मोहम्मद आरिफ मध्यकालीन भारत के दिग्गज इतिहासकार इरफ़ान हबीब 91 वर्ष के हो गए हैं। बीसवीं सदी के छठे दशक में जब इरफ़ान हबीब ने लिखना शुरू किया, उस वक़्त तक मध्यकालीन भारत के इतिहास का दायरा सुल्तानों, मुग़ल बादशाहों और उनके दरबारों, हिंदू राजाओं के जीवन और उनके इतिहास तक सीमित था। यह मुख्यत: राजनीतिक क़िस्म का इतिहास था, जिसमें तारीख़ों और युद्धों के विवरण का भरमार था। सर यदुनाथ सरकार से लेकर बेनी प्रसाद, ईश्वरीप्रसाद, आरपी त्रिपाठी, आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव तक। यहाँ तक कि इतिहासकार सतीश चंद्र की पहली पुस्तक भी औरंगज़ेब और उसके ठीक बाद के मुग़ल दरबार, उसके गुटों व उनकी राजनीति पर ही केंद्रित थी।
ऐसे में इरफ़ान हबीब की क्लासिक किताब ‘द एग्रेरियन सिस्टम ऑफ़ मुग़ल इंडिया’ ने शासक वर्ग तक सीमित हो चले मध्यकालीन इतिहास के परिसर में किसानों को उनकी वाजिब जगह दिलाने का काम किया। 1963 में छपी इस किताब के अब साठ साल पूरे होने को हैं, लेकिन मुग़लकालीन अर्थव्यवस्था, किसानों की स्थिति, कृषि की ऐतिहासिक दशा पर यह पुस्तक आज भी अपना सानी नहीं रखती।
कृषि और किसानों के साथ-साथ आर्थिक इतिहास, मध्यकाल में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के इतिहास पर भी इरफ़ान हबीब ने शानदार काम किया। उन्होंने ‘कैम्ब्रिज इकनॉमिक हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया’ का सम्पादन भी किया।
इसके साथ ही इरफ़ान हबीब ने मुग़ल साम्राज्य का मानचित्र तैयार करने और भारत का जन-इतिहास लिखने का महत्त्वाकांक्षी कार्य अंजाम दिया। छपने के साथ ही उनकी पुस्तक ‘एटलस ऑफ़ द मुग़ल एंपायर’ मध्यकालीन भारतीय इतिहास का एक अनिवार्य संदर्भ ग्रंथ बन गई। सोलहवीं-सत्रहवीं सदी के भारतीय उपमहाद्वीप के राजनीतिक-आर्थिक भूगोल को समझने के लिए यह किताब आवश्यक है। दूसरी ओर, उन्होंने ‘पीपल्स हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया’ सीरीज़ के अंतर्गत भारतीय इतिहास पर पुस्तकों की एक ऋंखला लिखी और सम्पादित की। वे लंबे समय से ब्रजभूमि के दस्तावेज़ों पर काम कर रहे थे। ख़ुशी की बात है कि अभी पिछले ही वर्ष इसी विषय पर उनकी अत्यंत महत्त्वपूर्ण किताब ‘ब्रज भूम इन मुग़ल टाइम्स’ प्रकाशित हुई। जो उन्होंने दिवंगत इतिहासकार तारापद मुखर्जी के साथ लिखी है। मुग़ल काल में ब्रज क्षेत्र के तीन गाँवों वृंदावन, राधाकुंड और राजपुर में संरक्षित ब्रज और फ़ारसी के दस्तावेज़ों के जरिए गोसाईंयों, किसानों और मुग़ल राजव्यवस्था के इतिहास से जुड़े अछूते पहलुओं को प्रकाश में लाने का काम इस किताब में उन्होंने बख़ूबी किया है।
किताबों के साथ-साथ उनके कुछ लेख भी क्लासिक का दर्जा रखते हैं और ऐतिहासिक सूचनाओं, विश्लेषण और भारतीय इतिहास और समाज के बारे में अपनी गहरी अंतर्दृष्टि के लिए जाने गए। मसलन, मुग़लकालीन भारत की अर्थव्यवस्था में अंतर्निहित पूँजीवादी विकास की सम्भावनाओं और उसके मार्ग में आने वाले अवरोधकों पर उनका वह लेख पढि़ए, जो ‘जर्नल ऑफ़ इकनॉमिक हिस्ट्री’ में छपा था। या फिर ‘कैम्ब्रिज इकनॉमिक हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया’ के दूसरे खंड पर उन्होंने जो लंबा समीक्षात्मक लेख लिखा था, जिसमें उन्होंने उपनिवेशवाद की ऐतिहासिक सच्चाई को अनदेखा कर औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था के बारे में लिखने की ऐतिहासिक त्रुटि को उजागर किया था। यह लेख मॉडर्न एशियन स्टडीज़’ में छपा था। इसके अतिरिक्त और बहुत कुछ लिखा है उन्होंने—–
91 वर्षीय इरफ़ान हबीब को आप कभी सेमिनार या कांफ्रेंस हाल में देखें-सुनें तो आपको आश्चर्य होगा कि इस उम्र में भी कोई अपने काम के प्रति इतना समर्पित, प्रतिबद्ध कैसे हो सकता है। सिर्फ़ बोलते हुए ही नहीं, दूसरे वक्ताओं को सुनते हुए भी। सुबह से शाम तक वे आपको सेमिनार में दूसरे विद्वानों के पर्चे पूरी गम्भीरता से सुनते हुए फुलस्केप कागज़़ पर अपनी सुंदर लिखावट में नोट्स लेते हुए मिलेंगे। थकान का एक कतरा भी उनके चेहरे पर आपको नजऱ नहीं आएगा। उनकी प्रतिबद्धता, समर्पण और ज्ञान के प्रति उनका गहरा अनुराग मेरे जैसे इतिहास के छात्रों के लिए एक प्रेरणास्रोत है। 91वें जन्मदिन की मुबारकबाद, इरफ़ान सर!