स्वयंसेवी संस्थाओं ने हाथ खड़े कर दिये हैं कि वो अब और मुफ्त राशन नहीं बांट सकते। क्या इसीलिए ट्रेन चलायी है?

स्वयंसेवी संस्थाओं ने हाथ खड़े कर दिये हैं कि वो अब और मुफ्त राशन नहीं बांट सकते। क्या इसीलिए ट्रेन चलायी है?
May 03 13:49 2020

कोरोना युद्ध

मोदी के काइयांपन और स्वार्थ के चलते  फेल हुआ लॉकडाउन फिर भी दो हफ्ते और घसीटने का फरमान जारी

मजदूर मोर्चा ब्यूरो

हर घटना, दुर्घटना को अपने राजनीतिक स्वार्थ साधने के लिये प्रयोग करने के अभ्यस्त हो चुके मोदी के इन्ही कर्मों की वजह से कोरोना के विरुद्ध युद्ध में लॉकडाउन की रणनीति भारत में लगभग फेल हो गयी। फिर भी इसके दो हफ्ते और घसीटने का सरकारी फरमान शुक्रवार को जारी हो गया। ध्यान रहे कि लॉकडाउन छूत की बीमारियों को फैलने से रोकने में एक विश्वव्यापी स्वीकार्य और कारगर वैज्ञानिक पद्धति है। लेकिन अपनी ‘राजनीति  पहले और विज्ञान बाद में’ की रणनीति के चलते मोदी ने भारत में इसको भी फेल कर दिया। हालांकि लॉकडाउन बीमारी को खत्म नहीं करता लेकिन वह उसे ओर ज्यादा फैलने नहीं देता और इस तरह बीमारी से लडऩे के लिये दवा, टीके, तरीके आदि विकसित करने के लिये यथेष्ट समय दे देता है। लेकिन नाटकीयता के साथ शुरू करके और सबसे कठोर रूप में लागू करके भी मोदी लॉकडाउन से भारत में वह $फायदा नहीं उठा पाये जो मिलना चाहिये था।

31 दिसम्बर 2019 को चीन द्वारा पूरे विश्व को नये- वायरस-कोरोना-2 की सूचना और चेतावनी दे दी गई थी। भारत में 30 जनवरी 2020 को पहला केस केरल में प्रकाश में आया था। तब तक चीन के वुहान में यह संक्रमण महामारी के रूप में फैल चुका था। फरवरी के शुरू में ही विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसको पेन्डेमिक यानी विश्वव्यापी महामारी घोषित कर दिया था। इसके चलते केरल सरकार ने तुरन्त इस संक्रमण से निपटने को कायदे कानून बनाये और बिना लॉकडाउन के ही उन्हें लागू किया। इसके फलस्वरूप केरल सबसे कम आर्थिक  नुकसान और जन हानि के साथ अपने राज्य में इस संक्रमण को रोकने में कामयाब रहा। जबकि इस बीच केन्द्र की मोदी सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। यह सबसे उपयुक्त समय था जब केन्द्र सरकार को बाहर से आने वाले विदेशियों पर तुरन्त रोक लगानी चाहिये थी। भारतीय नागरिकों को जांच करके उन्हें अलग रखकर उनका इलाज या निगरानी करनी चाहिये थी। साथ ही साथ दवा, मास्क, सेनिटाइजर, सुरक्षा किट आदि की भविष्य में मांग और उपलब्धता सुनिश्चित करनी चाहिये थी।

अगर फरवरी में ही यह सब करके वैज्ञानिक तरीके से कोरोना वायरस से लडऩे की तैयारी की जाती तो देश तो क्या एक शहर को भी लॉकडाउन करने की जरूरत न पड़ती। लेकिन हर काम अपने राजनीतिक स्वार्थों को देखकर करने वाले मोदी ने ऐसा नहीं किया जिसका खामियाजा देश को आज भारी आर्थिक नुकसान और देश की जनता को भारी कष्टों के रूप में झेलना पड़ा । मोदी ने ऐसा किन स्वार्थों के  चलते किया यह जान लेना उचित होगा।

फरवरी में वैज्ञानिकों और डॉक्टरों के परामर्श के बावजूद भारतीय और विदेशी नागरिकों की आवाजाही पर प्रतिबंध न लगाने के पीछे अमेरिकन राष्ट्रपति ट्रम्प की भारत यात्रा थी। ट्रम्प को अमेरिका मे भारतीयों के वोट दिलाने और अपनी छवि चमकाने के लिए आयोजित इस यात्रा को मोदी ने रद्द नहीं किया। हालांकि कहने को यह ट्रम्प की निजी यात्रा थी लेकिन इस पर भारत और गुजरात सरकार ने मिलकर 250 करोड़ से उपर रूपया खर्च किया। इस यात्रा में ट्रम्प के साथ हजारों और लोग आये तथा गुजरात के अहमदाबाद के मोटेरा किक्रेट स्टेडियम में सार्वजनिक सभा करके भारतीय मूल के अमेरिकनों को ट्रम्प को अगले चुनाव में जिताने का संदेश दिया। बाद में इस तमाशे का खामियाजा भारत और अमेरिका दोनों ने भुगता। अमेरिका में भी यह महत्वपूर्ण समय हाथ से निकाल देने के कारण यह महामारी भयंकर रूप से फैलती तो भारत में इस महामारी के शिकारों की संख्या में गुजरात का आज दूसरा स्थान है और मरने में पहला  (प्रतिशत के हिसाब से)और गुजरात में भी 80 प्रतिशत मरीज अहमदाबाद से है और मरने वालों में लगभग 69 प्रतिशत व्यक्ति यहां से है। यह सब उस प्रसाद का नतीजा है जो ट्रम्प यहां 23 फरवरी को मोदी जी की पंडिताई में बांटकर गया था। गुजरातियों को इसके लिये मोदी जी का आभारी होना चाहिए।

दूसरा महत्वपूर्ण कार्य जिसके निपटाने के लिए लाकडाउन को रोका गया वह मध्यप्रदेश की कांग्रेस सरकार को गिराने का था। उसके लिए मध्यप्रदेश से बस भरकर एमएलए कर्नाटक ले जाये गये, वहां कैद रखे गये और फिर जब सारी खरीद फरोख्त हो गयी तो 23 मार्च को उनको वापिस भोपाल लाकर प्रदेश में बीजेपी की सरकार बनाई गई। जाहिर है अगर मार्च के शुरू में भी लाकडाउन हो जाता तो यह ड्रामा संभव नहीं हो पाता इसलिए उसे मुल्तवी रखा गया। इस ड्रामे के लिए अमित शाह को चाणक्य बताने वाले लोग आज उन्हें चूहे की तरह अपने घर में छिपा देख सकते हैं।

यह दोनों महत्वपूर्ण राजनीतिक कार्य पूरे होते ही मोदी ने अपने चिरपरिचित सस्पेंस और नाटकीयता से भरे अन्दाज में 24 मार्च रात 8 बजे लाकडाउन की घोषणा कर दी। लाकडाउन रात 12 बजे से ही शुरू हो जाना था। ना रेल, ना बस, ना साईकिल, ना स्कूटर, कुछ नहीं चलना, सब बन्द। वह भी अचानक और 21 दिन के लिए। भारत की अस्सी करोड़ असहाय जनता के साथ में एक क्रूर मजाक था| हालांकि उस दिन ताली पीट रही बाकी 50 करोड़ की आबादी को भी मोदी के इस क्रूर मजाक का नुकसान बाद में भुगतना था। करोड़ों मजदूर 21 दिन के लिये अपने दड़बेनुमा घरों में बंद, भूख और तंगी से तड़पते रहे और मूर्ख लोग उनकी बदहाली की तस्वीरें डालकर मजाक उड़ाते रहे। साधन सम्पन्न लोग छह-छह महीनों का राशन खरीदकर अपने घरों में बैठ गये और हफ्ते भर के राशन स्टोर करने वाले मजदूर को स्वार्थी और कालाबाजारी बताते रहे। केन्द्र सरकार द्वारा किसी के लिए कहीं भी राशन या आर्थिक मदद का कोई इन्तजाम नहीं किया गया। हालांकि 2005 के डिजास्टर एक्ट के तहत चौधराहट पूरी केन्द्र सरकार के पास थी लेकिन खर्चे के लिए राज्य सरकारों को देने के नाम पर एक फूटी कौड़ी न थी। जबकि काम पूरा राज्य सरकारों को करना था। बन्द करने के निर्देश तो केन्द्र के थे लेकिन अपने यहां के लिये भूखी आबादी के राशन व अन्य मूलभूत सुविधाओं का प्रबंध कैसे करना था यह सब राज्य सरकारों पर छोड़ दिया गया। किसी तरह के मैडिकल प्रबंध के लिय केन्द्र और राज्यों के बीच कोई तालमेल कमेटी नहीं बनाई गई। लिहाजा सिर्फ ऊपर से फरमान जारी होते रहे और जमीनी स्तर पर लड़ाई हारी जाती रही। ना पर्याप्त डाक्टर थे, ना दवाईयां, ना मास्क, ना किट और ना ही सरकारी हस्पताल? हां बस लोगों को डण्डे मारकर घरों में रखरने के लिए पुलिस को जरूर सडक़ों पर उतार दिया गया। पुलिस को मैडिकल इमरजेंसी में काम करने का न तो कोई पुराना अनुभव था ना कोई नये दिशा निर्देश, सो वह स्थिति से ऐसे निपटती रही जैसे कि वह दंगाईयों से निपटती आई है।

इस बीच बीजेपी ने अपनी स्थापित नीति स्वरूप तबलीगी जमात की घटना का उपयोग करके बीमारी का साम्प्रदायिकरण करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसने कोरोना के खिलाफ लड़ाई को और विकट बना दिया। दूसरी तरफ उचित समझदारी के अभाव में और हिन्दू मुस्लिम के घृणित साम्प्रदायिकरण के कारण कोरोना बीमारी ना रहकर एक जुर्म की तरह हो गया और इसके कारण लोग इसे छिपाने लगे, मरीज छुपने लगे। बीमारी के विरूद्ध संघर्ष मुश्किल हो गया। सरकार द्वारा ना मूलभूत जरूरतों के लिये इन्तजाम, ना बीमारी से लडऩे की कोई रणनीति, लिहाजा लाखों मजदूर मजबूर होकर अपने घरों को जाने के लिए सडक़ों और बस अड्डों पर निकल पड़े। लाकडाउन पूरी तरह से फेल हो चुका था।

पुलिसिया जोर जबरदस्ती से लोगों को फिर घरों में घुसाया गया। तीन दिन तैयारी करके दीये बत्ती करने का नया कार्यक्रम मोदी ने दिया। मिडिल क्लास ने वाहवाही की। पूरे देश ने दीये और टार्च जलाई। लेकिन सरकार की तरफ से पूरी स्थिति पर कोई तथ्यात्मक रिपोर्ट नहीं पेश की गई। कोई रणनीति नहीं लोगों के सामने रखी गयी। जब अमेरिका का राष्ट्रपति रोज कोरोना के बारे में प्रेस के सामने सारी बात रख रहा था। भारत का प्रधानमंत्री छुपा बैठा था। सिर्फ ताली थाली बजवाने के मूर्खतापूर्ण काम बताने के लिए लोगों के सामने टीवी पर आता था और लोगों को मूर्ख बनाकर चला जाता था। कोई वैज्ञानिक बात नहीं, कोई भविष्य की योजना नहीं। परिणामस्वरूप 21 दिन का पहला लाकउडाउन खत्म होते होते आमजन हताश और निराश हो चुका था। दूसरी तरफ पुलिस, प्रशासन और स्वास्थ्यकर्मी भी थक चुके थे और लाकडाउन लागू करने के नाम पर फिर लकीर पीटी जा रही थी। लाकडाउन अपनी उपयोगिता खो चुका था और इसे तुरन्त खत्म करने की जरूरत थी वरना कोरोना से ज्यादा लोगों के भूख व कुपोषण के मरने की संभावना थी। लेकिन फिर मोदी जी प्रकट हुऐ और 19 दिन लाकडाउन और बढ़ाने की घोषणा की। लोगों पर जैसे वज्रपात हुआ हां इस बीच कुछ मुख्यमंत्रियों से बातचीत का नाटक जरूर किया गया।

अब लाकडाउन तीसरी बार दो हफ्ते यानी 17 मई तक बढ़ाने की घोषणा फिर हो चुकी है। स्वयंसेवी संस्थाओं ने हाथ खड़े कर दिये हैं कि वो अब और मुफ्त राशन नहीं बांट सकते। खाती-पीती मिडिल क्लास बिना कमाई के पिछले एक महीने से खर्च करके परेशान है। स्कूल की फीसें, लोन की किश्ते उसके सामने मुंह बाये खड़ी है। मजदूर वर्ग भूखा मरता सडक़ों पर आ चुका है और हिंसा पर उतारू है। प्रशासन सिर्फ फाईलों में आदेशों तक सीमित है। सरकारी कर्मचारी तन्ख्वाह और भत्ते कटने से परेशान है। जमीनी स्तर पर लाकडाउन ना सिर्फ खत्म है बल्कि विरोध की सुगबुगाहट है। शायद इसीलिये मोदी जी खुद टीवी पर इसके बढ़ाने की घोषणा करने नहीं आये हैं। इसके सफलतापूर्वक खत्म होने की घोषणा करने जरूर आयेंगे।

 

 

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