फरीदाबाद (म.मो.) राष्ट्रवाद, देशभक्ति एवं देश प्रेम का प्रदर्शन करने के लिये अच्छा-खासा इस्तेमाल किया जा रहा है कारगिल में शहीद हुए करीब 600 जवानों की मौत का। शहर में कहीं मंत्री मूलचंद शहीद स्मारक पर अपनी फोटो खिंचवा रहे हैं तो कहीं गुजरात के गर्वनर आचार्य देवव्रत होडल में। तो पलवल में कोई और नेता इस अवसर पर अपने फोटो खिंचवा रहा है। यदि ये लोग 21 वर्ष पूर्व शहीद न हुए होते तो नेतागण अपना राष्ट्रवाद एवं देश प्रेम कैसे प्रकट कर पाते?
असल सवाल पर कोई बात करना नहीं चाहता कि एक छोटी सी पहाड़ी $फतह करने के लिये इतने सारे वीर जवान मौत के मुंह में धकेले क्यों गये थे? विदित है कि कारगिल की पहाड़ी पर भारतीय सेना की चौकियां कायम थीं जिन्हें कड़ाकेदार सर्दियों में खाली करके सैन्य टुकडिय़ों को नीचे उतार लिया जाता था और दो-चार माह बाद मौसम कुछ ठीक होने पर उन्हें वापस उन्हीं पोस्टों पर भेज दिया जाता था; परन्तु इस बीच उन पोस्टों पर नज़र रखी जाती थी कि कहीं दुश्मन तो वहां नहीं आ बैठा है।
1998-99 में क्या हुआ? हुआ यह कि 1998 की सर्दी शुरू होने पर टुकडिय़ां नीचे तो उतार ली गयीं परन्तु खाली पड़ी चौकियों पर निगरानी नहीं रखी गयी। और तो और मौसम खुशगवार होने पर जब भारतीय चरवाहे अपनी भेड़-बकरियां वहां चराने पहुंचे तो उन्होंने कई बार भारतीय सैन्य व सिविल अधिकारियों को इस बाबत सूचित किया कि वहां पाकिस्तानी आ चुके हैं। परन्तु उनकी सूचना पर किसी को ध्यान देने की फुर्सत नहीं थी। करीब तीन-चार माह का जो समय पाकिस्तानी फौज को मिला, उसमें उन्होंने वहां अच्छी-खासी मजबूत किलेबंदी कर ली। जब भारत सरकार एवं उसके नालायक आला अफसरों की नींद खुली और अपनी चौकियों की ओर सैन्य टुकडिय़ां रवाना की तो उनके होश उड़ गये। वहां तो पाक फौज की जबरदस्त किलेबंदी थी। जाहिर है इस अक्षम्य अपराध के लिये वे जवान तो जिम्मेवार नहीं थे जो इस युद्ध में बेमौत शहीद हो गये।
अब बात आई अपनी खोई हुई पोस्टों को पुन: प्राप्त करने की। विदित है कि इन पहाड़ी पोस्टों की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि भारतीय साइड से इनकी एकदम खड़ी चढाई है यानी 70-80 डिग्री तक की और उसके ऊपर बैठा दुश्मन यदि पत्थर भी गिराने लगे तो जवान मारे जायें। इन पोस्टों तक पहुंचने का जो सरल रास्ता था वह पाकिस्तानी क्षेत्र से होकर जाता था, जहां से जाना सरकार ने उचित नहीं समझा और बढा दिया जवानों को खड़ी चढाई चढने को; परिणामस्वरूप भारतीय जवान बेमौत मारे जाते रहे और हाथ पल्ले कुछ लग नहीं रहा था। इस खड़ी चढाई से बचाने का एक और विकल्प भी था हवाई हमले। लेकिन उसके बजाय जवानों को सीधे मौत के मुंह में धकेलने की नीति बनाई गयी तत्कालीन राजनेताओं द्वारा। लेकिन भारी मात्रा में जवान शहीद होने लगे और हाथ कुछ आता नज़र नहीं आया और $फौजी जनरलों ने भी कुछ तेवर दिखाये तो कहीं सही रणनीति अपनाते हुए पाकिस्तानी क्षेत्र से भी चढाई की गयी और वायुसेना का भी हल्का सा प्रयोग किया गया।
दरअसल भारत में जवान की जिंदगी अपेक्षाकृत बहुत सस्ती है। इसलिये उनकी जान बचा कर युद्ध की रणनीति बनाने की अपेक्षा अन्य चीज़ों को बचाने को प्राथमिकता दी जाती है। भारत बढती बेरोजगारी एवं भुखमरी के चलते फौज में भर्ती होने के लिये जवान अपनी जान तक जोखिम में डाल कर भर्ती स्थल तक इतनी बड़ी संख्या में पहुंच जाते हैं कि उन्हें पुलिस की लाठियों से खदेड़ा जाता है। बस इसी के चलते उनकी जान की कोई कीमत नहीं समझी जाती। सेना में भर्ती होकर जान की बाज़ी लगाना उनकी मजबूरी होती है।
सुधी पाठक याद करें 1971 का बांग्लादेश युद्ध जिसमें कारगिल युद्ध से आधे जवान भी शहीद नहीं हुए थे और मात्र दो सप्ताह में दुनिया का नक्शा बदलते हुए पाकिस्तान के 95000 सैनिकों को बंदी बना लिया गया था। दरअसल उस युद्ध की सारी रणनीति तत्कालीन आर्मी ची$फ मानिकशा की थी जिन्होंने इन्दिरा गांधी द्वारा बताई रणनीति न मान कर अपनी रणनीति बना कर ऐतिहासिक सफलता प्राप्त की थी।
कारगिल के युद्ध में तो जवान बेमौत मारे ही गये उनके शवों को वापिस लाने के लिये खरीदे गये ताबूतों की खरीद में भी घोटाला हुआ। उसमें रिश्वत खाने के आरोप भाजपा सरकार ने समता पार्टी के तत्कालीन रक्षा मंत्री जार्ज फर्नाडिज पर लगे। उनकी महिला मित्र और सहयोगी और उनकी पार्टी की अध्यक्ष जया जेटली को एक स्टिंग आपरेशन में उनसे (जार्ज) रक्षा सौदे दिलवाने के नाम पर रिश्वत लेते पकड़ा गया था जिसमें अभी एक अदालत ने उन्हें सज़ा सुनाई है।
जब आज वही पार्टी फिर सत्ता में है और कारगिल के युद्ध का अपनी वीरता के रूप में भुना रही है तब हमें इन तथ्यों को याद करने की जरूरत है।