क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा मज़दूर जब भी जागा है, इतिहास ने करवट बदली है

क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा मज़दूर जब भी जागा है, इतिहास ने करवट बदली है
September 13 14:12 2022

साथियो, मोदी सरकार मज़दूरों से कितना प्रेम करती है, उनका कैसा ‘सशक्तिकरण’ कर रही है, इस बात का एक और सबूत आजकल चर्चा का विषय बना हुआ है! सरकारी संस्थान ‘राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB)’ की, 29 अगस्त को प्रकाशित वर्ष 2021 की रिपोर्ट हमें बताती है कि 2021 में कुल 1,64,033 देशवासी, जीवन के कठिन संघर्ष की जंग हार गए और आत्महत्या करने को मज़बूर हुए। इनमें 42,004 औद्योगिक मज़दूर हैं, जो आत्महत्या करने वाले कुल लोगों का 25.06 प्रतिशत है। इसके आलावा कृषि क्षेत्र में कुल 10,881 लोगों को लगा, कि इस जिन्दगी से तो मौत अच्छी। इनमें भी 5,563 खेत मज़दूर और 5,318 छोटे किसान थे, मतलब वे भी मज़दूर ज्यादा और किसान कम थे। इस तरह, बेतहाशा मंहगाई, बे-रोजग़ारी और आगे उम्मीद की कोई किरण नजऱ ना आने पर, कुल 52,885 मज़दूर, खुद अपनी जीवन-लीला समाप्त करने को मज़बूर हुए।

जिस देश में हर रोज़ 145 मज़दूर आत्महत्या कर रहे हों, उस देश का प्रधानमंत्री कहता फिरता है कि हम ‘अमृत काल’ में प्रवेश कर गए हैं, भारत विश्व गुरु बन गया है! शर्म उन्हें मगर नहीं आती! उनके ऐसा कहने की भी, हालाँकि, वज़ह मौजूद है। 2014 में जब, ‘हर एक के खाते में 15 लाख जमा, साल में 2 करोड़ लोगों को रोजग़ार, जहाँ झुग्गी वहीँ सबको पक्का मकान’ आदि रसीले वादों और हिन्दू कट्टरवादी राष्ट्रवाद के नशे में झूमते हुए, लोगों ने, मोदी जी को सत्ता सौंपी थी तब, उनका सबसे लाड़ला कॉर्पोरेट धन-पशु, गौतम अडानी, दुनिया के सबसे अमीरों की लिस्ट में, कुल 2.8 बिलियन डॉलर की सम्पदा के साथ 609 वें नंबर पर था, जो आज 137.4 बिलियन डॉलर की सम्पदा के साथ दुनिया में तीसरे नंबर पर आ गया है! अभी अगले चुनाव को डेढ़ साल बाक़ी है, तब तक मोदी जी, उसे दुनिया का नंबर 1 अमीर बना देंगे, भले करोड़ों लोग भूख से कराह रहे हों, लाखों ख़ुदकशी को मज़बूर हो रहे हों। मुट्ठीभर धन-पशुओं के लिए ये सही में ‘अमृत काल’ है। हाँ, 125 करोड़ मेहनतक़श देशवासियों के लिए ‘मृत काल’ है।

देश के मेहनतक़शों, मज़दूरों पर मोदी सरकार ने चौतरफ़ा हमला बोला हुआ है। पहला घातक हमला है-सैकड़ों सालों की कुर्बानियों की बदौलत, मज़दूरों ने जो सम्मानपूर्ण जिंदगी जीने के 44 अधिकार हांसिल किए थे, उन्हें एक झटके में छीनकर, उनके हाथ में 4 लेबर कोड का झुनझुना थमा देना। सरमाएदार वर्ग की लम्बे समय से मांग थी, कि ‘श्रम सुधार’ किए जाएँ, जिनका असल मायने है, उन्हें मज़दूरों की हड्डियाँ तक चिचोडऩे की खुली छूट मिले। मोदी सरकार ने, देश के विकराल होते जा रहे धन्ना सेठों को दिया वचन निभाते हुए, सितम्बर 2020 में ‘श्रम सुधार बिल’ पास करा लिया। ये बिल लागू हो जाने पर, मज़दूरों के काम के निश्चित घंटे नहीं रहेंगे, मालिक निश्चित अवधि के लिए मज़दूरों को काम पर ले सकेंगे, ज़रूरत ना रहने पर, जब चाहे, काम से निकाल सकेंगे, यूनियन बनाना गैरकानूनी होगा, महिलाओं से रात की पाली में भी काम लिया जा सकेगा, हर तरफ ठेका व्यवस्था का बोलबाला हो जाएगा। यहाँ तक कि, हर वक़्त अभाव में जीने वाला मज़दूर, अगर हारी-बीमारी में मालिक से कुछ रक़म अग्रिम वेतन के रूप में ले लेता है तो मालिक उस पर मनमाना ब्याज भी ले सकेगा. अब तक इस राशि पर कोई भी ब्याज नहीं देना होता था। मज़दूरों को कुछ पैसे अडवांस देकर जि़न्दगी भर उन्हें बंधुआ बनाने वाला बर्बर युग फिर से आने की दस्तक दे रहा है।
दूसरा घातक हमला है-सभी मज़दूर बस्तियों को योजनाबद्ध तरीक़े से उजाड़ा जाना. भले वे 50 साल से वहाँ रह रहे हों, उनके पास वोटिंग कार्ड हों, आधार कार्ड हों, उनकी बस्तियों को ‘अवैध’ बताकर, वहाँ दैत्याकार बुलडोजऱों का काफि़ला पहुँच जाता है, और देखते-देखते उनके घर खाक़ में मिल जाते हैं। पछले साल जुलाई महीने की बरसात में, कोविड  महामारी के बीच, अरावली की खोरी बस्ती के 15,000 घर तोड़ डाले गए, लाखों लोगों, महिलाओं, बच्चों को पुलिस ज़बरदस्ती खींचकर बाहर निकालती गई और उनके घर ढहते गए। हालाँकि उसी अरावली पर बनी, अमीरों की ऐशगाहें बिलकुल उसी तरह जगमगा रही हैं। उसके बाद भी फरीदाबाद की कई मज़दूर बस्तियां ढहा दी गईं और बाक़ी बची लगभग सभी पर उजडऩे का खतरा मंडरा रहा है।

अगर कहीं संगठित विरोध होता है, तो एक सोची-समझी रणनीति के तहत कुछ दिन पीछे हटजाते हैं, लेकिन फिर मौका ताडक़र हमला बोल दिया जाता है। अकेले दिल्ली में 200 से ज्यादा झुग्गी बस्तियों को, मतलब दिल्ली की लगभग आधी आबादी को उजाडऩे के लिए सरकार रणनीति बना रही है। इस सम्बन्ध में स्थगन आदेश के लिए एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। दिल्ली विकास प्राधिकरण (DDA), राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में 63 लाख घरों को उजाडऩे की चेतावनी दे चुका है, लेकिन किसी भी पुनर्वास योजना का कहीं कोई जि़क्र नहीं। दूसरी ओर, दिल्ली और आस-पास के शहरों में मिलाकर लाखों फ्लैट खाली पड़े हैं।

’2022 तक जहाँ झुग्गी वहाँ पक्का मकान’ चीख़-चीख़ कर किया मोदी का वादा सबको याद है, लेकिन मोदी सरकार भूल गई। हाँ, 40,000 हज़ार करोड़ से बना विलासिता का भव्य प्रतीक, ‘ग्रांड विस्टा प्रोजेक्ट’ पूरा है, और मोदी जी के लिए 8500 करोड़ रु का आलीशान विमान भी आ चुका है. 7 अप्रैल के ट्वीट में प्रधानमंत्री बताते हैं, कि उनकी सरकार ने प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत 3.13 लाख करोड़ रु खर्च कर, गरीबों को 3 करोड़ से ज्यादा पक्के घर बनाकर दे दिए हैं। ये अदृश्य घर कहाँ हैं, ये बताने की ज़हमत उठाने की भला उन्हें क्या ज़रूरत!! फासीवादी शासक झूठ बोलने में शर्माते नहीं बल्कि गौरवान्वित होते हैं। हिटलर के प्रचार मंत्री गोएबेल का मूल मन्त्र था, ‘झूठ को बार-बार बोला जाए तो लोग उसे सच मान लेते हैं’।

तीसरा घातक हमला है—अर्थव्यवस्था के जान-लेवा आर्थिक संकट का सारा बोझ गरीबों के कन्धों पर डालते जाना। ना सिर्फ सभी सरकारी इदारे कौडिय़ों के भाव देश के लुटेरे धन्ना सेठों को दिए जा रहे हैं, बल्कि उनके 10 लाख करोड़ के कज़ऱ्, मोदी सरकार पिछले 4 सालों में ही माफ़ कर चुकी है। 2014 में जब मोदी सत्तासीन हुए थे, तब बड़े पूंजीपतियों पर लगने वाले, ‘कॉरपोरेट टैक्स’ की दर 34.5 प्रतिशत थी, जिसे क्रमबद्ध तरीक़े से घटाकर 24.7 प्रतिशत कर दिया गया, कुछ उद्योगों पर तो यह मात्र 15 प्रतिशत है। दूसरी तरफ़, गरीबों के जिंदा रहने के लिए आवश्यक पदार्थ जैसे आटा, अनाज, छाछ, दही, गुड आदि पर भी जीएसटी लगा दिया गया है। साथ ही रसोई में इस्तेमाल होने वाले अनेक पदार्थों पर जीएसटी 12 प्रतिशत से बढाकर 18 प्रतिशत कर दिया गया है। रसोई गैस आज अधिकतर मज़दूरों के बजट से बाहर हो चुकी है। इन सब का परिणाम है कि एक छोर पर जहाँ भुखमरी-गऱीबी-कंगाली-बेरोजग़ारी का महासागर बनता जा रहा है, 80 करोड़ लोग ज़रूरी खाद्य पदार्थ खरीदने के लायक भी नहीं बचे, ‘विश्व भूख इंडेक्स’ के 116 देशों में देश, नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान से भी नीचे 101 वें नंबर पर पहुँचकर अफग़ानिस्तान, कांगो, यमन और सोमालिया के पास पहुँच गया है, वहीँ, दूसरी ओर, मुट्ठीभर अमीरों की दौलत के पहाड़ ऊँचे होते जा रहे हैं। विश्व साम्राज्यवादी लूट में उनका हिस्सा लगातार बढ़ता जा रहा है।

चौथा घातक हमला-अभूतपूर्व बेरोजग़ारी ने मज़दूरी की दर को एकदम तलहटी में पहुंचा दिया है। भूख से मरने से बचने के लिए, मज़दूर, किसी भी मज़दूरी पर काम करने को राज़ी होने को मज़बूर है। शिकागो के अमर शहीदों की कुर्बानियों की बदौलत हासिल हुए ‘8 घंटे के काम के दिन’ के अधिकार को तो मज़दूर भूल ही चुके हैं। जब तक मालिक चाहे, तब तक काम करना है चाहे मूर्छित होकर ही क्यों ना गिर पड़ें। उसके बाद भी मज़दूर, शाम को काम ख़त्म करने के बाद घर जाते वक्त घबराया हुआ होता है, कि कहीं मालिक ये ना बोल दे कि ‘सुन, कल से तुझे काम पर आने की ज़रूरत नहीं’!

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Mazdoor Morcha
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