? इस चमत्कारी ईश्वर की क्या आवश्यकता है? बहस लम्बी हो रही है. इसलिए इसे यहीं समाप्त करते हुए इतना ही कहेंगे कि हमेशा से स्वार्थियों ने, पूंजीपतियों ने धर्म को अपनी- अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए इस्तेमाल किया है. इतिहास इसका साक्षी है. ‘धैर्य धारण करो! अपने कर्मों को देखो!’ ऐसे दर्शन ने जो यातनाएं दी हैं, वे सबको मालूम ही हैं.”
भगतसिंह के विचारों से नफऱत करने वाले, किसी एक पार्टी तक ही सीमित नहीं हैं. हर वो दल, जो आम शोषित-पीडि़त वर्ग की एकता को खण्डित करने के लिए धार्मिक आडम्बरों में उलझाकर, मालिक पूंजीपति वर्ग की सेवा करेगा, और शोषण आधारित इस पूंजीवादी व्यवस्था को लोगों के गुस्से से बचाए रखने का उपक्रम करेगा, वो यही करेगा. शहीद-ए-आज़म का, चूँकि, किरदार बहुत बड़ा है, लोग उन्हें इतना सम्मान करते हैं कि अधिकतर नफरतिए उनके खि़लाफ़ खुल कर बोल नहीं पाते. कभी-कभी वो नफऱत, लेकिन, बाहर फूट ही पड़ती है. संगरूर से अकाली दल के संसद सदस्य सिमरनजीत सिंह मान की इतनी जुर्रत हो गई कि वो भगतसिंह को आतंकवादी कहे!! भगतसिंह के विचारों को मानने और उन्हें जन-जन तक पहुँचाने का दावा करने वाले, हम जैसों को गंभीरता से विचार करना होगा कि क्या वाक़ई हमने अपना फज़ऱ् पूरा किया है. आईये देखें, सिख धर्म की राजनीति करने वाले, अकालियों को भगतसिंह से डर क्यों लगता है? जलियांवाला बाग नरसंहार के बाद औपनिवेशिक लुटेरे अंग्रेजों ने पूरी बेशर्मी के साथ, खुल कर हिन्दू-मुस्लिम की राजनीति शुरू की. 1924 में कोहाट में भयंकर सांप्रदायिक दंगे हुए. इस विषय पर बहस छिड़ी. काँग्रेसी नेताओं ने हिन्दू-मुस्लिम दोनों के ठेकेदारों से सुलहनामे लिखवाए जबकि क्रांतिकारी आन्दोलन की ओर से भगतसिंह जून 1928 के किरती में क्या लिखते हैं, आईये देखें. “ऐसी स्थिति में हिंदुस्तान का भविष्य बहुत अंधकारमय नजऱ आता है. इन “धर्मों” ने हिंदुस्तान का बेड़ागकऱ् कर दिया है. और अभी पता नहीं कि ये धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे. इन दंगों ने संसार की नज़ारों में भारत को बदनाम कर दिया है. और हमने देखा है कि इस अंधविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं. कोई बिरला ही हिन्दू, मुसलमान या सिख होता है, जो अपने अपना दिमाग ठण्डा रखता है, बाक़ी सब धर्म के ये नाम लेवा अपने नामलेवा धर्म के रोब को क़ायम रखने के लिए डंडे-लाठियां, तलवारें-छुरे हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सर फोड़-फोडक़र मर जाते हैं…..लोगों को परस्पर लडऩे से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की ज़रूरत है. गऱीब मेहनतक़श व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूंजीपति हैं, इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढक़र कुछ ना करना चाहिए. संसार के सभी गरीबों के, चाहें वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं. तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताक़त अपने हाथ में लेने का यत्न करो. इन यत्नों में तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जाएंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतंत्रता मिलेगी.” अब आपकी समझ आ गया होगा कि सिमरनजीत सिंह नाम का अकाली भगतसिंह को आतंकवादी क्यों कहता है? जिस तरह आज हम देख रहे हैं, कि न्याय और सच की बात कहने वालों और सरकारी कीर्तन में भाग लेने से इंकार करने वालों को ‘अर्बन नक्सल’, ‘देशद्रोही’ कहकर जेलों में डाला जा रहा है, और अपनी बुद्धि-विवेक को गिरवीं रखकर, बिना जांचे-परखे, ‘मोदी जी ने किया है तो सोच-समझकर ही किया होगा’ कहकर तालियाँ बजाने वालों को ईनामों, बड़े-बड़े ओहदों से नवाज़ा जा रहा है. कुछ ऐसे ही हालात रहे होंगे जब सितम्बर 1928 के ‘किरती’ के अंक में भगतसिंह ने अपने विचार इस तरह प्रस्तुत किए थे. “जब तक लोग खुलेआम अपने दु:ख-तक़लीफें व्यक्त कर सकते हैं और सरकारी अत्याचारों की पोल खोल सकते हैं, तब तक तो षडयंत्रों की ज़रूरत नहीं पड़ती, लेकिन जब सरकारें खुले आन्दोलनों को कुचलने लगाती हैं और जब- न तड़पने की इज़ाज़त है, न फरियाद की है घुट-घुट के मर जाऊं, यही मजऱ्ी मेरे सैयाद की है।.
पर अमल शुरू हो जाता है तो इधर जोशीले और गर्वीले जवान भी बुरी स्थिति में जीना नहीं चाहते. वे सिरों की बाज़ी लगा देते हैं और ऐसे अत्याचारी (शासन) को तोडऩे की सिरतोड़ कोशिशों में व्यस्त हो जाते हैं. जब तक शांतिपूर्ण आन्दोलन में आज़ादी की मांग की छूट रही, कोई षडयंत्र नहीं हुआ, कोई गुप्त आन्दोलन नहीं चल सका, लेकिन ज्यों ही शांतिपूर्ण आन्दोलन को कुचलने के आदेश ज़ारी किए गए, उसी समय गुप्त आन्दोलन शुरू हो गए और षडयंत्रों की तैयारियां होने लगीं. सरकार की सख्ती का दौर शुरू हुआ और काले कानूनों के अधीन सैकड़ों नौजवानों को, जो खुले रूप में काम कर रहे थे, जेलों में नजऱबंद कर दिया गया तो जोशीले नौजवानों को इससे आग लग गई और वे तड़प उठे. बस फिर क्या था? किसी ओर काकोरी षडयंत्र का तो कहीं किसी और षडयंत्र का धुंवा निकलने लगा.” क्या इतनी खरी और कड़वी हक़ीक़त को ऐसी सरकार बरदाश्त कर सकती है, जो लोगों को मिले संवैधानिक जनवादी अधिकारों को बेरहमी से अपने पैरों तले रौंदती जा रही है. एक से एक, भयानक काले कानून लाती जा रही है, पत्रकारों को सालों-साल जेलों में डाल रही है, और हर व्यक्ति, यहाँ तक कि खुद अपने मंत्रियों-संत्रियों-जजों तक के मोबाइल में खूंख्वार ख़ुफिय़ा ‘पेगासस’ यंत्र डालती जा रही है? कौन क्या कर रहा है, क्या सोच रहा है; सब जानना चाहती हैं. कहीं कोई षडयंत्र तो नहीं हो रहा, कहीं कोई हमारे, चंद कॉर्पोरेट को सब कुछ अर्पित करने के मंसूबों को भांप तो नहीं रहा, कहीं भंडाफोड़ तो नहीं होने जा रहा!! भगतसिंह बहुत ही संवेदनशील तथा विलक्षण प्रतिभावान व्यक्ति थे. उन्हें बहुत छोटी जि़न्दगी मिली. उनके पास समय नहीं था. लेकिन उस 23 साल 5 महीने और 26 दिन की जि़न्दगी में उनके राजनीतिक विचार हर रोज़ परिपक्व होते चले गए. जैसा कि स्वाभाविक था, जीवन के अन्तिम 3 साल तक वे बहुत परिपक्व मार्क्सवादी-लेनिनवादी के रूप में विकसित हो चुके थे. आज़ादी आन्दोलन की रहनुमाई कर रही कांग्रेस पार्टी के चरित्र और गाँधी के स्वराज तथा अहिंसा के सिद्धांत के बारे में भी उन्हें कोई भ्रम नहीं था. हिंदुस्तान में कैसा राज और संविधान हो, इस विषय पर सर्वदलीय कांफ्रेंस द्वारा बनाई गई ‘नेहरू समिति’ के बारे में भगतसिंह ने अपने विचार बेबाक रखे. “स्वतंत्रता कभी दान में प्राप्त नहीं होगी. लेने से मिलेगी. शक्ति से हांसिल की जाती है. जब ताक़त थी तब लार्ड रीडिंग गोलमेज कांफ्रेंस के लिए महात्मा गाँधी के पीछे-पीछे फिरता था और जब आन्दोलन दब गया, तो दास और नेहरू बार-बार जोर लगा रहे हैं और किसी ने गोल मेज तो दूर ‘स्टूल कांफ्रेंस’ भी ना मानी. इसलिए अपना और देश का समय बर्बाद करने से अच्छा है कि मैदान में आकर देश को स्वतंत्रता- संघर्ष के लिए तैयार करना चाहिए. नहीं तो मुंह धोकर तैयार रहें कि आ रहा है- स्वराज का पार्सल! नौजवानों को इन बहकावों में से बचकर चुपचाप अपना काम करते जाना चाहिए.”
11, 12, 13 अप्रैल 1928 को अमृतसर में ‘नौजवान भारत सभा’ के सम्मलेन में घोषणा पत्र प्रस्तुत हुआ था. भगतसिंह इस सभा के महासचिव और भगवती चरण वोहरा प्रचार-सचिव थे. इस घोषणा पत्र में उन्हें अपने विचार और राजनीतिक प्रोग्राम विस्तार से रखने का अवसर मिला. “देश को तैयार करने के भावी कार्यक्रम का शुभारम्भ इस आदर्श वाक्य से शुरू होगा- “क्रांति जनता द्वारा, जनता के हित में.” दुसरे शब्दों में 98त्न के लिए स्वराज्य. स्वराज्य, जनता द्वारा प्राप्त ही नहीं बल्कि जनता के लिए भी. यह एक बहुत कठिन काम है. यद्यपि हमारे नेताओं ने बहुत से सुझाव दिए हैं लेकिन जनता को जगाने के लिए कोई योजना पेश करके उस पर अमल करने का साहस नहीं किया. विस्तार में गए बगैर हम ये दावे से कह सकते हैं कि अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए रुसी नवयुवकों की भांति हमारे हजारों मेधावी नौजवानों को अपना बहुमूल्य जीवन गावों में बिताना पड़ेगा और लोगों को समझाना पड़ेगा कि भारतीय क्रांति वास्तव में क्या होगी. उन्हें समझाना पड़ेगा कि आने वाली क्रांति का मतलब केवल मालिकों की तबदीली नहीं होगा. उसका अर्थ होगा नई व्यवस्था का जन्म – एक नईराज्य-सत्ता.” भगतसिंह की राजनीतिक परिपक्वता विकसित होती जा रही थी. लेकिन बुर्जुआ पार्टियों के बारे में रणनीतिक नीति क्या हो, इस विषय पर उनकी समझदारी पर डिबेट करने का एक दिलचस्प वाकय़ा प्रस्तुत है. वे लाला लाजपर राय के विचारों का तीखा विरोध करते थे. नवम्बर 1927 को लला लाजपत राय के नाम खुले ख़त में लिखते हैं; “आपने कहा था कि ये तो बोल्शेविक हैं इसलिए अपना नेता लेनिन को मानते हैं. बोल्शेविक होना कोई गुनाह नहीं है और आज हिंदुस्तान को लेनिन की सबसे ज्यादा ज़रूरत है. क्या आपने उन नौजवानोंको सी.आई.डी. की ‘मेहरबान’ नजऱों में लाने का कमीना प्रयत्न किया…आपने लनगी मंडी में इन नौजवानों पर मात्र इसलिए कीचड़ उछाला क्योंकि उन्होंने जनता को वास्तविक स्थितियों से परिचित कराने का सहस दिखाया….हम आप पर निम्नलिखित आरोप लगाते हैं, राजनीतिक ढुलमुलपन, राष्ट्रीय शिक्षा के साथ विश्वासघात, स्वराज्य पार्टी के साथ विश्वासघात, हिन्दू-मुस्लिम तनाव को बढ़ाना और उदारवादी बन जाना.” इसके बाद भी, जब 17 नवम्बर 1928 को, साइमन कमीशन का विरोध का नेतृत्व कर रहे लाला लाजपत राय की लाठीचार्ज में मृत्यु हो गई, तब उनकी मौत का बदला लिया जाएगा, ये विचार भगतसिंह की ओर से ही प्रमुखता से आए. 17 दिसम्बर 1928 को सांडर्स को गोली मारकर उन्होंने अपने वादे को पूरा कर के दिखाया. अगले दिन 18 दिसम्बर को ‘हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातान्त्रिक सेना’ की ओर से एक नोटिस ज़ारी हुआ. ‘आज संसार ने देख लिया है कि हिंदुस्तान की जनता निष्प्राण नहीं हो गई है, उनका (नौजवानों का खून जम नहीं गया..अत्याचारी सरकार सावधान…हमें एक आदमी की हत्या करने का खेद है. परन्तु यह आदमी उस निर्दयी, नीच और अन्यायपूर्ण व्यवस्था का अंग था जिसे समाप्त कर देना आवश्यक है. इस आदमी की हत्या हिंदुस्तान में ब्रिटिश शासन के कारिंदे के रूप में की गई है. यह सरकार संसार की सबसे अत्याचारी सरकार है. मनुष्य का रक्त बहाने का हमें खेद है. परन्तु क्रांति की वेदी पर कभी-कभी रक्त बहाना अनिवार्य हो जाता है. हमारा उद्देश्य ऐसी क्रांति से है जो मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण का अंत कर देगी. इन्कलाब जिंदाबाद, हैं।
बलराज सेनापति पंजाब हि.स.प्र.स. 18 दिसम्बर 1928.‘हमें फांसी देने की बजाए गोली से उड़ाया जाए’, शहादत से महज 3 दिन पहले 20 मार्च 1931 पंजाब के गवर्नर को लिखे पत्र में भगतसिंह अपने क्रांतिकारी विचारों के बारे में कोई भी संदेह नहीं रहने देते. हम यह कहना चाहते हैं कि युद्ध छिड़ा हुआ है और यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक कि शक्तिशाली व्यक्तियों ने भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार कर रखा है- चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज पूँजीपति और अंग्रेज या सर्वथा भारतीय ही हों, उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी है। चाहे शुद्ध भारतीय पूँजीपतियों के द्वारा ही निर्धनों का खून चूसा जा रहा हो तो भी इस स्थिति में कोई अंतर नही पड़ता. हो सकता है कि यह लड़ाई भिन्न-भिन्न दशाओं में भिन्न-भिन्न स्वरूप ग्रहण करे। किसी समय यह लड़ाई प्रकट रूप ले ले, कभी गुप्त दशा में चलती रहे, कभी भयानक रूप धारण कर ले, कभी किसान के स्तर पर युद्ध जारी रहे और कभी यह घटना इतनी भयानक हो जाए कि जीवन और मृत्यु की बाजी लग जाए। चाहे कोई भी परिस्थिति हो, इसका प्रभाव आप पर पड़ेगा। यह आप की इच्छा है कि आप जिस परिस्थिति को चाहे चुन लें, परन्तु यह लड़ाई जारी रहेगी। इसमें छोटी -छोटी बातों पर ध्यान नहीं दिया जाएगा। बहुत सभव है कि यह युद्ध भयंकर स्वरूप ग्रहण कर ले। पर निश्चय ही यह उस समय तक समाप्त नहीं होगा जब तक कि समाज का वर्तमान ढाँचा समाप्त नहीं हो जाता, प्रत्येक वस्तु में परिवर्तन या क्रांति समाप्त नहीं हो जाती और मानवी सृष्टि में एक नवीन युग का सूत्रपात नही हो जाता. निकट भविष्य में अन्तिम युद्ध लड़ा जाएगा और यह युद्ध निर्णायक होगा। साम्राज्यवाद व पूँजीवाद कुछ दिनों के मेहमान हैं। यही वह लड़ाई है जिसमें हमने प्रत्यक्ष रूप से भाग लिया है और हम अपने पर गर्व करते हैं कि इस युद्ध को न तो हमने प्रारम्भ ही किया है और न यह हमारे जीवन के साथ समाप्त ही होगा। हमारी सेवाएँ इतिहास के उस अध्याय में लिखी जाएंगी जिसको यतीन्द्रनाथ दास और भगवतीचरण के बलिदानों ने विशेष रूप में प्रकाशमान कर दिया है। इनके बलिदान महान हैं। जहाँ तक हमारे भाग्य का संभंध है, हम जोरदार शब्दों में आपसे यह कहना चाहते हैं कि आपने हमें फाँसी पर लटकाने का निर्णय कर लिया है। आप ऐसा करेंगे ही,आपके हाथों में शक्ति है और आपको अधिकार भी प्राप्त है। परन्तु इस प्रकार आप जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला सिद्धान्त ही अपना रहे हैं और आप उस पर कटिबद्ध हैं। हमारे अभियोग की सुनवाई इस बात को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि हमने कभी कोई प्रार्थना नहीं की और अब भी हम आपसे किसी प्रकार की दया की प्रार्थना नहीं करते। हम आप से केवल यह प्रार्थना करना चाहते हैं कि आपकी सरकार के ही एक न्यायालय के निर्णय के अनुसार हमारे विरुद्ध युद्ध जारी रखने का अभियोग है। इस स्थिति में हम युद्धबंदी हैं, अत: इस आधार पर हम आपसे माँग करते हैं कि हमारे प्रति युद्धबन्दियों-जैसा ही व्यवहार किया जाए और हमें फाँसी देने के बदले गोली से उड़ा दिया जाए। अब यह सिद्ध करना आप का काम है कि आपको उस निर्णय में विश्वास है जो आपकी सरकार के न्यायालय ने किया है। आप अपने कार्य द्वारा इस बात का प्रमाण दीजिए। हम विनयपूर्वक आप से प्रार्थना करते हैं कि आप अपने सेना-विभाग को आदेश दे दें कि हमें गोली से उड़ाने के लिए एक सैनिक टोली भेज दी जाए। भवदीय, भगतसिंह, राजगुरु,सुखदेव
गौरवशाली क्रांतिकारी विरासत को बुलंद रखना हमारी जि़म्मेदारी है वर्ग विभाजित समाज में कोई भी दल, मालिक और मज़दूर, दोनों वर्गों का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता. जो राजनीतिक दल, अपने राजनीतिक प्रोग्राम में क्रांतिकारी बदलाव का अजेंडा नहीं रखते, वे सब, प्रत्यक्ष रूप से मालिक वर्ग के ही, किसी एक हिस्से और अप्रत्यक्ष रूप से यथास्थिति, मतलब पूंजीवाद-साम्राज्यवाद के ही पोषक होते हैं. भगतसिंह के विचार मार्क्सवाद-लेनिनवाद के बताए रास्ते से वैज्ञानिक समाजवाद प्रस्थापित करने वाले थे. यद्यपि उनके पास वक़्त बहुत कम था.
साम्राज्यवादी, औपनिवेशिक लुटेरे ख़ूनी तंत्र ने, उस फूल को खिलने-महकने से पहले ही कुचल डाला. फिर भी भगतसिंह ने, जो वक़्त भी उनके पास था, उसका अधिकतम उपयोग करते हुए, अपने विचारों के बारे में कोई संशय, संदेह नहीं छोड़ा. भगतसिंह का किरदार ज़बरदस्त प्रेरणादायक है. वे हर मेहनतक़श हिन्दुस्तानी के दिल में बसते हैं. वे मज़दूरों, किसानों और नौजवानों के सच्चे हीरो हैं. यही वज़ह है कि हर बुर्जुआ राजनीतिक पार्टी, दिखावे के लिए स्टेज पर उनकी फोटो ज़रूर रखती है, लेकिन अन्दर से उनके विचारों से घबराती है. ये विडम्बना अलग- अलग तरह उजागर होती रहती है. भाजपा-संघ द्वारा फरीदाबाद के भगतसिंह चौक के जीर्णोद्धार के बहाने, भगतसिंह की मूर्ति को हटा दिया जाना, उसे ‘विभाजन विभीषिका’ बना दिया जाना और उसके ऊपर विचित्र प्रकार की मूर्तियाँ प्रस्थापित कर, उन्हें दबी-जुबान भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव की मूर्तियाँ बताना, भगतसिंह के विचारों की जड़ों पर वार करने का एक शर्मनाक पैंतरा है. संगरूर का अकाली संसद सदस्य सिमरनजीत सिंह मान, भगतसिंह को आतंकवादी बताकर अपनी और अकाली दल की असलियत उजागर कर ही चुका है. अभी हाल में, आम आदमी पार्टी, देश के कॉर्पोरेट लुटेरों के सामने खुद को एक विकल्प के रूप में प्रस्तुत करने की कवायद में, नया स्वांग रचते हुए, हर सरकारी दफ्तर में पीली पगड़ी पहने, भगतसिंह की तस्वीरें लटकाती जा रही है. ये भी एक पाखंड है. इस पार्टी ने हजारों आन्दोलनकारी आंगनवाड़ी महिलाओं को आन्दोलन करने की सज़ा देते हुए, उन्हें बर्खाश्त किया हुआ है. मध्यम वर्ग को पटाने के लिए, भले ढोल बजाकर कुछ लौलीपॉप दिए हों लेकिन हनुमान हुड़दंग, सार्वजनिक तौर पर पूजा-आरती पाखंड आदि मामलों में ये लोग फासिस्ट भाजपा से ज्यादा अलग नहीं हैं. कोई भी ग़ैर-क्रांतिकारी पार्टी भगतसिंह के विचारों को बरदाश्त कर ही नहीं सकती. जो ऐसा दिखावा कर रही है, वह उसकी धूर्तता है, पाखंड है.
फिलहाल, फरीदाबाद के लोगों ने हरियाणा तथा देश के लोगों के साथ मिलकर, हरियाणा सरकार द्वारा भगतसिंह के विचारों की जड़ पर किए हमले को नाकाम करना है, उसके लिए सडकों पर उतरना है. 28 सितम्बर को, भगतसिंह के 115 वें जन्म दिन को शानदार तरह से मनाना है. दुर्भाग्यपूर्ण विभाजन के नतीजे में करोड़ों लोगों द्वारा झेले गए बे-इन्तेहा कष्टों का दर्द हम महसूस करते हैं. पूरी शिद्दत से पीडि़तों के साथ हैं. ‘विस्थापन विभीषिका स्मारक’ ज़रूर बनाइये लेकिन उससे शहीद-ए-आज़म भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव को मत जोडिय़े. सारी स्थिति स्पष्ट कीजिए. स्मारक पर पट्टियाँ लगाइए लेकिन इन अमर क्रांतिकारी शहीदों की याद में किसी प्रमुख जगह पर, जैसे सेक्टर 12 में पड़ी सरकारी ज़मीन पर एक शानदार शहीद पार्क बनाइये, वहाँ तीनों अमर सपूतों की सम्मानजनक मुर्तिया प्रस्थापित कीजिए, जहाँ बैठकर लोग भगतसिंह के क्रांतिकारी विचारों पर चर्चा-डिबेट कर सकें, उनके प्रति अपना सम्मान प्रकट कर सकें. ऐसा शहीद स्मारक फरीदाबाद में बने, ये सुनिश्चित करना हर उस व्यक्ति का कर्तव्य है, जो खुद को भगतसिंह के क्रांतिकारी विचारों का अनुयायी होने का दावा करता है. साथ ही सबसे अहम है, भगतसिंह के क्रांतिकारी विचारों को जन-जन तक पहुँचाना।