अग्निपथ को लेकर हाल ही में हुए प्रदर्शनों के दौरान हुई हिंसा, आगजनी व तोड़-फोड़ को लेकर तमाम लोगों ने प्रदर्शन का तो समर्थन किया लेकिन आगजनी तोड़-फोड़ व हिंसा का विरोध किया। सभी ने इसे राष्ट्रीय क्षति बताया है यानी राष्ट्र की संपत्ति का नुक्सान बताया है। इन सभी ने शांतिपूर्वक आंदोलन एवं प्रदर्शन की वकालत की है।
सत्य तो यह है कि कोई भी व्यक्ति इतनी फुर्सत में नहीं होता कि वह आन्दोलन एवं प्रदर्शन आदि में अपना समय व्यर्थ गंवाये। यह तो सरकार की नीतियां होती हैं जो उसे आन्दोलन एवं प्रदर्शन के लिये बाध्य करती हैं। जब कोई सरकार शांतिपूर्ण प्रदर्शन की भाषा को न समझे और ढीठ बनकर अपनी जनविरोधी नीतियों पर कायम रहे तो आन्दोलनकारियों को मजबूरन तोड़-फोड़ व आगजनी का रास्ता अख्त्यार करना पड़ता है। उनके पास पथराव से बड़ा कोई हथियार होता नहीं है। हिंसा करने के तमाम हथियार लाठी, गोली, बंदूक, टीयर गैस आदि जैसे तमाम साधन तो सरकारी दस्तों के पास होते हैं। इन्हीं के द्वारा प्रदर्शनकारी घायल भी होते हैं और जान से भी मरते हैं।
तर्क दिया जाता है कि ये तमाम संपत्तियां बस, रेल, सरकारी भवन आदि सब कुछ तो जनता का अपना ही है। फिर इसे जला कर जनता अपना ही नुकसान क्यों कर रही है? इसके जवाब में आग लगाने वाले उग्र युवा तर्क देते हैं कि यदि ये बसें व रेलें जनता की हैं तो कोरोना के वक्त जब लाखों लोग सैंकड़ों-हजारों मील पैदल चल रहे थे तो ये रेलें व बसें कहां थीं? आज भी सरकार ने आधी से अधिक रेल सेवायें बंद कर रखी हैं। ओर जो चल भी रही हैं तो उन पर मनमाने भाड़े लागू कर रखे हैं। दूसरा तर्क यह भी दिया जाता है कि जो चीज़ जनता की है और जनता ही उसे जला रही है तो सरकार क्यों परेशान हो रही है?
शांतिपूर्ण आंदोलन का एक ताज़ातरीन उदाहरण आज भी मौजूद है। करीब 1000 युवाओं का जत्था तिरंगा हाथ में लेकर नागपुर से दिल्ली की ओर पैदन बढ़ रहा है। इन युवाओं की मांग केवल इतनी सी है कि सरकार द्वारा 2018 में केन्द्रीय सुरक्षा बलों के लिये निकाली गई भर्तियों में जब वे उत्तीर्ण हो चुके हैं तो उन्हें नियुक्ति क्यों नहीं दी जा रही? बड़ी वाजिब मांग है, परन्तु सुनता तो कोई नहीं और मीडिया में भी उन्हें कहीं जगह नहीं मिल रही। उनकी बात तक कोई करने को तैयार नहीं। हां, यदि उन्होंने कुछ बड़ी हिंसक वारदातें कर दी होतीं तो उनका आन्दोलन भले ही फेल हो जाता परन्तु मीडिया तुरन्त उनकी कवरेज करता।
जब कमजोर एवं पीडि़त की बात कोई नहीं सुनता और जाबर के गले तक उसका हाथ नहीं पहुंच पाता तो वह आक्रोश एवं क्षोभ में अपनी नसें काट लेगा या फंदे पर लटक जायेगा या अपने को आग लगा कर मर जायेगा। लगभग ऐसी ही कुछ स्थिति आज अग्निवीरों की भी है।