70-80 के दशक में मज़दूर नेता को पालना ज़्यादा महंगा नहीं था

70-80 के दशक में मज़दूर नेता को पालना ज़्यादा महंगा नहीं था
September 05 14:33 2020

 

सतीश कुमार (संपादक मजदूर मोर्चा)

 

मालिकान की हल्की सी मुस्कुराहट के साथ छोटी-मोटी मेहरबानी के तौर पर नेता के कहने अच्छी मशीन पर लगा देना, छोटी-मोटी पदोन्नति कर देना, कैंटीन में मुफ्त खाना खिलवा देना ही बहुत होता था। इस तरह की मेहरबानियां पाने वालों को मज़दूर ‘दाल फ्राई’ यूनियन का नाम देने लगे थे। अपनी इस जेबी यूनियन को कायम रखने के लिये प्रबन्धन पूरी ताकत लगा दिया करते थे। मुकाबले में दूसरी किसी यूनियन  को खड़ा नहीं होने देते थे। इसका $फरीदाबाद में बेहतरीन उदाहरण एनआईटी क्षेत्र में स्थित ईस्ट इन्डिया टेक्सटाइल कम्पनी थी। कहने को तो यह यूनियन कम्युनिस्ट पार्टी से सम्बन्धित एटक की एक यूनिट थी; परन्तु यहां एटक का कोई दखल नहीं होता था। यहां के सर्वे-सर्वा होते थे कॉमरेड नज़र मोहम्मद।

उस वक्त कहावत मशहूर थी कि ‘यूनियन को चलाता है कम्पनी का जनरल मैनेजर उमेद मल जैन और कम्पनी को चलाता है नज़र मोहम्मद’ कई बार वहां के मज़दूरों ने नज़र मोहम्मद का तख्ता पलटने के लिये भारी संघर्ष किये, कभी सीटू तो कभी हिन्द मज़दूर सभा के नेतृत्व में मज़दूरों ने लामबंद होकर गेट मीटिंग करने का प्रयास किया परन्तु मालिकान के राजनीतिक एवं प्रशासनिक प्रभाव के चलते पूरे क्षेत्र में धारा 144 लगा कर उसे पुलिस छावनी बना दिया जाता था। 17 अक्तूबर 1979 को शहर में पुलिस व मज़दूरों के बीच हुई झड़प जिसमें एक थानेदार सहित आठ लोगों की मौत हुई थी, के पीछे भी इसी ईस्ट इंडिया की यूनियनबाज़ी का झगड़ा था।

वह एक ऐसा दौर था जब संगठित मज़दूर इस तरह के बड़े भारी जुलूस निकाल कर प्रदर्शन किया करते थे। इन्हें रोकने के लिये धारा 144 लगाने के साथ-साथ विभिन्न जि़लों से अतिरिक्त पुलिस को बुलाया जाता था, उसके बावजूद भी प्रदर्शन होते थे, सरकारी हिंसा का जवाब भी मज़दूर डट कर देते थे। कारखाने में किसी मज़दूर की मौत हो जाने पर भी प्राय: मज़दूर उग्र हो जाया करते थे। इसका सबसे बड़ा उदाहरण 1974 में देखने को मिला। उस समय बडख़ल मोड़ के निकट स्थित प्रेस्टोलाइट नामक एक फैक्ट्री में मज़दूर की मौत हो जाने पर पूरे औद्याेिगक नगर में जो हंगामा हुआ वह ऐतिहासिक था। पुलिस एवं प्रशासन के भरपूर बल प्रयोग के बावजूद कई दिनों तक मज़दूर आन्दोलन चला। उस समय के अधिकांश आन्दोलन स्वत: स्फूर्त ही होते थे।

पुलिस एवं प्रशासन के साथ मज़दूरों की झड़प का एक बड़ा कारण किसी फैक्ट्री गेट पर यूनियन का झंडा लगाने को लेकर भी होता था। जैसे, ईस्ट इन्डिया टेक्स्टाइल कारखाने पर मालिकान किसी और यूनियन का झंडा नहीं लगने देना चाहते थे, उसी तरह कई कारखानेदार अपने यहां मौजूद यूनियन की जगह अपनी मनपसंद यूनियन को खड़ा करना चाहते थे, जाहिर है मौजूदा यूनियन उनके जाल में जब नहीं फंसती थी अथवा उनका फेका हुआ दाना नहीं चुगती थी तो वे दूसरी किसी यूनियन को लाने का प्रयास करते थे। दूसरी यूनियन सदैव सत्तारूढ राजनीतिक दल से सम्बन्धित होती थी। जैसे चौटाला का राज आया तो लोक मज़दूर संघ पैदा हो गया। इस संघ ने कई कारखानों में पुलिस के सहयोग से अपने झंडे गाड़ दिये। लेकिन थॉमसन प्रेस पर बरसों के प्रयास के बावजूद भी चौटाला गिरोह यहां कामयाब नहीं हो पाया। यहां पर झंडे को लेकर 1991 में हुए भयंकर संघर्ष को काबू करने के लिये पुलिस को कई राऊंड गोली चलानी पड़ी। मज़दूरों के साथ-साथ कई पुलिस वाले भी घायल हुए। झूठे-सच्चे पुलिस केस मज़दूरों पर लादे गये जो कई बरसों तक अदालतों में घिसटते रहे। ऐसा ही एक अस$फल प्रयास भजन लाल के राज में एस्कॉर्टस यूनियन को कमज़ोर करने के लिये कांग्रेसी इन्टक यूनियन का झंडा लगाने के लिये इसी कम्पनी के फोर्ड प्लांट निष्कासित एक यूनियन नेता को तैयार किया गया। लेकिन संगठित श्रमिकों के जबरदस्त विरोध के चलते पूरा पुलिस बल भी उसका झंडा नहीं लगवा पाया था।

जब किसी कारखाने की यूनियन मालिकान के काबू नहीं आती थी और राजनेता भी बेबस हो जाते थे तो समानांतर यूनियन खड़ी करने का प्रयास होता था। इस प्रयास में सत्तारूढ दल के दबंग ‘चुग्गा-पानी’ का जुगाड़ बनाने के चक्कर में मालिकान से सांठ-गांठ करते थे। ऐसे लोगों की जरूरत क्योंकि राजनेताओं को भी रहती थी लिहाजा सरकार भी अपना पूरा ज़ोर लगा कर अपने चहेतों का जुगाड़ $िफट कराने का प्रयास करते थे। कभी इसमें स$फल तो कभी अस$फल भी होते रहते थे।

‘चुग्गा-पानी’ की इस चर्चा में अपने साथ बीता एक किस्सा भी याद हो आया। बात 1977-78 की है। गुरूकुल क्षेत्र की एक फैक्टी भारत कार्पेट में सीटू के नेतृत्व में मज़दूरों का संघर्ष पूरे जोरों पर था। मैं भी उन दिनों सीटू में सक्रिय था। कुछ मज़दूर गिरफ्तार हो चुके थे। जमानत के लिये अन्य साथियों के साथ मैं व कामरेड मोहन लाल कचहरी गये जो उन दिनों बल्लबगढ में होती थीं। मैंने वहां एक व्यक्ति को कॉमरेड सम्बोधित करते हुए लाल सलाम बोला, उसने भी जवाब में यही दोहराया। थोड़ा आगे चल कर कामरेड मोहन लाल ने पूछा कि यह कॉमरेड कोन था?

मैंने बताया कि करीब आठ-दस दिन पहले मैं मैगपाई रेस्तरां में गया था तो वहां कॉमरेड गिल (उन दिनों यहां की सीटू में नेता होते थे) के साथ बैठे बीयर पी रहे थे और पकौंड़े खा रहे थे। मैने कामरेड गिल को सलाम किया तो उन्होंने मुझे अपने साथ बैठा लिया और बोले कि ये दिल्ली से  $आये फलां-$फलां कामरेड हैं। बीयर मैं उन दिनों पीता नहीं था सो दो-चार पकौड़े जरूर खा लिये थे। सारी बात सुन कर कामरेड मोहन लाल ने बताया कि यह कोई कॉमरेड-वामरेड नहीं बल्कि भारत कार्पेट कम्पनी का मैनेजर है। सारा मुद्दा जि़ला कमेटी में रखा गया कामरेड गिल ने सारी बात को स्वीकार किया और उन्हें संगठन से निकाल दिया गया।

सीटू में रहते मेरे साथ दूसरा किस्सा अमेरिकन यूनिवर्सल की तालाबंदी के दौरान हुआ। तत्कालीन होलीडे होटल के पीछे सैक्टर 11 में स्थित इस कम्पनी के नाम कई बार बदले जा चुके हैं। जाटों की इस फैक्ट्री में करीब दो माह तक मज़दूर बिल्कुल नहीं टूटे। देवी लाल की नई-नई बनी सरकार में बैठे एक आला पुलिस अधिकारी भी इस कम्पनी से जुड़े थे। सारे यत्न फेल हो गये तो जोड़-तोड़ की नीति अपनाई गयी। एक दिन मुझे कम्पनी के मैनेजर एमएस हुड्डा का संदेश मिला कि मैं उन्हें होली डे इन होटल में आकर मिलूं। मैं चला गया तो उन्होंने कहा कि ‘‘मैंने तुम्हारे लिये भी 700 रुपये मासिक तय करा दिये हैं, बाकी सब के भी हो गये हैं, क्यों ठीक है न?’’ मैंने उपदेश बघारते हुए कहा कि इस तरह मुझ जेसों पर पैसा बर्बाद करने की बजाय अपने वर्करों की मांगे मान कर उन्हें सन्तुष्ट करके स्थाई शान्ति क्यों नहीं बहाल करते? उन्होंने कहा, ‘‘मैंने तेरा तेरा प्रवचन सुनने के लिये नहीं बुलाया था। सब का सौदा हो चुका है और ऊंचे लेवल पर $फैसला भी हो चुका है, एक-दो दिन में कम्पनी चालू होने वाली है, मैंने तो बिरादरी भाई समझ कर तुम्हें कुछ दिलाने का जुगाड़ बनाया था, पर तेरी किस्मत में ही नहीं है।

इसके तीन-चार दिन बाद सीटू हाई कमान की ओर से फैसला हो चुकने का आदेश आ गया। रोते-पीटते कुछ वर्कर काम पर तो कुछ (नौकरी से निकाले हुए) अपने घरों को चले गये।

उस दौर में जहां जुझारू नेता सक्रिय होकर मालिकों व उनके पालतू नेताओं का मुकाबला किया करते थे, वहीं आज के दौर में जुझारू ढूंढे से भी नज़र नहीं आते। मज़दूर तो संघर्ष करना चाहता है परन्तु उसे यह समझ नहीं आ रहा कि किस पर भरोसा करे? आज ट्रेड यूनियन आन्दोलन के सामने विश्वसनीयता का घोर संकट है।

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