एस्कॉर्टस यूनियन की गोद में बैठ कर आई एचएमएस
सतीश कुमार (सम्पादक : मजदूर मोर्चा)
फरीदाबाद शहर की सबसे बड़ी भारी-भरकम यूनियन के रूप में उभर कर आया सत्तर के दशक में एस्कॉर्टस के मज़दूरों का संगठन। पूरे हरियाणा में एक भी यूनियन का आकार-प्रकार इतना बड़ा नहीं था, बल्कि देश भर में कुछ चुनिंदा कारखानों में ही इस स्तर की यूनियन रही होंगी। उस वक्त सुभाष सेठी व बीरम सिंह के नेतृत्व में एस्कॉर्ट यूनियन ने निर्णय लिया था कि वे एक बड़ी, साधन सम्पन्न एवं सक्षम यूनियन होने के नाते छोटे कारखानों में कार्यरत मज़दूरों को संगठित करके उनके अधिकार दिलाने में उनका सहयोग व संरक्षण करेंगे। इसके लिये उन्हें एचएमएस (हिन्द मज़दूर सभा) से एिफलिएट किया जायेगा।
एचएमएस का जि़ला संगठन खड़ा किया गया जिसके प्रथम अध्यक्ष कॉमरेड दिलीप सिंह बने। कार्यकारिणी में अधिकांश सदस्य एस्कॉर्ट यूनियन से ही थे और संगठन का खर्चा भी एस्कॉर्ट यूनियन ही चलाती थी। ऐसे में इसका कार्यालय भी एस्कॉर्ट यूनियन के दफ्तर में ही बना दिया गया। उस वक्त कार्यालय के नाम पर एक मेज एस्कॉर्ट यूनियन की व एक मेज एच एम एस की लगा दी गयी थी, बैठने के लिये दो-चार कुर्सियां व स्क्रैप के बने दो-चार बेंच होते थे। नीलम फ्लाईओवर की बगल में एस्कॉर्ट यूनियन ने पहले एक दुकान किराये पर ली, फिर खरीद ली थी। आर्थिक स्थिति कुछ ठीक होने पर साथ वाली दुकान भी खरीद ली गयी। एस्कॉर्ट यूनियन जैसे बड़े नाम से जुड़ी एच एम एस के पास आने वाले मज़दूरों का तांता लग गया।
जाहिर है ऐसे में दफ्तर के नाम पर खड़ी दो दुकानें बहुत छोटी पडऩे लगीं, लिहाजा मज़दूरों के साथ मीटिंगों का सिलसिला पुल के नीचे चलता था और एक साथ दो-दो, तीन-तीन मीटिंगें चलती रहती थी। बड़ी मीटिंगे दफ्तर के पीछे उस मैदान में रखी जाती थीं जिसमें अब एस्कॉर्ट अस्पताल बना है। दफ्तर के नाम पर दुकाननुमा दो कमरे तो मात्र कागजात आदि रखने की अल्मारियां बन कर रह गये थे। वाहन के नाम पर एच एम एस कार्यकर्ताओं के पास साइकिलें हुआ करती थीं जिनसे वे बदरपुर बार्डर पर स्थित केजी खोसला कम्पनी से लेकर बल्लबगढ के पार एलसन कॉटन मिल तक की यूनियनों को संचालित करने का काम बखूबी करते थे। नीलम पुल के नीचे एवं दफ्तर के आगे पीछे मज़दूरों की भीड़ ऐसे लगी रहती थी मानो कोई मेला लगा हो। इसे देख कर जि़ला प्रशासन हमेशा सशंकित रहता था। ये मज़दूर कब कहां क्या करने वाले हैं, जानने के लिये खुफिया पुलिस वाले बड़ी बेचैनी से वहां चक्कर लगाते रहते थे। पूरे क्षेत्र में धड़ाधड़ एचएमएस के झंडे फैक्ट्री गेटों पर लहराने लगे थे।
ऐसा भी नहीं था कि सभी मालिकान शान्तिपूर्वक झंडा लगने देते हों; अनेकों मालिकान इसका कड़ा विरोध करते थे। झंडे का मतलब यह समझा जाता था कि कम्पनी में मज़दूरों की यूनियन संगठित हो गयी है और अब वह मालिकान पर दबाव बना कर अपनी उल्टी-सीधी मांगों को लेकर मज़दूरों को भडक़ायेगी, स्लो-डाउन करके उत्पादन घटायेगी या फिर हड़ताल करके कम्पनी का सत्यानाश कर देगी। परन्तु यह वास्तविकता नहीं थी। मज़दूरों की मुख्य मांग सरकार द्वारा निर्धारित श्रम कानूनों को लागू कराना होता था। कम्पनी मालिकान प्राय: न तो नियुक्ति पत्र देते थे न कोई हाजिरी रजिस्टर दिखाते थे, न समय पर वेतन देते थे। जबरन आठ घंटे की बजाय 12 घंटे या 16 घंटे काम कराते थे, निर्धारित छुट्टियां व न्यूनतम वेतन, महंगाई भत्ता, जो समय-समय पर सरकार द्वारा घोषित किया जाता था, नहीं देते थे। अधिकांश मांगे लगभग इसी तरह की होती थी। इसके अलावा जब जी चाहा काम से निकाल देना, ईएसआई व पीए$फ की कवरेज से बचना, मज़दूर के घायल होने, अंग भंग होने पर उसे चुपचाप डरा-धमका कर खदेड़ देना आदि बड़ी आम सी बातें हुआ करती थीं। जो मालिकान बात-चीत के जरिये समझदारी से मुद्दों को सुलझा लेते थे उन्हें कभी कोई दिक्कत नहीं होती थी लेकिन हठधर्मिता अपनाने वाले मालिकान पैसे के बल पर अपने गेट पर पुलिस छावनी तक बनवा लिया करते थे। लेकिन इससे कभी कोई स्थाई समाधान नहीं निकलता था, समाधान तो अन्त में बातचीत से ही निकलता था।
कई मालिकान ऐसे भी होते थे जो नहीं चाहते थे कि उनके मज़दूर अपनी यूनियन का झंडा बदलें। झंडा बदलने का मतलब यूनियन का एिफलिएशन बदलना होता है। जैसे उस समय ऑटो पिन नामक कम्पनी पर बीएमएस (भारतीय मज़दूर संघ) का भगवा झंडा लगा था लेकिन मज़दूर उस झंडे यानी बीएमएस को छोड़ कर एचएमएस में आना चाहते थे, लेकिन कम्पनी मालिकान को यह मंजूर नहीं था क्योंकि बीएमएस नेता से मालिकान की सेटिंग ठीक थी। इसी सेटिंग के चलते कम्पनी मालिकान किसी कायदे-कानून को नहीं मान कर पूरी मनमानी व दादागीरी से फैक्ट्री चलाते थे। और तो और वेतन तक भी एक से डेढ महीना देरी से देते थे, जी हां कानूनन जो वेतन सात अक्तूबर को मिल जाना होता था वह मिलता था 15 से 20 नवम्बर तक। इतना ही नहीं, इस गुंडागर्दी के खिलाफ ज़रा सा भी मुंह खोलने वाले की पिटाई का प्रबन्ध भी कम्पनी के अंदर करके रखा जाता था।
आखिर यह दादागीरी कब तक चल पाती? एक दिन तमाम मज़दूरों ने पूरी एकजुटता व हौंसले का प्रदर्शन करते हुए पालतू यूनियन के विरुद्ध बगावत करते हुए गेट मीटिंग का आयोजन किया। बीएमएस का न केवल झंडा बल्कि वह पोल ही उखाड़ फेंका जिस पर झंडा लगा हुआ था। नया पोल गाड़ कर एचएमएस का झंडा लगाया गया। झंडा बदलते ही पहली मांग समय पर वेतन देने की थी। मालिकान को कई बार समझारने- बुझाने के बावजूद जब एक माह तक भी वेतन नहीं मिला तो यूनियन ने स्लो -डाउन या हड़ताल की बजाय एक शाम मालिकान को उनके दफ्तर में ही घेर कर बंधक बना लिया, शर्त रखी कि जब तक वेतन नहीं मिलेगा तब तक मालिकान बंधक बने रहेंगे। घंटा भर इंतजार करने के बाद थाना मुजेसर से तत्कालीन एसएचओ रतन सिंह पूरे दल-बल के साथ आ पहुंचे।
पुलिस अधिकारी भी यह सुन कर हैरान रह गये कि मज़दूरों को बीते माह का वेतन एक महीना बीत जाने के बाद भी नहीं मिला और मज़दूर शान्तिपूर्वक काम भी कर रहे हैं केवल धरना-घेराव कर रहे हैं। अपनी आदत के मुताबिक मालिकान ने अपनी रटी-रटाई मज़बूरी बताई जिसका मज़दूरों से कोई ताल्लुक न था। फिर भी पुलिस के कहने पर यूनियन ने, तीन दिन बाद वेतन देने की बात मानते हुए घेराव उठा लिया। लेकिन तीन दिन बाद भी जब वेतन नहीं मिला तो फिर घेराव हुआ, फिर वही पुलिस; लेकिन इस बार पुलिस ने मालिकान को धमकाया और कहा कि यदि कल तक वेतन नहीं दिया तो उन्हें हवालात में बंद कर देगा। पुलिस के हमदर्दी दिखाने से यूनियन ने घेराव उठा लिया। अगले दिन वेतन मिल गया। उसके बाद धीरे-धीरे कम्पनी ने अपनी आदत बदली और समय पर वेतन देने लगी। लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं हो गयी। यह तो पहली शुरूआत थी। सोचो जो कम्पनी समय पर वेतन तक न देती हो वह और क्या-क्या नाजायज नहीं करती होगी। हां, घेराव करके वेतन वसूलने से मज़दूरों के हौंसले जरूर बढ गये थे। साथ ही उन्हें शान्तिपूर्वक एवं तर्क संगत ढंग से लडऩे व पुलिस से निपटने का तरीका भी समझ में आ गया था।