क्रांतिकारी मजदूर मोर्चा द्वारा फरीदाबाद की मज़दूर बस्तियोंं का सर्वे
सत्यवीर सिंह 2011 की जनगणना के अनुसार, दिल्ली की दक्षिण की सीमा से सटे, हरियाणा के फरीदाबाद जि़ले की कुल आबादी 18,09,733 और फरीदाबाद महानगर की आबादी 14,14,050 थी. कोरोना का बहाना बनाकर, जातिगत गणना की असुविधाजनक मांग से बचने के लिए, मोदी सरकार ने 2021 में जनगणना कराई ही नहीं। 2020 के आधार कार्ड आधारित आंकड़ों के अनुसार 2022 में फरीदाबाद जि़ले की अनुमानित आबादी 19,44,196 तथा फरीदाबाद महानगर की अनुमानित आबादी 16.5 लाख है। मज़दूरों की कुल आबादी 10 लाख से अधिक है। फरीदाबाद में कुल 60 मज़दूर बस्तियां हैं।
नीलम चौक से बाटा चौक के बीच, रेलवे लाइन के पूरब में बसी कॉलोनी, कृष्णा नगर मज़दूर बस्ती, सेक्टर 56 ए, फरीदाबाद-121004, के नाम से जानी जाती है। मेट्रो के बाटा चौक के गेट न 3 से उतरेंगे, तो सामने अमीरों की आलीशान शानो-शौकत और वीभत्स विलासिता का शाहकार पांच सितारा होटल ‘रेडिसन ब्लू’ नजऱ आता है। इस होटल की दक्षिणी कंपाउंड वाल के बाहर से रेलवे लाइन की ओर जाने वाला रास्ता कृष्णानगर जाने का मुख्य रास्ता है। जैसे ही होटल पीछे छूटेगा, सामने असली हिंदुस्तान नजऱ आएगा। सबसे पहले गटर के बदबूदार पानी की एक विशाल झील दिखाई पड़ेगी, जिसमें सूअर अठखेलियाँ कर रहे होते हैं। ‘स्वच्छ भारत अभियान’ का ये दृश्य होटल रेडिसन ब्लू के ‘गेस्ट्स’ को नजऱ ना आए, इसलिए होटल के कमरों की पश्चिम वाली खिड़कियों पर गहरे रंग के अपारदर्शी शीशे दूर-नीचे से ही नजऱ पड़ जाते हैं।
कोई हैरानी नहीं होती, जब बस्ती में सबसे पहले, एक आध्यात्मिक आश्रम नजऱ आता है, “देवेन्द्र कृष्ण सेवाधाम”। इस आश्रम का दूसरा नाम दिलचस्प है ‘भारतीय नागरिक महासंघ’। इस आश्रम के मालिक से जब उनका शुभ नाम पूछा गया, तो उन्होंने तफ्शील से बताया; “मेरा नाम डी. के. झा (देवेन्द्र कृष्ण झा) है, मैथिलि ब्राह्मण हूँ, सीता मैया के गाँव सीतामढ़ी, बिहार का रहने वाला हूँ और मैं 1986 में यहाँ आया था। तब ही से लोगों की आध्यात्मिक सेवा कर रहा हूँ।” वे दूसरे गेरुवा वस्त्रधारी ‘साधुओं’ से कुछ बातों में अलग भी नजऱ आए– वहाँ चिलम नहीं चल रही थी, कई मज़दूर जो वहाँ बैठे बतिया रहे थे, उनमें एक मुस्लिम भी थे, और सभी बिलकुल सहज बैठे छाँव का आनंद ले रहे थे। पूरब से गटर वाली झील की बदबू, नाक को जला रही थी लेकिन वहाँ उपस्थित लोग सहज थे। एक और खास बात, झा साहब 6 सितम्बर को जंतर-मंतर पर मज़दूरों के विस्थापन की विकराल होती जा रही समस्या पर हुए प्रदर्शन में कई लोगों को लेकर पहुंचे थे और वहाँ मंच पर विराजमान थे। मतलब सामाजिक सरोकार तो है।
हर मज़दूर बस्ती में अध्यात्म की पाठशाला ज़रूर होती है। इसका एक दिलचस्प पहलू ये भी है, कि अध्यात्म की राजनीति में पूर्णकालिक कार्यकर्ता (Whole Timers), क्रांतिकारी राजनीति की अपेक्षा कहीं अधिक हैं। झा साहब 1986 में बिहार राज्य के सीतामढ़ी शहर से अध्यात्म के पूर्णकालिक कार्यकर्ता की तरह ही घर से निकल पड़े थे। उन्होंने किसी योजना के अंतर्गत या नोकरी के आश्वासन पर घर नहीं छोड़ा था। फरीदाबाद पहुंचकर कृष्णा नगर झुग्गी बस्ती में डेरा डाल दिया और अध्यात्म की प्रैक्टिस करने लगे। लोग जुटते गए और कारवां बनता गया। ये काम क्रांतिकारी राजनीति करने वाला कोई व्यक्ति भी कर सकता था। वह भी यहाँ आकर, क्रांतिकारी वर्ग चेतना लाने के लिए मज़दूरों को संगठित करता तो मज़दूर उसे भी भूखों नहीं मरने देते। आध्यात्मवादियों की हम कितनी भी आलोचना करें, लेकिन यदि हमारे पूर्णकालिक कार्यकर्ता, क्रांतिकारी राजनीति की प्रैक्टिस करने नहीं निकलेंगे और आध्यात्म की प्रैक्टिस करने वाले पूर्णकालिक कार्यकर्ता निकलते जाएँगे, तो लोग क्रांतिकारी राजनीति नहीं बल्कि आध्यात्मिक राजनीति ही सीखेंगे। इसके लिए लोगों को कसूरवार ठहराना उचित नहीं।
1980 के शुरू से ही ये मज़दूर बस्ती बसती बसाई गई। मथुरा रोड पर रोड किनारे व्यवसायिक क्षेत्र के पश्चिम और रेलवे लाइन के पूरब में, चूँकि जगह बहुत सीमित है, इसलिए ये बस्ती छोटी है। कुल आबादी 10,000 के कऱीब है। बस्ती में नए बने 5 शौचालय नजऱ आते हैं, लेकिन वहाँ पानी की कोई व्यवस्था नहीं है। शौचालय में पानी की व्यवस्था ना हो तो वह ना होने से भी ख़तरनाक हो जाता है। इन शौचालयों में इतनी बदबू और गन्दगी है कि उनके नज़दीक जाना भी संभव नहीं। ये बीमारियों के स्रोत बने खड़े हैं। प्रशासनिक अधिकारीयों और मंत्रियों-संत्रियों के शौचालयों के पानी की आपूर्ति कुछ बंद कर दी जाए, शायद तब उन्हें ये बात मालूम पड़ेगी कि शौचालयों में पानी आपूर्ति होना कितना आवश्यक है। अधिकतर लोग रेलवे पटरियों के किनारे ही शौच को जाने को मज़बूर हैं। कभी भी यहाँ आज़ाद नगर की गुडिय़ा जैसा हादसा हो सकता है। बाक़ी सभी मामलों में कृष्णा नगर बस्ती, दूसरी मज़दूर बस्तियों जैसे ही है; अपार गन्दगी, टूटी गलियां, सीवर का बहता पानी, बीमार-पीले नजऱ आते मज़दूर। पीने के पानी की व्यवस्था नहीं। एक जगह पूछा, ‘आपको सस्ते सरकारी गल्ले की दुकान से राशन मिलता है?’ जवाब आया, ‘कैसा सरकारी राशन साब?’ एक स्कूल वहाँ ज़रूर है। स्कूल यूनीफोर्म में, जिसकी जेब पर डॉ अम्बेडकर की तस्वीर लगी है, घूमते बच्चों को देखकर बहुत अच्छा लगा। एक बच्चे को जब ‘क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चे’ की पम्फलेट दी, तो वह मुस्कुराता हुआ उसे जोर-जोर से पढऩे लगा। सारी थकावट दूर हो गई।
सारी बस्ती में कहीं बैठकर चाय पीने का स्थान नजऱ नहीं आया लेकिन वहाँ RWA का दफ्तर बहुत ही आधुनिक सुसज्जित, ए सी लगा हुआ, अटल बिहारी वाजपेयी की बड़ी-बड़ी तस्वीरों से सज़ा हुआ है। युवा सचिव महोदय, भाजपा के पूर्व मंत्री विपुल गोएल, जो भाजपा के अंदरूनी सत्ता संघर्ष में हांसीए से भी बाहर फेंक दिए गए हैं, के क़सीदे पढ़ते नजऱ आए। काश, आज वो होते!!! बस्ती तो वैसी ही होती, शायद सचिव महोदय के पास कार और लम्बी होती!!
सभी मज़दूरों को सरकारी सस्ते गल्ले की दुकानों से पर्याप्त गुणवत्तापूर्ण राशन और जो उसे भी खरीदने लायक नहीं बचे, उन्हें मुफ़्त राशन देने की व्यवस्था की जाए। सभी मज़दूर बस्तियों में सरकार को तत्काल पर्याप्त आकार के सुलभ शौचालयों का निर्माण युद्ध स्तर पर शुरू करना चाहिए, जिसके रख-रखाव के खर्च की जि़म्मेदारी नगर निगम कि हो। यहाँ स्वच्छता अभियान की नितांत आवश्यकता है। साफ-सफाई की व्यवस्था तत्काल की जाए। एक बात नोट की जाए कि मज़दूर बस्तियों में पैदा हुए कीटाणु-विषाणु सरकारी अनुमति से नहीं उड़ते!! कृष्णा नगर के सड़े शौचालय से पैदा कीटाणु सेक्टर 15 में स्थित डीसी और जजों की कोठियों, मंत्रियों के बंगलों तक पहुँचने के लिए किसी की इज़ाज़त नहीं लेंगे.