वह तो कम्युनिस्ट है और एक बार वह बन गया तो फिर वह हटने वाला नहीं..

वह तो कम्युनिस्ट है और एक बार वह बन गया तो फिर वह हटने वाला नहीं..
November 22 02:55 2020

ट्रेड यूनियन आन्दोलन में सेठी व  एचएमएस की अहमियत

सतीश कुमार  (सम्पादक : मजदूर मोर्चा)

 

सुभाष सेठी द्वारा एस्कॉर्टस यूनियन व एचएमएस को खड़ा करने से बरसों पहले फरीदाबाद नामक इस औद्योगिक शहर में बड़े-बड़े ट्रेड यूनियनिस्ट अपने कमाल दिखा चुके थे। देश की सबसे बड़ी व पुरानी ट्रेड यूनियन एटक के बड़े नेता कॉमरेड दर्शन सिंह, ईस्ट इन्डिया जैसी बड़ी टेक्स्टाइल कम्पनी की यूनियन चलाने वाले कॉमरेड नज़र मोहम्मद शहर के तमाम बैंकों व बीमा कर्मचारियों के नेता कामरेड प्रेम सिंह सरीखे कई नेता यहां बड़े-बड़े मज़दूर आन्दोलन चला चुके थे। पूरा औद्योगिक क्षेत्र इनके लाल झंडों से पटा रहता था। प्राय: हजारों मज़दूरों के लम्बे-लम्बे जुलूस शहर भर में चर्चा का विषय हुआ करते थे। परन्तु इस सबके बावजूद ट्रेड यूनियन आन्दोलन में सेठी ने अपना विशेष स्थान बनाने में कामयाबी हासिल की थी। एस्कॉर्टस उद्योग समूह जैसी बड़ी यूनियन के अलावा एक वक्त में उनका झंडा बल्लबगढ़ की एलसन कॉटन मिल से लेकर बदरपुर बॉर्डर स्थित केजी खोसला लहराने लगा था। क्षेत्र की सैंकड़ों यूनियनों के हज़ारों श्रमिक उनसे जुड़े थे। विधानसभा का चुनाव बेशक वे हार गये थे फिरर भी उन्होंने जितने वोट पाये उतने इस क्षेत्र के किसी भी ट्रेड यूनियनिस्ट ने कभी नहीं पाये। इसके लिये उन्होंने जो भी तिकड़म लगाई लेकिन वोट तो पाये ही। इन्हीं सब कारणों के चलते सेठी एवं उनके दौर को समझना बहुत जरूरी है।

बीरम सिंह

सरकार के दमनकारी युग में जब यूनियन का नाम लेना तक गुनाह था तो यूनियनें बनी और संघर्षों के बल पर अनेकों जीत हासिल की लेकिन जब ट्रेड यूनियनों की ताकत के सामने सरकार व मालिकान ने सीधे दमन की राह छोड़ दी तो ट्रेड यूनियनों के पतन को समझना और भी जरूरी हो जाता है। फरीदाबाद की सबसे बड़ी एवं ताकतवर एस्कॉर्टस यूनियन व फेडरेशन के रूप में खड़ी एचएमएस का राजनीतिक एवं प्रशासनिक हल्कों में तो प्रभाव बढता चला गया लेकिन संगठन के भीतर की परिस्थितियां लगातार बिगडऩे लगी। इसका शुरूआती एवं बड़ा कारण एस्कॉर्टस यूनियन के संस्थापक प्रधान बीरम सिंह तथा सुभाष सेठी के बीच लगातार बढ़ते तनाव में देखा जा सकता है। छोटी-छोटी बातों को दरकिनार करने के बावजूद बड़ा मुद्दा तब सार्वजनिक हुआ जब बीरम सिंह ने सेठी की 200 रुपये प्रति श्रमिक, उनकी बीमारी के नाम पर एकत्र करने का विरोध किया।  बीरम सिंह का कहना था कि उनकी किडनी बीमारी के इलाज एवं देखभाल के लिये 200 की बजाय 100 रुपये प्रति श्रमिक ही एकत्र किये जाने चाहिये। उनके मुताबिक 100 रुपये के हिसाब से भी 10-12 लाख रुपये आ जायेंगे जिससे प्राप्त होने वाला ब्याज ही उनकी जरूरत से कहीं ज्यादा होगा और यदि फिर भी कोई कमी पड़े तो दोबारा एकत्र कर लिया जायेगा।

बस, फिर क्या था, सेठी समर्थकों ने प्रचार शुरू कर दिया कि बीरम सिंह नहीं चाहते कि सेठी का इलाज ठीक से हो पाये, वे तो उन्हें मारना चाहते हैं। उधर बीरम समर्थक भी पीछे रहने वाले नहीं थे। उन्होंने जवाबी कार्यवाही करते हुए कहना शुरू कर दिया कि इलाज के नाम पर धन बटोरने का विरोध है, इलाज के लिये पैसे की कोई कमी नहीं। ध्यान रहे, इस से पूर्व सेठी की बीमारी को देखते हुए यूनियन ने उनके लिये एक नई फीएट कार खरीद कर दी थी और ड्राइवर को भी पक्की नौकरी पर रखा था। इस पर किसी का कोई विरोध नहीं हुआ था। लेकिन 200 रुपये वाली बात पर दोनों ओर के समर्थक खुल कर आमने-सामने आ डटे और इश्तिहारबाज़ी तक पर उतर आये तक जो संगठन के लिये बहुत घातक होने वाला था।

इसके कुछ समय बाद सेठी ने यूनियन का चुनाव न लडऩे का एलान किया। कारण यह था कि श्रमिक  मज़बूत यूनियन की छत्र-छाया में इतने बेखौफ एवं अनुशासनहीन हो गये थे कि प्लांट में ही शराब पीने व जुआ खेलने की शिकायतें बहुत तेज़ी से बढऩे लगी। प्रबन्धन तो इससे परेशान था सो था, श्रमिकों के अपने बीवी-बच्चे तक दुखी थे; क्योंकि अनेकों श्रमिक पूरी की पूरी तनखा हार कर बैरंग घर पहुंचने लगे थे। ट्रेड यूनियन आन्दोलन के प्रति जागरूकता एवं राजनीतिक सूझ का विकास न हो पाने के चलते श्रमिकों ने यूनियन  को केवल आर्थिक लाभ प्राप्त करने और नौकरी की सुरक्षा मात्र का साधन समझ लिया था। श्रमिकों का यह पतन कोई एक दिन में यकायक नहीं हो गया था बल्कि नेतृत्व द्वारा इस ओर ध्यान न देने से यह मर्ज धीरे-धीरे बढ़ता चला गया था।

चुनाव तो निश्चित समय पर होने ही थे सो घोषणा हो गयी। सेठी जी चंडीगढ जा बैठे। यहां किसी को कोई दिशा निर्देश नहीं कि उनके चुनाव न लडऩे की सूरत में क्या किया जाये? लिहाज़ा अयोध्या प्रसाद यादव नामक एक श्रमिक ने प्रधान पद के लिये फार्म भर दिया। बकौल बीरम सिंह वह निहायत ही घटिया व शराबी-कबाबी था जिसे बीरम सिंह यूनियन के लिये बहुत ही हानिकारक मानते थे। इन हालात में बीरम सिंह ने विजय नामक एक अन्य श्रमिक को प्रधान पद के लिये खड़ा कर दिया। खबर मिलते ही सेठी बीरम सिंह पर झल्लाये तो बीरम सिंह ने साफ जवाब दे दिया कि उनके पास किसी तरह का कोई दिशा-निर्देश नहीं था, सो उन्होंने अपने विवेक से एक बेहतर आदमी को चुनाव में उतार दिया। इस पर सेठी ने कहा कि (विजय) बेहतर कैसे हो सकता है, वह तो कम्युनिस्ट है और एक बार वह बन गया तो फिर वह हटने वाला नहीं। यानी सेठी का यह पैंतरा तो केवल इसलिये था कि एक बार किसी निकृष्ट को प्रधान बनवा कर श्रमिकों को महसूस करायें कि वे ही सबसे बेहतर नेता हैं। वरना जब वे खुद प्रधान नहीं बनना चाहते थे तो बीरम सिंह को क्यों मौका नहीं दिया? जबकि बीरम सिंह ने फाऊंडर प्रधान होते हुए उनके लिये तुरन्त न केवल पद छोड़ दिया बल्कि सेठी के लिये हनुमान बन कर काम करते रहे।

संगठन में दरार पडऩे के लिये यूं तो उक्त दो वाकये ही पर्याप्त थे परन्तु तीसरे वाकये ने तो सेठी व बीरम को आमने-सामने लाकर खड़ा कर दिया। हुआ यूं कि सेठी ने बीरम को चैंलेंज करते हुए कह दिया कि यदि 80 प्रतिशत से कम वोट मिले तो वे प्रधान पद नहीं स्वीकारेंगे। बीरम ने चैलेंज स्वीकारते हुए उनके मुकाबले फार्म भर दिया। सेठी के पसीने छूट गये, बड़ी मुश्किल से मामूली वोटों के अंतर से चुनाव तो वे जीत गये परन्तु उनका 80 प्रतिशत वाला वहम दूर हो गया। इतना सब होने के बाद जाहिर है संगठन की जो एकरसता व मजबूती थी उसमें भारी कमी आनी तय थी।

किडनी रोग से ग्रस्त सेठी ने दो बार किडनी बदलवाई लेकिन वे बच नहीं पाये और दिनांक 17 सितम्बर 1997 को उनका निधन हो गया। वे अपनी अन्तिम सांस तक एस्कार्ट्स यूनियन के प्रधान तथा एचएमएस के वास्तविक सर्वेसर्वा बने रहे। उनके बाद 10, फरवरी 1998  में बीरम सिंह प्रधान बने। उनके समय में 24 मई, 1999 को दिये गये त्रिवार्षिक मांगपत्र को लेकर कम्पनी अपनी जि़द पड़ अड़ गयी क्योंकि उसे वहम था कि सेठी के जाने के बाद अब यूनियन कमज़ोर हो गयी है; लेकिन बीरम झुके नहीं और हड़ताल का निर्णय ले लिया। 40 दिन चली हड़ताल के बाद कम्पनी ने मांगे तो मान ली लेकिन बीरम सिंह की नौकरी खा कर। उस वक्त श्रमिकों की प्राथमिकता अपना आर्थिक लाभ था न कि अपने प्रधान की बहाली। उस वक्त  के मिले आर्थिक लाभ को तो श्रमिक आज तक याद करते हैं परन्तु किसी ने भी बीरम सिंह को हौसला व सहारा देकर संघर्ष करने की बजाय उन्हें नितांत अकेला छोड़ दिया तो उन्हें मजबूरन हिसाब लेकर जाना पड़ा।

कम्पनी से निष्कासित होते ही एस्कॉर्टस यूनियन से भी उनका नाता टूट गया। लेकिन हिन्द मज़दूर सभा से वे जुड़े रहे। करीब तीन वर्ष तक एचएमएस के प्रधान भी बने रहे लेकिन यह पद केवल दिखावटी ही रहा क्योंकि एचएमएस की असल ताकत तो एस्कॉर्टस यूनियन के हाथों में ही थी और वे एचएमएस की कार्यकारीणी के सदस्य तक भी नहीं रहे।

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