“क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि आपके परिवार का सबसे कमजोर बच्चा भूख से मर रहा हो और वह भी तब जब घर में खाद्यान के भंडार भरे पड़े हों” ज्यांद्रेज़

“क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि आपके परिवार का सबसे कमजोर बच्चा भूख से मर रहा हो और वह भी तब जब घर में खाद्यान के भंडार भरे पड़े हों” ज्यांद्रेज़
April 12 09:17 2020

लॉकडाउन इंडिया

प्रशासन में भरोसा नहीं; क्या कोरोना को हरा सकेगा भारत?

विवेक कुमार की ग्राउंड जीरो रिपोर्ट

(कोरोना भारत यात्रा के पिछले भाग में हमने राजनीति को केंद्र में रखकर लॉकडाउन की आलोचनात्मक समीक्षा की थी- इस अंक में हम बात करेंगे प्रशासन के व्यवहार की)

ज्यों ही गाड़ी की ब्रेक लगी, पहियों के नीचे से आजाद होकर धूल के गुबार ने पूरी गाड़ी को हर तरफ से ढक लिया। इस धूल की परवाह किये बिना दोपहर एक बजे की धूप में सड़क किनारे झुग्गियों से बाहर बैठे मजदूरों ने भी गाड़ी को धूल की ही तरह दौड़ कर ढक लिया। बस फर्क था कि गरीबों पर गाड़ी वाले का रोब चलता है पर धूल पर नहीं, ठीक वैसे ही जैसे गरीबों पर सरकारों के आदेश चल जाते हैं पर कोरोना जैसे वायरस पर नहीं। इसलिए सबने लाइन बनाकर चार-चार पूडिय़ाँ और अचार का पैकेट पकड़ लिया।

फरीदाबाद बाईपास पर सेक्टर 9 के पिछवाड़े बड़े-बड़े शोरूमों के पीछे एक छोटे दरवाजे से गुजरकर जाने पर आप देखेंगे कि एक बड़ी आबादी अब इन्ही खोप्चों में छुपे रहने को मजबूर है। कभी ये कबूतर दड़बे इन मजदूरों के सिर्फ रात में सोने की जगह थी पर आज ये पूरा-पूरा दिन और रात बिताने का अड्डा है जहाँ इंसान का रहना असंभव से कम अजूबा नहीं। गाँव होता तो द्वार, अहाते या बगीचे में बैठ जाते पर झुग्गियों में तो खिड़कियाँ तक नहीं होतीं, द्वार या अहाते तो दूर के सपने हैं। फिलहाल सड़क पर चलती गर्म हवा के थपेड़ों में ऐसे गाड़ी वालों का इंतजार है जो कुछ दे जाएँ खाने के लिए।

सरकार ने लॉकडाउन के नाम की लक्ष्मण रेखा मध्य वर्गों के लिए बेशक खींच दी है पर रोजगार गँवा कर गरीबी रेखा के नीचे पहुँच जाने वालों लिए क्या तैयारी है प्रशासन की उसका कोई ठोस जवाब कार्यान्वित होता नहीं दिख रहा।  लॉकडाउन तो हो गया और पूरी उम्मीद है कि 14 अप्रैल से आगे बढेगा भी, पर कब हटेगा इसकी समीक्षा करना मुश्किल प्रतीत होता है। क्योंकि सरकार प्रशासनिक फैसलों में भी राजनीति करती दिख रही है। हो सकता है कि सरकार आंशिक रूप से लॉकडाउन खोल भी दे अपने’मित्रों’ का फायदा ध्यान में रखकर।

सिर पर गठरी रखे, पेंट की बाल्टियाँ जो खाली होने के बाद मजदूर की अटैची बन जाती हैं उनमे अपने बच्चों को बैठाये और कुछ बाल्टियों को कन्धों में टाँगे ये जलील किये जा रहे मजदूर, भूखे नंगे पुलिस की मार खाते, कहीं मुर्गा बनते तो कहीं उठक-बैठक लगाते सैकड़ों किलोमीटर पैदल सफर तय कर अपने घरों को पहुँच गए। पूरे रास्ते क्या-क्या बीती ये कहानियां गाहे-बगाहे निकल कर सामने आती ही रहेंगी पर क्या जब ये अपने गाँव-कस्बों को पहुंचे तब इनको वही प्रेम और सुरक्षा मिली जिसकी अनुभूति इन्हें सैकड़ों-हजारों किलोमीटर से खींचती हुई गाँव की तरफ ले गई?

दो बच्चों और अपनी गर्भवती पत्नी को दिल्ली से पैदल लेकर 40 वर्षीय रामबाबू झाँसी के पास ओरछा अपने गाँव पहुंचे। गाँव के दबंगों ने गाँव में घुसने से मना कर दिया। एक रात गाँव की दहलीज पर काटने के बाद रामबाबू को परिवार समेत पुलिस ने पास के एक स्कूल में क्वारनटीन कर दिया। प्रशासन की पूरी तसल्ली होने के बाद ही घर तो जाने को मिला, पर रोजगार न होने की समस्या के साथ-साथ गाँव वालों का उनके प्रति अछूत जैसा व्यवहार भी एक समस्या बनता जा रहा है।

रामबाबू की ही तरह राहुल मिश्र और रवि मिश्र भी लॉकडाउन से घबरा कर दिल्ली छोड़ भागे। राहुल की दिल्ली में अग्निशमन यंत्र बनाने की एक छोटी सी फैक्ट्री है और कई महीनो से काम मंदा होने के साथ-साथ अब इस बंदी ने उनकी कमर ही तोड़ डाली। अपने भाई रवि को लेकर गाड़ी से गाँव भाग गए। गाँव जाने पर ज्ञात हुआ कि जो भी मजदूर शहरों से गाँव आये हैं उन्हें पास के विद्यालय में रखा गया है। पर रवि और राहुल के साथ ऐसा नहीं किया गया। इसका प्रमुख कारण था, दोनों का एक तो गाँव की उच्च जाति से सम्बन्ध और दूसरा इनके पिता 20 वर्षों से गाँव के प्रधान भी हैं। तबसे लेकर अब तक दोनों अपने घर में आराम से रह रहे हैं, न तो प्रशासन ने इन्हें अन्य मजदूरों की तरह विद्यालय में रखा और न ही इन्हें क्वारंटीन करने की जहमत ही उठाई गयी।

सवाल है कि जब लॉकडाउन अवश्यम्भावी था तो क्या इसे किसी बेहतर तरीके से भी लागू करवाया जा सकता था? क्या मोदी सरकार और अन्य राज्य सरकारों को किसी पैमाने पर वाकई कसा जा सकता है जहाँ इससे बेहतर लॉकडाउन की व्यवस्था हो सकती थी? जवाब है हाँ, बिल्कुल हो सकती थी।

जाहिर सी बात है लॉकडाउन नागरिक जीवन की रक्षा के लिए है, तो एक बार नागरिक के दृष्टिकोण से इसे डिजाइन करने की जरूरत है। हालाँकि प्रधानमन्त्री मोदी एक सुनहरा मौका पहले ही 21 दिन के लॉकडाउन की घोषणा एक बार में ही कर, और उसे लागू करने की जिम्मेदारी पुलिस जैसे असंवेदनशील महकमे के कमजोर कन्धों पर डाल, गवां चुके हैं।

ज्यां द्रेज” के शब्दों में “क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि आपके परिवार का सबसे कमजोर बच्चा भूख से मर रहा हो और वह भी तब जब घर में खाद्यान के भंडार भरे पड़े हों”। पहले एक सप्ताह का लॉकडाउन घोषित करके सात दिनों में सरकार अपनी तैयारी कर सकती थी और उस तैयारी का आंचलिक स्वरुप जनता के समक्ष प्रस्तुत कर उसका भरोसा अपने आप में कायम कर सकती थी। एक मजबूत तैयारी के साथ पूर्ण लॉकडाउन को यदि सरकार ने घोषित किया होता तो सबसे पहले तो डर और भगदड़ का जो माहौल पूरे देश में यकायक पैदा हो गया उसे टाला जा सकता था। और आज भी कम से कम भूख की समस्या को बेहतर और सटीक वितरण कर के संभाला जा सकता है, क्योंकि भारत में खाद्यान्न सरप्लस में है। पर प्रशासन फिलहाल ऐसा करने में सफल होता नहीं दिख रहा।

इतना ही नहीं सरकार ने सोलह प्रकार की जरूरी सेवाओं को जारी रखा है जिसमे पुलिस, बैंकिंग, स्वास्थ्य, रोजमर्रा के इस्तेमाल होने वाले घरेलू पदार्थ इत्यादि शामिल हैं। पर सरकार ने इन कर्मियों के काम की जगह जाने लिए कोई प्लान ही नहीं बनाया। गुरुग्राम और नॉएडा से दिल्ली जा कर नौकरी करने वाले बैंक कर्मियों के पास अपने दफ्तर पहुँचने का कोई साधन नहीं। बैंक ऑफ इंडिया केशोपुर ब्रांच दिल्ली में काम करने वाले 43 वर्षीय अरुण राज जो द्वारका में रहते हैं रोजाना अपनी 13 वर्षीय बेटी की छोटी सी साइकिल से 11 किलोमीटर साइकिल चला कर आने-जाने को मजबूर हैं। वहीँ कई दूध वाले और सब्जी वालों को पुलिस की मार भी खानी पड़ रही है, और ऐसी भी खबरें आने लगी हैं कि पुलिस ने वसूली का अपना धंधा भी इस सुनसान में शुरू कर लिया है।

यदि सरकार ने समस्या को नागरिक के नजरिये से देखने की जहमत उठाई होती तो व्यवस्था में अंतर दिख जाता। जैसे विभागीय पहचान पत्र को दिखा कर पुलिस अपने लिए मेट्रो सुविधा का वहन कर पा रही है उसी प्रकार अपने पहचान पत्र के आधार पर क्या बैंककर्मी या स्वास्थ्य कर्मी मेट्रो से अपने दफ्तर पहुँच देश सेवा के कार्य को सुचारु और सरल रूप में नहीं कर सकते थे। अव्वल तो प्रशासन और प्रबंधन को चाहिए था कि सभी जरूरी सेवाएँ देते इन विभागों के कर्मियों की सुगमता और समस्यायों को ध्यान में रख कर कम से कम आने-जाने के साधन उपलब्ध करने चाहिए थे।

इतना ही नहीं जिस प्रकार स्वास्थ्यकर्मी पीपीई के लिए शिकायतें और गुहार लगा रहे हैं उसपर सरकार जरूर गौर करती बजाय कि मोदी थाली-ताली और दिया-बत्ती करने की अपील करने लगते। खास बात यह है कि इस दियाबाती में बतौर नागरिक हम भी सरकार से ये पूछना नहीं चाहते कि क्यों यूनाइटेड नर्स एसोसिएशन ने सुप्रीम कोर्ट में सरकार के खिलाफ एक याचिका दाखिल की। इस याचिका में कहा गया है कि डब्लूएचओ ने पहले ही अन्तराष्ट्र्रीय स्तर पर स्वास्थ्य देखभाल श्रमिकों के अधिकारों और जिम्मेवारियों के माननकीकरण के लिए एक अंतरिम मार्गदर्शन जारी किया है। लेकिन भारत सरकार उसके लिए अभी तक राष्ट्रीय प्रोटोकॉल ही तैयार नहीं कर पायी है।

इसी प्रकार प्रशासन के पास अब तक कोई भी ऐसा प्लान नहीं तैयार होता प्रतीत हो रहा जहाँ वह लॉकडाउन के लम्बा चलने की सूरत, जिसकी संभावना प्रबल दिखती है, में प्रवासी मजदूरों और साथ ही अन्य नागरिकों तक मूलभूत सुविधाओं को आसानी से पहुंचा सके।

भारत के हक में कुछ बातें जाती हैं जैसे कि अभी तक एक बहुत बड़ा तबका प्रधानमन्त्री की बातों को सिर आँखों पर रखता है और उनकी कही बात पर अमल करता है। ये अलग बात है कि अमल चार कदम आगे जाकर नुकसानदायक भी हो जाता है। पर यह एक बड़ी बात है कि मोदी यदि आह्वान करेंगे तो उसे मानने में जनता कोई कोताही नहीं बरतेगी। पर समस्या यह है कि प्रधानमन्त्री की समझ इस नाजुक मौके पर उमीदों पर खरी नहीं उतर पा रही। जो आह्वान वह कर रहे हैं उससे न तो स्वास्थ्यकर्मियों की समस्याओं का हल मिलता है और न ही काल के गाल में समाती अर्थव्यवस्था में तेजी से बेरोजगार होते मजदूरों के जीवन को चला पाने का कोई जवाब।

उल्टा प्रधानमन्त्री सुकन्या समृद्धि योजना, पीपीएफ, जैसी लोकप्रिय योजनाओं की ब्याज दर चुपके से कम करके जनता का भरोसा खोने जैसा जोखिम इस मुश्किल वक्त में उठा रहे हैं। साथ ही प्रधानमन्त्री राहत कोष जैसे विश्वसनीय व्यवस्था को पीएम् केयर जैसे सतही राहत कोष से प्रतिस्थापित करने की गैर जरूरी कारगुजारियां भी कर रहे हैं।

पुलिस के हाथ में डंडा देकर प्रशासन बेशक एनएसए और देशद्रोह लगा देने की धमिकयां देता रहे पर यहाँ प्रशासन को चेतना होगा कि जनता खाकी का डंडा मात्र इसलिए खा रही है क्योंकि उसने खाकी को समाज का जरूरी अंग स्वीकार किया हुआ है। वरना इसी प्रशासन की गलती से तबलीगी जमात के लोग कोरोना के प्रसार को जाने-अनजाने देश के कोने-कोने तक ले गए जिससे संक्रमण का दायरा बढ़ा और इसी प्रशासन की मध्यप्रदेश के सबसे ऊंचे ओहदे पर बैठी महिला अधिकारी खुद उन प्रावधानों की धज्जियाँ उड़ा लेती है जिसपर अमल कराने के लिए हजारों को सडकों पर प्रशासन ने पिटवाया।

प्रशासन की तैयारी यदि किसी भी तरह इस महामारी से लडऩे की होती तो जरूर एक वर्ग विशेष के ऊपर भाजपा आईटी सेल और मुख्य मीडिया संस्थानों के माध्यम से जो दुष्प्रचार चल रहा है, उसपर लगाम कसने की कोशिश होती दिखती। वहीं एक वर्ग विशेष मजबूरन दिन-रात यह सिद्ध करने में लगा है कि फलां की अर्थी को कन्धा देकर, या फलां को खाना खिलाकर उसने सिद्ध किया कि वह भी देशभक्त है। इस तरह यदि सबको मजबूर होकर इस वक्त में भी देशभक्ति का सबूत ही देते रहना है तो पहला सबूत स्वंय प्रशासन को देना है, वो भी भेदभाव रहित व कल्याणकारी प्रशासनिक व्यवस्थाओं को लागू करा कर।

इस बीच पुलिस की कई विडियो वायरल हो रही हैं जिसमे पुलिस कर्मी गाना, बजाना और अपील जैसे भावनात्मक तरीकों से जनता का सहयोग मांग रहे हैं और आमजन इन प्रयासों को सराह भी रहा है। ऐसा प्रयोग प्रशासन को समझने के लिए काफी होना चाहिए कि कोई भी आदेश बिना समाज के सहयोग के नहीं लागू कराया जा सकता तो बेहतर होगा पुलिस एवं अन्य इकाइयों के भावनात्मक दायरे को बढाया जाए। अन्यथा यदि बतौर समाज जनता ने प्रशासन में विश्वास खो दिया तो शायद ही कोई सरकारी आदेश, अमलकर्ता आदेश रह सके और कोरोना की भारत यात्रा जल्दी समाप्त हो सके।

 

 

बेरोजग़ार क्या करे, भूख से मरे?

सरकार ने 20 पन्नों का नया प्लान जारी कर बता दिया है कि लॉकडाउन आगे भी जारी रहेगा। जबकि इस दौर में बेरोजगारी की मार झेलने वालों और भूख से मरने वालों के लिए क्या प्लान है उसपर सरकार की कोई तैयारी और चिंता नहीं दिख रही।

लॉकडाउन के बाद जनसाहस संस्था द्वारा किये सर्वे के एक आंकड़े के अनुसार भारत में रोजगार के आंकड़ों में 77 प्रतिशत लोग स्वरोजगार में हैं। आप सोचेंगे स्वरोजगार यानी कि व्यवसाय, जी नहीं, स्वरोजगार का अर्थ है जो किसी न किसी रूप में अपनी रोटी खुद चलाते हैं और किसी प्रकार की नौकरी नहीं करते। इस स्वरोजगार में 52 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जिनकी औसत आय आठ हजार प्रति माह से भी कम है। 52 प्रतिशत की इस संख्या में भी 60 प्रतिशत कृषि या गैर कृषि ग्रामीण कार्य में संलग्न हैं।

ऐसे लोगों में वे भी शामिल हैं जिन्हें अर्थशास्त्र की तकनीकी भाषा में सीईओ तक कहा जाता है, यह जान कर कितना अच्छा लगा होगा न? पर सच्चाई जान कर इतना ही बुरा लग सकता है। इन तथाकथित सीईओ की औसत आय 11400 रुपये प्रति माह है। वहीँ ड्राइवर्स की 10 हजार, कपडा इंडस्ट्री में कामगार की 5 हजार, फूड प्रोसेसिंग में 2500 रुपया, सेल्स एवं मार्केटिंग में 8 हजार और रेहड़ी पटरी वालों की 7000 रुपये प्रतिमाह औसत आय है।

ऊपर के आंकड़ों से साफ जाहिर है कि इनके पास किसी भी प्रकार की सेविंग नहीं है। इनमें भी सबसे अधिक संख्या कंस्ट्रक्शन वाले मजदूरों की है। सरकार ने कहा कि पंजीकृत मजदूरों को हम सहायता राशि देंगे, वो भी उनके बैंक खातों में। अब बड़ी समस्या यह है कि जो 6 प्रतिशत मजदूर किसी ठेकेदार के तहत पंजीकृत हैं वह अपना ठेकेदार बदलते रहते हैं और उससे भी बड़ी समस्या है, 94 प्रतिशत कंस्ट्रक्शन वर्कर्स पंजीकृत ही नहीं हैं। यानी की इतनी बड़ी संख्या का कोई कानूनी सुराग ही नहीं जिसके तहत बेचारों को कोई लाभ मिल सके। रिजर्व बैंक ने अपनी वार्षिक मौद्रिक नीति की रिपोर्ट में कहा है कि कोविद 19 की इस वैश्विक महामारी में भारत की अर्थव्यवस्था पहले से ही अच्छी नहीं थी और अब कुछ कहा नहीं जा सकता कि किस दिशा में हम जा रहे हैं। एक अत्यंत अनिश्चितता की स्थिति है।

वरिष्ठ अर्थशास्त्री अरुण कुमार की मानें तो रिजर्व बैंक का यह विश्लेषण सही है। पिछले 100 वर्षों में ऐसा नहीं हुआ, जो कि युद्ध से भी अधिक खराब स्थिति है। आज मांग भी समाप्त है और सप्लाई भी। इस पर एक सर्वाइवल पैकेज चाहिए क्योंकि लोग मर रहे हैं और उन्हें बचाना बहुत जरूरी है। अरुण कुमार ने कहा कि अर्थव्यवस्था में 75 प्रतिशत की गिरावट है जो कब ठीक होनी शुरू होगी अब नहीं कहा जा सकता। अगर यही चलता रहा तो हमारा रेट ऑफ ग्रोथ 50 प्रतिशत तक गिर सकता है।

इस भयानक बेरोजगारी में सरकार ने क्या प्लानिंग की है इसपर अभी कोई जवाब नहीं मिला है। जबकि 40 प्रतिशत आबादी गरीबी चक्र में फंसने के खतरे की तरफ लगातार बढ़ रही है। भारत के यह आंकड़े घोर चिंता का विषय हैं। ये और बात है कि मुख्य मीडिया वाले इसपर डिबेट करते नहीं मिलेंगे। आजकल रामायण-महाभारत से काम चला लेती है सरकार तो आप भी उसी से काम चलाइये और सीखिये कि जब युद्ध में अश्वथामा मारा गया का झूठ वायरल ट्रेंड होने लगा तो द्रोणाचार्य ने कई जगह से उसे वेरीफाई करने का प्रयास किया पर सबने गुरू को झूठ ही बताया। ऐसा ही कुछ आप के साथ भी किया जा रहा है और आप तो द्रोणाचार्य भी नहीं।

इस सन्दर्भ में सरकारी खजाने के क्या हाल हैं, अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी का मुखिया होने का दावा करने वाला और देश का प्रधानमन्त्री देश की जनता से चंदा मांग रहा है। चंदा मांगना काफी भद्र व्यवहार है पर जबरन वेतन भी काटे जा रहे हैं। हालत यह है कि जिन बीमा पालिसी और योजनाओं को तय दर से बेचा गया ग्राहकों को, जरूरतमंदों के इस निवेश पर मिलने वाली ब्याज दर को भी सरकार ने गैरकानूनी तरीके से घटा दिया है।

चिकित्सकों के लिए दिए तो जलाये गए और ऐसे न जाने और कितने ढोंग होंगे आगे पर उनको पीपीई नहीं मुहैया कराया जा रहा। क्या ऐसा सब जान बूझ कर हो रहा है या सरकार के पास पैसा ही नहीं है। अगर पैसा नहीं है तो जो खुले दिमाग से सोच सकते हैं वह सोचें की इतना पैसा जिसमे आरबीआई तक से भी हथिआया गया कहाँ गया? मूर्ति तो बस 3500 करोड़ की ही थी।

 

 

 

view more articles

About Article Author

Mazdoor Morcha
Mazdoor Morcha

View More Articles