दिल्ली पुलिस कमिश्नर को फरवरी दंगों का यह सच भी बताना चाहिए…

दिल्ली पुलिस कमिश्नर को फरवरी दंगों का यह सच भी बताना चाहिए…
September 26 11:53 2020

 

विकास नारायण राय (पूर्व डायरेक्टर, नेशनल पुलिस अकादमी, हैदराबाद)

दिल्ली पुलिस कमिश्नर एसएन श्रीवास्तव ने सुपरकॉप जूलियस रिबेरो की उस चर्चित चिट्ठी का जवाब दे दिया है, जिसमें फरवरी के साम्प्रदायिक दंगों में राजनीतिक कारणों से पक्षपातपूर्ण इन्वेस्टीगेशन करने पर सवाल उठाये गए थे। इस बीच कई और पूर्व आईपीएस अधिकारियों ने भी इसी बिना पर दिल्ली पुलिस को शक के कठघरे में खड़ा किया है। जवाब में, न केवल श्रीवास्तव ने अपनी पुलिस की पूर्ण निष्पक्षता का दावा किया है बल्कि उल्टे गेंद रिबेरो के पाले में डाल दी है कि वे बिना तथ्यों को जाने भ्रामक रिपोर्टों और बयानों के आधार पर आरोप लगा रहे हैं।

अपने समर्थन में श्रीवास्तव ने आंकड़े दिए हैं कि दंगों को लेकर कुल दर्ज 751 एफ़आईआर में से 410 अल्पसंख्यक समुदाय के व्यक्तियों की ओर से दर्ज की गयी हैं जबकि 190 बहुसंख्यक समुदाय और शेष पुलिस की ओर से। उनके अनुसार गिरफ्तार लोगों में भी दोनों समुदायों से लगभग आधे-आधे व्यक्ति शामिल हैं। स्पष्ट है, आंकड़ों की इस कारीगरी को दिल्ली पुलिस राजनीतिक/सामाजिक विरोध को सांप्रदायिक दंगे जैसे आपराधिक कृत्य की भूमिका बनाने की अपनी कवायद को सही ठहराने में आगे भी इस्तेमाल करती रहेगी।

दरअसल, हुआ यह है कि मोदी सरकार के साम्प्रदायिक नागरिकता कानून के विरोध में गत दिसंबर से चल रहे आन्दोलन में सक्रिय रहे जाने-माने राजनीतिक, समाजकर्मी और छात्र एक्टिविस्ट 24-26 फरवरी के उत्तर-पूर्व दिल्ली के साम्प्रदायिक दंगों के साजिशकर्ता बना दिए गए हैं। वह भी महज इस हवाई तर्क पर कि धरना स्थलों पर भडक़ी हिंसा ने उनकी साजिश के चलते हिन्दू-मुस्लिम दंगों का रूप ले लिया।

यह कुछ वैसे ही हुआ कि स्वतंत्रता संग्राम के असहयोग आन्दोलन में फरवरी 1922 में हुए चौरी चौरा काण्ड की हिंसा के लिए गांधी जी और कांग्रेस के उन तमाम बड़े नेताओं को साजिशकर्ता ठहरा दिया जाए जिन्होंने सितम्बर 1920 में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध असहयोग आन्दोलन शुरू किया था। ब्रिटिश पुलिस ने भी तब के रौलट एक्ट उर्फ़ काला एक्ट का ऐसा दुरुपयोग नहीं किया था, जैसा अब दिल्ली पुलिस यूएपीए का कर रही है।

नागरिकता कानून के विरोधियों को दंगों की हिंसा से जोडऩे की मुहिम में दिल्ली पुलिस ने तमाम आरोप पत्रों में एक चार-आयामी साजिश-खाका डाला है। इसके अनुसार सीपीएम महासचिव सीताराम येचूरी, स्वराज अभियान के योगेन्द्र यादव, दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद, डाक्यूमेंट्री निर्माता राहुल रॉय-सबा दीवान, लंगर चलाने वाले डीएस बिंद्रा जैसे लोग साजिशकर्ता की भूमिका में दिखेंगे; आइसा, पिंजड़ा तोड़ जैसे संगठनों और उमर खालिद, देवांगना कालिता, नताशा नरवाल जैसे युवा उनके संपर्क सूत्र करार दिए जायेंगे; धरना स्थल पर मुख्य स्थानीय व्यक्तियों को हिंसा में मुख्य संगठनकर्ता माना जाएगा; और जो मुस्लिम वास्तव में हिंसा में लिप्त थे उन्हें उपरोक्त तीन श्रेणियों द्वारा भडक़ाया गया बताया जाएगा। इस खाके का एकतरफ़ा निष्कर्ष यह भी निकल सकता है कि हिंदुओं की ओर से सारी हिंसा आत्मरक्षा में हुयी है।

पुलिस कमिश्नर श्रीवास्तव के जवाब में निम्न बेहद संगत मुद्दों पर भी खामोशी है-

  1. एक लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में दिल्ली पुलिस राजनीतिक और सामाजिक विरोध को अपराध की श्रेणी में किस बिनाह पर डाल रही है?
  2. दंगे का चरित्र साम्प्रदायिक था और इसमें जिन 53 लोगों की जान गयीं उनमें 45 अल्पसंख्यक समुदाय से थे। अधिकांश संपत्ति का नुकसान भी इन्हीं का हुआ और ज्यादातर एफआईआर भी इसी समुदाय की ओर से हैं। ऐसे में दोनों समुदायों से लगभग बराबर की गिरफ्तारी स्वयं में पुलिस की निष्पक्षता पर बड़ा सवाल है?
  3. कपिल मिश्रा की भूमिका की कोई छानबीन क्यों नहीं की गयी? स्वयं पुलिस के एक गवाह नजमुल हसन ने न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष बयान में कहा है कि चाँद बाग़ पर धरना टेंट में कपिल मिश्रा के लोगों ने आग लगाईं थी। जबकि आरोप है कि कपिल मिश्रा के तार नागरिकता आन्दोलन को साम्प्रदायिक दंगे में बदलने से जुड़े हुए हैं।

4.दंगों के दौरान पुलिस के कई आपराधिक कृत्य कैमरे में कैद हैं। इनको इन्वेस्टीगेशन का विषय क्यों नहीं बनाया गया? अनेक मौकों पर जानबूझकर क़ानूनी कार्यवाही करने में पुलिस की कोताही को प्रशासनिक जांच का विषय क्यों नहीं बनाया गया?

क्या दिल्ली पुलिस स्वयं को वाकई निष्पक्ष दिखाना चाहेगी? तो इसका एक सीधा उपाय है कि वह बस थोड़ा पारदर्शी हो जाए। दिसंबर 2019 से तमाम धरना स्थलों की गतिविधियों को पुलिस की बीट टीमें कवर कर रही होंगी। उनकी रोजाना की रिपोर्ट सार्वजनिक कर दीजिये- सही तस्वीर स्वयं पुलिसवालों की जुबानी ही बाहर आ जायेगी। दूसरे, पुलिस द्वारा उस दौरान बनाए गए सभी वीडियो, जो सर्वोच्च न्यायालय के आदेशानुसार अनिवार्य है, को जारी कर दीजिये- वे घटनाक्रम का जरूरी दस्तावेज हैं। तीसरे, दंगों के दौर में सभी सम्बंधित पुलिस कर्मियों के बीच हुए परस्पर कॉल डिटेल भी प्रकाशित करें ताकि उन सबकी जवाबदेही सामने आये।

पुलिस कमिश्नर इतना कर सकें

तो उन्होंने जूलियस रिबेरो को ही नहीं अपने हर आलोचक को उचित

जवाब दे दिया समझिये। अन्यथा उनका जवाब लीपापोती के सिवा कुछ नहीं।

 

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