राकेश वेदा भारतीय रंगमंच में लोक को आधुनिकता से जोड़ कर एक सर्वथा नई रंगशैली के जनक हबीब तनवीर का जन्म शताब्दी वर्ष 1 सिंतबर 2022 से शुरू हो रहा है।इप्टा की राष्ट्रीय समिति अपनी प्रांतीय और जिला इकाइयों से 1 सिंतबर 2022 से 2023 तक उन के व्यक्तित्व और कृतित्व पर परिचर्चा, उनके नाटकों के मंचन और विविध तरीकों से शताब्दी समारोह आयोजित करने का आह्वान करती है। इसकी शुरुआत छत्तीसगढ़ इप्टा द्वारा आगामी 4 सिंतबर 2022 को रायपुर में आयोजित एक समारोह से हो रही है।
संक्षिप्त परिचय: हबीब तनवीर का जन्म 1 सितंबर 1922 को रायपुर में हुआ जहाँ प्रारंभिक शिक्षा के बाद नागपुर से उन्होंने बीए तथा अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से 1945 में एमए किया। उसी साल वे मुम्बई चले गए फिल्मों में लेखन,गीत लिखने के साथ साथ अभिनय किया और कई वर्षों तक फिल्मों की समीक्षायें भी लिखीं साथ साथ वे इप्टा में भी शामिल हो गए। बलराज साहनी के निर्देशन में उन्होंने तेलंगाना आंदोलन पर आधारित नाटक दकन की एक रात और व्यंग्य नाटक जादू की कुर्सी जैसे चर्चित नाटकों में अभिनय किया। इप्टा की ख्वाजा अहमद अब्बास के निर्देशन में 1946 में बनी कालजयी फिल्म धरती के लाल में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उस समय की कई अन्य महत्वपूर्ण फिल्मों में उन्होंने अभिनय किया। 1954 में वे दिल्ली आ गए जहां उन्होंने कुदसिया जैदी के साथ मिल कर हिंदुस्तानी थिएटर की स्थापना की जहां उन्होंने नजीर अकबराबादी की नजमों को केंद्र मे रख कर नाटक आगरा बाजार की प्रस्तुति की जो बेहद लोकप्रिय हुई।उसी दौरान 1954 में ही वे रॉयल अकैडमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट्स लंदन में थिएटर के विधिवत प्रशिक्षण के लिए चले गए। प्रशिक्षण के अलावा उन्होंने यूरोप के तमाम नाट्य निर्देशकों के साथ साथ बर्तोल्त ब्रेष्ट के काम को नजदीक से देखा।1958 में दिल्ली लौटने पर हिंदुस्तानी थिएटर के साथ उन्होंने मृच्छकटिक के रूपांतरण मिट्टी की गाड़ी का निर्देशन किया और पहली बार इस नाटक में उन्होंने छत्तीसगढ़ के लोक कलाकारों से अभिनय कराया। अब वे पूरी तरह लोक की ओर मुड़ चुके थे। लोक कलाकारों को तराशने में उन्हें खासी मशक्कत करनी पड़ी और लंबे अरसे के बाद 1973 में वे अपने छत्तीसगढ़ी भाषा और शैली के नाटक गांव का नाम ससुराल और मोर नाम दामाद के रूप में सामने आए।
यहीं से हबीब तनवीर की लोकयात्रा शुरू हुई जिसमें चरन दास चोर,कामदेव का अपना,बसंत ऋतु का सपना,बहादुर कलारिन,हिरमा की अमर कहानी जैसे अनेक नाटकों के माध्यम से उन्होंने छत्तीसगढ़ी नाचा शैली और उसके कलाकारों को अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा दिलाई। इसके साथ साथ वे लगातार रंगमंच की शैली को सरलतम और सहज बनाने के प्रयोग कर रहे थे जिसका श्रेष्ठ उदाहरण उनका नाटक राजरक्तहै जो टैगोर के नाटक विसर्जन पर आधारित है, धार्मिकता, कुप्रथा, पुनरुत्थानवाद तथा हिंसा का ऐसा सार्थक प्रतिकार दुर्लभ है। स्टीफेन ज्विग की एक कहानी का नाट्य रूपांतरण देख रहे हैं नैन सहज नाट्यशैली का एक और श्रेष्ठ उदाहरण है।
लोक शैली पर लगातार काम करते हुए वे बीच बीच मे यथार्थवादी शैली में भी रंगमंच को समृद्ध करते रहे। उन्होंने प्रेमचंद की कहानी मोटेराम का सत्याग्रह का रूपांतरण सफदर हाशमी के साथ किया और जन नाट्य मंच के लिए उसका निर्देशन भी किया तथा असगर वाहत के नाटक जिस लाहौर नही वेख्या सो जन्मया ही नही की शानदार प्रस्तुति की। जहां सडक़ नाटक से उन्होंने कथित विकास की पोल खोली वहीं राहुल वर्मा के नाटक जहरीली हवा को प्रस्तुत करके भोपाल गैस त्रासदी को उजागर किया। लोक के खजाने से ब्राह्मणवाद पर प्रहार करने वाले नाटक पोंगा पंडित उर्फ जमादारिन के कारण तो उन्हें कट्टरपंथियों के हमले का भी शिकार होना पड़ा। 8 जून 2009 को उन्होंने भोपाल में अंतिम सांस ली। उस समय वे वर्धा में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में राइटर इन रेजिडेंस थे। उस समय मेरा भी उनके साथ लंबा आत्मीय संबंध और संवाद रहा। इप्टा की राष्ट्रीय समिति की ओर से हबीब तनवीर की जन्म शताब्दी पर उंन्हे याद करते हुए हम उनकी विरासत को आगे ले जाने के लिए संकल्पबद्ध होते हैं।