कहानियों में जीना-मरना

कहानियों में जीना-मरना
August 07 14:59 2022

कहानी के पीछे पगलाए घूमना हर किसी के मिजाज में नहीं होता। न जाने कितनी बार मैंने अपने भाइयों के पैर दबाए, उनसे किसी फिल्म की कहानी सुनने के लिए। गर्मी की दुपहरियों में घंटों लुरखुर काका की गाय-भैंसों पर नजर रखी ताकि लोरिक-संवरू और दयाराम ग्वाल के पंवारे सुनाते हुए उनकी कल्पना और लयकारी में कोई खलल न पड़े। अकबर-बीरबल, शीत-बसंत और राजा भरथरी के किस्से चिथरू चाचा से सुनने के लिए जाड़ों की शाम सूरज झुकने के भी घंटा भर पहले मैं उनके दरवाजे पर हाजिरी लगा देता था।

उनके कई सारे काम तब अधबीच में होते थे और वहां मेरी असमय उपस्थिति से परेशान उनके घर वाले हिकारत से मुझे देखकर मुंह बिचका देते थे। फिर उपन्यास पढऩे की उम्र हुई तो इसके लिए बड़ों की निर्लज्ज चापलूसी, यहां तक कि चोरी-चकारी जैसा कर्म भी मुझे कभी अटपटा नहीं लगा। कहानियों के पीछे इस दीवानगी की एक बड़ी वजह अपने परिवेश से अलगाव और मन पर छाए गहरे अकेलेपन से जुड़ी हो सकती है। लेकिन बाद में लगा कि यह कोई वैसी अनोखी बात नहीं है, जैसी शुरू में मुझे लगा करती थी।

किसी मुश्किल से मुश्किल बात को भी अगर कहानी की तरह सुनाया जा सके तो इससे दो नतीजे निकलते हैं। एक यह कि सुनाने वाला बात को अच्छी तरह समझ गया है। दूसरा यह कि जिसे सुनाई जा रही है, बात का काफी हिस्सा उसकी समझ में आ जाएगा। झूठ और गप्प से घिरे हुए इस समय में ज्यादातर लोग बातों को समझ लेने का ढोंग भर करते हैं। तकनीकी जुमलेबाजी से भरी बातें अक्सर बताई भी इसीलिए जाती हैं कि लोग उन्हें न समझें और ऊबकर या नासमझ मान लिए जाने के डर से मुंडी हिलाकर छुट्टी पा लें। और तो और, काफी सारे साहित्यिक कथ्य पर भी यह बात लागू होती है!

कुछ समय पहले एक थ्रिलर से गुजरते वक्त उसमें आए इस वाक्य पर नजर अटक गई- ‘हम कहानियों के लिए जीते हैं, कहानियों के लिए ही मरते हैं।’ क्या सचमुच? तनख्वाह में हर पांचवें साल एक नया जीरो जोड़ते हुए आगे बढऩे वाले एक कामयाब परिचित से न जाने किस रौ में एक दिन अचानक मैंने पूछ लिया, ‘तुम्हारे बच्चे कभी तुमसे तुम्हारी कहानी सुनना चाहेंगे तो उन्हें क्या सुनाओगे? यही कि क्या-क्या किया तो सैलरी कितनी बढ़ गई?’ यकीनन मेरे इस सवाल में अजनबियत भरी थी। कहानियां उसके पास थीं। बस, जिंदगी की चूहा-दौड़ में शामिल हो जाने के बाद उन्हें पलट कर याद करने का मौका उसको एक जमाने से नहीं मिला था। उस चढ़ती रात में हम देर तक बतियाते रहे। पढ़ाई पूरी करने के बाद तीन साल लंबी उसकी भटकन के किस्सों ने हमारे बीच के अंधेरे कोने को चमकते जुगनुओं से भरी हुई झाड़ी जैसा बना दिया। लगा कि एक लंबी कहानी के नगण्य पात्र ही हैं हम। बस सुनाए जाने की देर है।
-साइबर नजर

 

  Article "tagged" as:
  Categories:
view more articles

About Article Author

Mazdoor Morcha
Mazdoor Morcha

View More Articles