फरीदाबाद (म.मो.) दोनो काम एक साथ नहीं हो सकते। एक वक्त में एक काम हो सकता है। अतिक्रमण हटाने की आड़ में या तो लूट कमाई हो सकती है अथवा अतिक्रमण हटाये जा सकते हैं।
बीते करीब छ:-सात माह से निगमायुक्त यशपाल यादव अतिक्रमण एवं अवैध निर्माणों को हटाने के नाम पर तरह-तरह की नौटंकी कर रहे हैं। लेकिन परिणाम निल बटा सन्नाटा ही देखने को मिल रहा है। यदि अधिकारियों की नीयत सा$फ हो और वे ईमानदारी से बिना भेद-भाव के काम करें तो यह काम कोई मुश्किल नहीं है।
कुछ समय पूर्व नगर के जिन बाजारों को दुकानदारों के अवैध कब्जों से मुक्त कराया गया था, उन दुकानदारों ने फिर से अपनी दुकानों के आगे 10-10 फीट सडक़ घेर ली है। जो सडक़ें उस वक्त काफी खुली व चौड़ी नज़र आने लगी थी वे फिर से संकरी हो गई हैं। इसका संदेश यह जाता है कि निगम प्रशासन एक बार अपनी शक्ति का प्रदर्शन करके दुकानदारों को यह बताता है कि उसकी नियमित ‘भेंट-पूजा’ होती रहे तो उसे अतिक्रमण पर कोई एतराज नहीं। एनएच दो की मुख्य सडक़ पर अजब-गजब की बात यह है कि कई दुकानदारों ने अपनी दुकानों के सामने बिक्री हेतु दुपहिया वाहन सडक़ पर ऐसे खड़े कर रखे हैं जैसे कि सडक़ ही उनका शोरूम है।
बीते सप्ताह नगर निगम का एक सहायक ट्यूबवैल चालक एक लाख रुपये की रिश्वत लेते हुए रंगे हाथों पकड़ा गया था। उपलब्ध जानकारी के अनुसार उसने किसी अवैध निर्माण को न गिराये जाने के एवज में पांच लाख रुपये मांगे थे। सौदा तीन लाख में तय हो गया था। पार्टी ने कुछ रकम तो पहले दे दी थी और एक लाख देते वक्त विजिलेंस का छापा डलवा दिया था। निगमायुक्त यशपाल यादव भले ही, आये दिन होने वाले इस तरह के अनेकों लेन-देन से आंखें मूंदे रखने का ढोंग करते हों, लेकिन सारा शहर जानता है कि एक छोटा सा कर्मचारी वह भी ठेकेदारी का, इतनी बड़ी रिश्वत का लेन-देन अधिकारियों की मिलीभगत से ही कर सकता है। अपनी उक्त ड्राइव के फेल होने को लेकर निगमायुक्त ने इस पर विचार करने के लिये आगामी मंथली मीटिंग तक टाल दिया है। क्यों टाल दिया? इस तरह के मसलों पर मंथली मीटिंग के बजाय प्रति दिन ही क्यों न सम्बन्धित अधिकारियों की जवाब-तलबी की जाय? निगमायुक्त ने तोड़-फोड़ दस्ते को समाप्त करके प्रत्येक वार्ड के अधिकारियों को आवश्यकतानुसार यह काम करने का आदेश दिया था। प्रशासनिक दृष्टि से देखा जाय तो यह एक अच्छा आदेश है। जिस वार्ड में जहां कहीं भी अतिक्रमण अथवा अवैध निर्माण होता नज़र आये तो उस पर वार्ड के अधिकारी तुरन्त कार्रवाई कर सकें। उन्हें किसी तोड़-$फोड़ दस्ते का इंतजार न करना पड़े। लेकिन सम्बन्धित वार्डों के अधिकारियों ने वही लूट कमाई शुरू कर दी जिसका एकाधिकार पहले तोड़-फोड़ दस्ते के पास होता था। यहीं आकर निगमायुक्त की प्रशासनिक क्षमता जवाब दे जाती है।
बरसात का मौसम शुरू हो चुका है। जलभराव से निपटने के लिये निगम द्वारा किया गया कोई काम अभी तक धरातल पर कहीं नज़र नहीं आ रहा है। उफनते सीवर ज्यों के त्यों हैं जो कि जलभराव के संकट को और भी गहरा कर देते हैं। लगता नहीं कि निगम प्रशासन मीटिंगों और आश्वासनों से आगे बढक़र कुछ भी करने में सक्षम हैं।
23 जून को एनआईटी एक नम्बर मार्केट में चला निगम का अभियान करीब चार माह सोने के बाद नगर निगम की नींद खुली तो एनआईटी एक नम्बर मार्केट में निगम ने धावा बोला। शाम की करीब 5-6 बजे निगम के छापा मार दस्तों ने दुकानों के बाहर सडक़ पर रखे सामानों को ट्रैक्टर ट्रालियों में लादना शुरू कर दिया। पूरे बाजार में हडक़ंप मच गया। 20-30 दुकानों का सामान ही उठा पायें होंगे कि सैंकड़ों दुकानदारों ने अपना सामान स्वयं समेट लिया। सवाल यह पैदा होता है कि निगम को यह काम कई-कई महीनों के बाद ही क्यों याद आता है? क्यों नहीं यह काम हर रोज़ किया जाता है? निगम के इस ढुल-मुल रवैये को देख कर लोग यह धारणा क्यों न बनाये कि ये लोग अपनी शक्ति का प्रदर्शन करके वसूली के भाब बढ़ाते हैं?
एनआईटी के ही दो नम्बर मार्केट की मुख्य सडक़ पर, अनेकों दुपहिया विक्रेताओं ने सडक़ पर ही दुपहिया खड़े करके इसे शोरूम बना दिया है। मजे की बात तो यह है कि ये वाहन न तो चार माह पहले चले अभियान के दौरान हटे थे और न ही अब तक हटे हैं। क्या इन वाहन विक्रेताओं की निगमायुक्त से इस बाबत कोई सीधी डील हो चुकी है?