मज़दूर मोर्चा ब्यूरो भारत के विभिन्न प्रांतों से प्रति वर्ष पांच से छ: हजार बच्चे मेडिकल शिक्षा के लिये यूक्रेन जाते हैं। लगभग इतने ही बच्चे रूस, कजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान आदि देशों में जाते हैं। कुछ बच्चे चीन व अन्य देशों में भी जाते हैं। और तो और नेपाल तक जैसे पिछड़े एवं गरीब देश में भी जाते हैं। यूक्रेन संकट के इस काल में वहां से छात्रों को सुरक्षित निकाल पाने में बुरी तरह से असफल मोदी सरकार जनता के निशाने पर आने को लेकर अंधभक्त आज इस सवाल को बड़े जोर-शोर से उछाल रहे हैं।
यदि किसी का काम घर में रहने से चलता हो तो वह कभी बाहर जाना पसंद नहीं करता। मजबूरी में ही लोगों को दूर-दराज अथवा विदेशों की ओर जाना पड़ता है। भारत सरकार, चाहे वह कांग्रेस की रही हो या भाजपा की रही हो किसी ने भी भारतीय युवा वर्ग की विलक्षण एवं कुशाग्र बुद्धि के अनुरूप उसे विकसित होने के लिये आवश्यक साधन उपलब्ध नहीं कराये। भारतीय बच्चों में डॉक्टर बनने का जितना टेलेंट उपलब्ध है उस के लिये यहां पर एक चौथाइ मेडिकल कॉलेज भी नहीं बनाये गये हैं। इसलिये जिन बच्चों को यहां अवसर नहीं मिल पाता वे विदेशों की ओर भागते हैं।
आज के दिन भारत में कुल 605 मेडिकल कॉलेज हैं। इनमें से आधे सरकारी तथा शेष प्राइवेट हैं। सरकारी कॉलेजों में फीस जहां 56 हजार रुपये वार्षिक है वहीं निजी कॉलेजों में यही फीस 20 लाख से लेकर 25 लाख तक वार्षिक है। प्राइवेट कॉलेजों से प्रेरित होकर हरियाणा की खट्टर सरकार ने भी अपने कॉलेजों की फीस बढ़ा कर 10 लाख वार्षिक कर दी है। इसके विपरीत यूक्रेन, रूस, कजाकिस्तान आदि जैसे देशों से मात्र 25 लाख में बच्चे एमबीबीएस की डिग्री लेकर आ जाते हैं।बाहर से डिग्री लाने वालों के लिये यहां एक ब्रिज परीक्षा का प्रावधान है जिसमें 20-25 प्रतिशत बच्चे ही उत्तीर्ण हो पाते हैं। अर्थ स्पष्ट है कि सस्ते विदेशी व्यपारिक कॉलेजों का शैक्षणिक स्तर बहुत ही निम्न स्तर का होकर रह गया है।
बड़ा सवाल ये पैदा होता है कि जो विदेशी कॉलेज 20-25 लाख में एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी करा देते हैं उनका गुजारा कैसे होता है? दरअसल ये तमाम कॉलेज कम्यूनिस्ट शासन काल में केवल जन कल्याण के लिये बनाये गये थे न कि मुनाफाखोरी के लिये। इनका इन्फ्रास्ट्रक्चर अंतर्राष्ट्रीय मानकों जैसा हैं। लेकिन साथ-साथ इन कॉलेजों की फेकल्टी का वेतनमान बहुत कम हैं। अनेकों अंतर्राष्ट्रीय कारणों के चलते यहां डॉलर यानी विदेशी मुद्रा का भी भारी संकट रहता है। भारतीय छात्रों से मिलने वाली विदेशी मुद्रा इनके बहुत काम की होती है। यही बात यदि भारत सरकार चलाने वाले विभिन्न राजनीतिक दलों के समझ में आ गई होती तो आज हमारे छात्र विदेशी मुद्रा खर्च करके बाहर पढऩे न जाते, बल्कि बाहर के छात्र विदेशी मुद्रा लेकर यहां पढऩे आते। पिछले साल मेडिकल शिक्षा से सम्बन्धित कड़ी शर्तों में कुछ ढील देने के चलते इस वर्ष 92 हजार छात्रों ने एमबीबीएस कोर्स में दाखिला लिया है। इसके लिये सरकार ने केवल इतना किया कि जिस कॉलेज में पहले 100 सीट थी वहां 150 कर दी गई हैं। यानी बिना कोई नया कॉलेज खोले सीटों की संख्या डेढ गुणा हो गई। जाहिर है कि इसका कुछ न कुछ दुष्प्रभाव तो पढ़ाई के स्तर पर पड़ेगा ही।
भारत में मेडिकल शिक्षा का एक दु:खद पहलू यह भी है कि एमबीबीएस कोर्स की अपेक्षा पोस्ट ग्रेजुएशन के लिये सीटें बहुत ही कम है। ऐसे में बेहतरीन छात्र एमबीबीएस करने के बाद अमेरिका, इंग्लैन्ड, आस्ट्रेलिया आदि देशों की ओर लपकते हैं। उन देशों में इन्हें बेहतरीन सुविधायें अच्छा वेतन के साथ-साथ काम करने के लिये बेहतरीन उपकरण व माहौल मिलता है। ये उन्नत देश एमबीबीएस कोर्स कराने पर अपने संसाधनों को कम ब्यय करते हैं जबकि पोस्ट ग्रेजुएशन पर अधिक खर्च करते हैं। दूसरे शब्दों में हमारे यहां के विपरीत विदेशों में एमबीबीएस की कम सीटें और पोस्ट ग्रेजुएशन में ज्यादा सीटें रखी जाती हैं। संदर्भवश सुधी पाठक जान लें कि पोस्ट ग्रेजुएशन के बगैर डॉक्टरों को अधूरा ही माना जाता है।