केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने बीके अस्पताल को 89 प्रतिशत अंक दिये फरीदाबाद (म.मो.) सरकार अपने अस्पतालों की स्थिति सुधारने की बजाय जनता को भ्रमित करने के लिये प्रोपेगंडा का कैसे सहारा लेती है उसका उदाहरण केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की निरीक्षण टीम द्वारा बीके अस्पताल को दिया गया प्रमाणपत्र है।
केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा सरकारी अस्पतालों में अपनाये जा रहे मानकों का निरीक्षण करने के लिये नैशनल क्वालिटी एश्योरेंश स्टैंडर्ड (एनक्यूएएस)की टीम द्वारा किये गये निरीक्षण के दौरान बादशाहखान अस्पताल तय मानकों पर खरा पाया गया। तीन वर्ष पूर्व हुए ऐसे ही एक निरीक्षण में इस अस्पताल को 85 प्रतिशत अंक मिले थे जो अब बढक़र 89 प्रतिशत हो गए हैं।
निरीक्षण टीम द्वारा बताया गया कि उसने ओपीडी, कैजुअल्टी, ऑपरेशन थियेटर, ब्लड बैंक सहित सभी वार्डों का निरीक्षण किया। इस दौरान टीम ने तमाम व्यवस्थाओं को मानकों के हिसाब से संतोषजनक पाया। टीम ने जिस हार्ट सेंटर, डायलेसिस यूनिट व एमआरआई आदि का उल्लेख किया है, उनका अस्पताल से कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है। वे तो एक तरह से इस अस्पताल में किरायेदार हैं। ये मरीज़ों से अपनी सेवाओं के बदले पैसे लेते हैं। केवल कुछ मामलों में ही इन्हें स्वास्थय विभाग द्वारा फीस अदा की जाती है। ऐसे में एक प्राइवेट सेवादाता की तरह संतोषजनक सेवायें देना इनकी मजबूरी है। यदि बादशाहखान अस्पताल ही 89 प्रतिशत अंक प्राप्त कर रहा है तो राज्य भर के उन अस्पतालों व अन्य स्वास्थ्य केन्द्रों का क्या हाल होगा जहां अधिकांश समय ताले ही लगे रहते हैं। शायद ही कोई दिन जाता होगा जिस दिन बादशाहखान अस्पताल का कोई न कोई तमाशा अखबारों में न छपता हो।
ओपीडी हॉल में मरीज़ों की इतनी भारी भीड़ होती है कि दम घुटने लगता है। एसी के हिसाब से बनाई इस इमारत में एसी तो कभी लगा नहीं और हवा के लिये कोई खिडक़ी रोशनदान तक छोड़े नहीं। ऐसे में क्षमता से कई गुणा अधिक मरीज़ों के खड़े होने से दम तो घुटेगा ही।
तीन मंजिला इस बिल्डिंग में लगी एकमात्र लिफ्ट तो कभी-कभार ही चल पाती है। ऐसे में मरीजों को उनके तीमारदार कंधों पर लाद कर ले जाने को मजबूर होते हैं क्योंकि स्ट्रेचर और ब्हील चेयर भी उपलब्ध नहीं होते। बिजली अक्सर फेल रहती है और जनरेटर सेट के लिये डीजल कभी रहता नहीं है। ऐसे में मरीज़ों के ऊपर क्या बीतती होगी इसे तथाकथित निरीक्षण टीम कभी नहीं जानना चाहेगी।
सफाईकर्मियों व अन्य चतुर्थश्रेणी कर्मचारियों को ठेकेदारी में डाला हुआ है। सम्बन्धित ठेकेदार इन्हें लेकर जिस बड़े घोटाले को वर्षों से करता आ रहा है उसे भला यह टीम कैसे जान पायेगी? इन सेवाओं के बदले अनेकों ऐसे लोग वेतन पा रहे हैं जो कभी अस्पताल आते ही नहीं। ऐसे में वे सेवायें कितनी प्रभावित होती होंगी समझा जा सकता है।
निरीक्षण टीम ने यह जानने का भी प्रयास नहीं किया होगा कि यहां पर कितने लोगों का इलाज हो पाता है और कितने लोगों को आगे रेफर कर दिया जाता है। आये दिन ऐसे अनेकों साधारण केस रेफर कर दिये जाते हैं जिनका इलाज यहां सम्भव हो सकता था। इस तरह के रेफर केवल कमीशनखोरी के लिये ही किये जाते हैं।
अभी दो महीने से लैबोरेट्री में ब्लड जांच की मशीन खराब है और सेंपल नहीं लिये जा रहे हैं। बीते दो माह से मरीजों से कहा जा रहा है कि दो-तीन दिन में ठीक हो जायेगा, पता नहीं ये दो-तीन दिन कितने महीनों में पूरे होंंगे। जरूरतमंद मरीज बीके से कई गुणा ज्यादा पैसा देकर बाहर से ब्लड जांच करवाते हैं। ऐसा कोई पहली बार नहीं हो रहा यह हर रोज की कहानी है। यदि मशीन ठीक हो गई तो रीजेंट, खत्म हो जाते हैं, रीजेंट आ गये तो कर्मचारी नदारद हैं। लैब में कर्मचारियों की संख्या जरूरत की आधी भी नहीं है और जो हैं भी वे ठेके पर हैं। यह रहस्य भी किसी से छिपा नहीं है कि प्राइबेट लैबोरेट्री वाले सम्बन्धित डॉक्टर को अच्छा-खासा कमीशन भी देते हैं। इसलिये अस्पताल की लैबोरेट्री के बंद रहने से डॉक्टरों को तो लाभ ही होता है। लगभग यही स्थिति अलट्रासाऊंड व एक्सरे कराने वाले मरीज़ों की भी होती है। इन सब बातों के बावजूद अस्पताल की प्रिंसिपल मेडिकल ऑफिसर सविता यादव कहती हैं कि उन्हें तो कभी कोई शिकायत नहीं मिली। शिकायत तो तब मिले न जब वह किसी शिकायतकर्ता को अपने कमरे में घुसने दें।