‘लालसिंह चड्ढा’ एक ही संदेश देता है, प्रेम, प्रेम और प्रेम

‘लालसिंह चड्ढा’ एक ही संदेश  देता है, प्रेम, प्रेम और प्रेम
August 21 09:26 2022

जावरीमल पारिख
अद्वेत चंदन के निर्देशन में बनी ‘लालसिंह चड्ढा’ अमरीकी फिल्म ‘फोरेस्ट गंप’ (1994) का भारतीय रूपांतरण है। ‘फोरेस्ट गंप’ को छ: अकेडमी अवार्ड प्राप्त हुए थे। ‘लालसिंह चड्ढा’ ‘फोरेस्ट गंप’ का काफी दूर तक अनुकरण करती है। दोनों फ़िल्मों की कहानी मूल रूप में एक ही है। ‘फोरेस्ट गंप’ के बहुत से दृश्य भी ‘लालसिंह चड्ढा’ में यथावत देखे जा सकते हैं। इसके बावजूद दोनों फ़िल्में एक दूसरे से काफी अलग हैं और उन्हें अलग करने वाला तत्व हैं दोनों के संदर्भ और संदर्भों के प्रति कुछ हद तक अलग-अलग नज़रिया। ‘फोरेस्ट गंप’ का प्रदर्शन आज से 28 साल पहले हुआ था इसलिए उसमें 28 साल पहले के अमरीकी संदर्भ हैं। अगर वियतनाम युद्ध को छोड़ दें तो अमरीकी इतिहास की जिन घटनाओं का उल्लेख ‘फोरेस्ट गंप’ में आया है उसने अमरीकी जीवन को बहुत दूर तक प्रभावित नहीं किया था। इसके विपरीत ‘लालसिंह चड्ढा’ में जिन संदर्भों को कहानी का हिस्सा बनाया गया है, उसने भारत के पिछले पांच दशकों को दूर तक प्रभावित किया है। आपातकाल और उसकी समाप्ति, ऑपरेशन ब्लू स्टार (अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में की गयी कार्रवाई), इन्दिरा गांधी की हत्या, उसके बाद भडक़े सिख विरोधी दंगे, मंडल् आयोग और आरक्षण विरोधी आंदोलन, लालकृष्ण आडवाणी की रथ-यात्रा, अयोध्या में बाबरी मस्जिद विध्वंस, मुंबई में हुए दंगे और आतंकवादी कार्रवाइयां, कारगिल युद्ध, नरेंद्र मोदी का सत्ता में आना आदि जिन घटनाओं का संदर्भ आता है, वे सामान्य घटनाएं नहीं हैं। ऐसी हर घटनाओं के बीच घिरे होने पर लाल सिंह (आमिर खान) की मां (मोना सिंह) उसे कहती है कि बेटा शहर में मलेरिया फैला हुआ है, तुम घर में ही रहना बाहर मत निकलना। अपनी मां के आज्ञाकारी पुत्र की तरह लालसिंह घर से बाहर नहीं निकलता और हर ऐसी घटना के समय वह अपने को कमरे में बंद कर लेता है। कारगिल युद्ध के दौरान घायल भारतीय सैनिकों को बचाने के दौरान वह एक पाकिस्तानी घुसपैठिए मोहम्मद (मानव विज) को भी बचाता है जो उसे मारने की कोशिश करता है लेकिन मार नहीं पाता। युद्ध में घायल होने के कारण मोहम्मद के दोनों पैर काटने पड़ते हैं। लेकिन अपनी पहचान उजागर होने के डर से वह सैनिक अस्पताल से भाग जाता है। बाद में जब वे एक बार फऱि मिलते हैं तो लालसिंह से दोस्ती हो जाती है। यह जानते हुए कि वह एक पाकिस्तानी है, वह उस पर विश्वास करता है और कच्छी-बनियान के अपने व्यवसाय में उसे शामिल कर लेता है जिस व्यवसाय का सपना बाला (नागा चैतन्य) ने देखा था। मोहम्मद जिसे लालसिंह मोहम्मद पाजी कहता है, एक दिन लाल सिंह से पूछता है कि मैंने तुम्हें कभी पूजा-पाठ करते हुए नहीं देखा, तब लालसिंह जवाब देता है कि मेरी मां कहती है कि मजहब मलेरिया की तरह है, उससे बचकर ही रहना चाहिए। यहां पूजा-पाठ की जगह मजहब शब्द का इस्तेमाल बहुत सोच-विचार कर रखा गया है। इस शब्द के माध्यम से सभी धर्मों और धर्मों से ज्यादा संप्रदायों को मलेरिया कहा गया है। फ़िल्म में जिन संदर्भों का उल्लेख आया है, उनमें से अधिकतर का संबंध सांप्रदायिक तनावों और संघर्षों से है। निश्चय ही सांप्रदायिकता एक बीमारी है और फ़िल्मकार इस या उस सांप्रदायिकता को दोषी ठहराने की बजाय, हर तरह की सांप्रदायिकता की अप्रत्यक्ष आलोचना करता है।

फोरेस्ट गंप (टॉम हैंक्स) की तरह लालसिंह चड्ढा को भी कुछ हद तक मंदबुद्धि बताया गया है। लेकिन लालसिंह चड्ढा मंदबुद्धि नहीं हैं बल्कि वह सरल ह्रदय का भोला-भाला व्यक्ति है जो अपने संपर्क में आने वाले हर व्यक्ति पर यकीन करता हैं, निस्वार्थ भाव से प्रेम करता है और अपनी निजी ज़िंदगी में वे क्या करते हैं इसे अपने संबंधों का आधार नहीं बनाता। प्रेम के बदले वह प्रेम चाहता है लेकिन वह भी नहीं मिलता तो उसे कोई शिकायत नहीं है। उसकी अपनी मां हो या मौसी, बचपन की मित्र रूपा हो, या सैनिक मित्र बाला या पाकिस्तानी मोहम्मद पाजी वह सब पर विश्वास करता है और सबसे प्रेम करता है। बाला से उसकी दोस्ती इसलिए होती है कि बाला और वह दोनों सेना में होते हुए भी दूसरों को मारने में यकीन नहीं करते। उसके लिए इस बात का कोई महत्त्व नहीं है कि मोहम्मद पाजी मुसलमान है और कभी आतंकवादी भी रहा है। वह लोगों के दिलों में छुपी अच्छाइयों को देखता है। उन पर भरोसा करता है और इस भरोसे के बदले उसे भरोसा मिलता भी है। जिस रूपा से वह प्रेम करता है, वह अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के भंवर में फंसी अपराध की दुनिया का हिस्सा बन जाती है। लालसिंह को रूपा के जीवन की सच्चाई जानने में कोई दिलचस्पी नहीं है। मोहम्मद के जीवन की भी। यही वजह है कि जब रूपा उसके पास लौट आती है तो वह उसे सहज ही स्वीकार कर लेता है। वह फिर चली जाती है तो वह इस बात को भी स्वीकार कर लेता है। हालांकि उसके लौटने का उसे आघात लगता है और अपने मन की बेचैनी को कम करने के लिए चार साल से ज्यादा समय तक वह लगातार दौड़ता रहता है। जब वह व्यवसाय शुरू करता है तो उसे अपने सहयोगी के रूप में मोहम्मद की याद आती है और उसे बुला लेता है। उसकी अंदरुनी अच्छाई मोहम्मद को बदल देती है। वह व्यवसाय से होने वाली कमाई का अच्छा-खासास हिस्सा बाला के परिवार को भेजता है क्योंकि कभी बाला ने उसे अपने व्यवसाय का साझेदार बनने का प्रस्ताव किया था। वह अब भी बाला को अपने व्यवसाय का साझीदार मानता है। लालसिंह की अच्छाई रूपा को भी बदलती है और अपराध की दुनिया छोड़ देती है और अपने को कानून के हवाले कर देती है। सजा काटने के बाद एक बार फिर वह लालसिंह के पास लौट आती है, हमेशा के लिए। वह अब एक बच्चे की मां बन चुकी है, लालसिंह के बच्चे की मां, लेकिन उसे कोई ऐसी बीमारी है जिससे उसका बचना मुश्किल है। वह लालसिंह से शादी कर लेती है और उसका बच्चा उसे सौंपकर सदैव के लिए मौत की गोद में सो जाती है। वह अपने बच्चे के साथ अकेला रह जाता है।

लालसिंह की निजी कहानी दरअसल एक प्रेम कहानी है। एक सरल और निश्छल ह्रदय की प्रेम कहानी और फ़िल्म की ताकत इसी कहानी में निहित है। हालांकि टॉम हैंक्स की तुलना में आमिर खान अपने चरित्र में अपेक्षाकृत कम प्रभावशाली लगते हैं। टॉम हैंक्स फोरेस्ट गंप की भूमिका में ज्यादा स्वाभाविक लगते हैं। अगर टॉम हैंक्स का अभिनय सामने नहीं होता तो शायद आमिर खान का चरित्र भी प्रभावी लगता।

जहां तक संदर्भों का सवाल है, ‘फोरेस्ट गंप’ फिल्म में राजनीतिक संदर्भ फ़िल्म की मूल कथा के हाशिए पर ही बने रहते हैं। सिवाय वियतनाम युद्ध के जो कहानी का महत्वपूर्ण हिस्सा है हालांकि फ़िल्मकार उस युद्ध के बारे में कोई नज़रिया पेश करने से बचता है। लेकिन ‘लालसिंह चड्ढा’ के बारे में यह नहीं कहा जा सकता। आपरेशन ब्लू स्टार और प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी की हत्या और उसके बाद भडक़े दंगे लालसिंह की ज़िंदगी को प्रभावित करते हैं। कारगिल के युद्ध में वह एक सैनिक के तौर पर शामिल होता है और कई दंगे-फसाद उसके सामने घटित होते हैं। ऑपरेशन ब्लू स्टार के समय वह अपनी मां के साथ अमृतसर में होता है और रात भर गोला-बारुद की आवाज़ से डरा हुआ वह अपने मां की गोद में दुबका रहता है। उन आवाज़ों को सुनकर ही उसकी मां कहती है कि बेटा बाहर मत निकलना बाहर मलेरिया फैला हुआ है। इन्दिरा गांधी की जब हत्या होती है, तब वह अपनी मां के साथ गोलियां चलने की आवाज़ सुनता है। सिख विरोधी दंगे के दौरान वह और उसकी मां बड़ी मुश्किल से अपनी जान बचा पाते हैं। सिख होने के कारण उसकी जान बचाने के लिए उसकी मां उसके बाल काट देती है। लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा को वह रूपा के साथ उत्सुकता से देखता है जहां रूपा लालकृष्ण आडवाणी की तरफ इशारा करते हुए कहती है कि इनका नाम भी लाल है। मंडल विरोधी आंदोलन के समय आरक्षण विरोधी नारे लिखे दिखते हैं। इस तरह फ़िल्म में जो राजनीतिक संदर्भ आये हैं, सभी महत्त्वपूर्ण है। इस फ़िल्म में भी इन राजनीतिक घटनाओं से सीधे-सीधे टिप्पणी करने से बचा गया है।

लेकिन फिल्म की मूल कमजोरी इस बच निकलने से ही उजागर होती है। जहां तक ब्लू स्टार ऑपरेशन और सिख विरोधी दंगों के बारे में कुछ न कहकर भी उसकी प्रस्तुति काफी हद तक यथार्थपरक है। लेकिन आरक्षण विरोधी आंदोलन में दिवारों पर लिखे आरक्षण विरोधी नारे फ़िल्मकार के दृष्टिकोण के बारे में भ्रम पैदा करते हैं। इस बात को यदि उस दौर में हुए दलित नरसंहार की घटनाओं की अनुपस्थिति को देखें तो कोई चाहे तो इस निष्कर्ष पर पहुंच सकता है कि फ़िल्मकार का नज़रिया दलित विरोधी न सही आरक्षण विरोधी तो है ही। इसी तरह लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा को जिस उत्सुकता के साथ लालसिंह और रूपा देखते हैं, वह एक बार फिर भ्रम पैदा करते हैं क्योंकि सच्चाई यह है कि आडवाणी की रथ-यात्रा ने पूरे देश में आतंक ही पैदा किया था, उत्सुकता नहीं। अब अगर इस प्रस्तुति को 1980 के मुरादाबाद दंगे, 1983 के नैली दंगे, 1989 के भागलपुर दंगे और 2002 के गुजरात दंगे की अनुपस्थिति की पृष्ठभूमि में देखें तो कोई आसानी से यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि आरएसएस की हल्की सी आलोचना से भी फ़िल्मकार ने बचने की कोशिश की है। ये सभी महज दंगे नहीं थे बल्कि मुसलमानों का नरसंहार था। हां यह माना जा सकता है कि फ़िल्म की कहानी जिन शहरों तक सीमित हैं, ये सभी दंगे उससे बाहर घटित हुए हैं। लेकिन तब भी यह सवाल तो अपनी जगह उठता ही है कि रथ-यात्रा और आरक्षण-विरोधी आंदोलन का संदर्भ जिस ढंग से आया है, वह फ़िल्मकार के नज़रिए के बारे में भ्रम तो पैदा करता ही है। वह भ्रम और पुख्ता होता है जब नरेंद्र मोदी का उल्लेख भी आलोचनात्मक कतई नहीं कहा जा सकता।

हां यह जरूर माना जा सकता है और इस बात में सच्चाई भी है कि जिन भयावह प्रसंगों को फिल्मकार ने जानबूझकर छोड़ दिया है, अगर उन्हें सांकेतिक रूप में भी शामिल किया जाता तो आमिर खान के लिए सेंसर बोर्ड से अपनी फ़िल्म के प्रदर्शन का प्रमाणपत्र हासिल करना मुश्किल होता और अगर अनुमति मिल भी जाती तो मामला सिर्फ बायकाट तक नहीं रहता। फिल्मकार के लिए बेहतर होता यदि ‘फोरेस्ट गंप’ का भारतीय रूपांतरण करने की बजाय पिछले तीस साल के भारत की दहशतनाक कहानी को किसी भिन्न रूप में और मौलिक ढंग से कहा जाता। लेकिन आज के भारत में आमिर खानों के लिए ऐसी फ़िल्म बनाना नामुमकिन है। इस सीमा के बावजूद मेरा मानना है कि फ़िल्म में सांप्रदायिकता की जितनी और जैसी आलोचना है, वह महत्त्वपूर्ण है। अप्रत्यक्ष ही सही युद्ध का विरोध भी सांकेतिक रूप से ही सही लेकिन महत्वपूर्ण है। और एक ऐसे समय में जब हर तरफ धूर्तता, स्वार्थपरता, संकीर्णता, असहिष्णुता का बोलबाला है, दूसरों के प्रति नफरत और घृणा करना राष्ट्रवाद समझा जा रहा है, ऐसे समय में जिस निश्छल और निस्वार्थ व्यक्ति को नायक बनाकर पेश किया गया है जो हर तरह की संकीर्णताओं और असहिष्णुताओं से बचकर केवल एक ही संदेश देता है, प्रेम, प्रेम और प्रेम।

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Mazdoor Morcha
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