‘70 घंटे काम करे युवा’, बिना कुर्सी-स्टूल के भी, कहीं भविष्य का इशारा तो नहीं!

‘70 घंटे काम करे युवा’, बिना कुर्सी-स्टूल के भी, कहीं भविष्य का इशारा तो नहीं!
November 22 17:14 2023

विवेक कुमार
मज़दूर मोर्चा। सेक्टर 12 फरीदाबाद में खुले नये नवेले शॉपिंग मॉल के शोरूम लाइफ स्टाइल में गार्ड की वर्दी पहने ड्यूटी करने वाली सुनीता के काम की शिफ्ट 9 घंटे है7 सुनीता का काम केवल इतना है कि वह यह देखे कि कोई 6 से अधिक कपड़े लेकर ट्रायल रूम में न जाए। एक घंटे में केवल 4 लोग कपड़े जांचने के लिए रूम में गए जबकि सुनीता पिछले 8 घंटे से लगातार एक ही जगह पर खड़ी है और ड्यूटी का एक घंटा अभी बाकी है। बैठने के लिए सुनीता को कोई कुर्सी या स्टूल नहीं दिया गया है, जबकि 50 की उम्र में घुटने सुनीता से अपना बैठने का हक मांग रहे हैं। हफ्ते में एक दिन की भी छुट्टी नहीं मिलती और तनख्वाह 10 हज़ार। सुनीता की ही तरह शोरूम में काम करने वाले किसी भी कर्मी के पास बैठने के लिए कोई स्टूल नहीं है। मैनेजर से पूछने पर कि यदि यही काम वह बैठ कर कर लेगी तो काम पर क्या नुकसान हो जाएगा, मैनेजर केवल दांत दिखाते रहे।

इंफ़ोसिस के फाउन्डर नारायण मूर्ति ने अपने हालिया बयान में कहा कि देश के युवाओं को ये कहना चाहिए कि ‘ये देश मेरा है और मैं इसके लिए एक हफ्ते में 70 घंटे काम करूंगा’। ब्रिटिश प्रधानमंत्री के ससुर के मुंह से वही निकल रहा है जो उनके पेट में है और जो कॉर्पोरेट परस्त सरकार से वे करवा भी लेंगे। बहरहाल उनके बयान को अलग-अलग भागों में तोड़ कर देखें तो मूर्ति ने अपनी बात में देश शब्द का इस्तेमाल किया। इस शब्द को हर बात में ठेलने का श्रेय भारत के प्रधानमंत्री को जाता है पर मैं समझता हूं कि मूर्ति ने ये रामदेव से सीखा है। देश के नाम पर गोबर और पेशाब तक बेच लेने का हुनर रामदेव ने ही पेश किया और यह देख कोई भी इसे अपने भाषण का हिस्सा बनाएगा ही। मूर्ति ने जिस देश के युवा की बात की है उसमे अव्वल तो युवा कई धर्मों, जातियों, प्रदेशों, और वर्गों से आते हैं। मोटा-माटी देखें तो युवा तो क्या बूढ़ा भी इस देश में हाड़तोड़ मेहनत करके काम कर रहा है। पर इस मेहनत से मिलता क्या है?

संतोष हर रोज सुबह 6 बजे उठ कर अपना खाना बनाता है और दोपहर के लिए रख कर 8 बजे फरीदाबाद के लेबर चौक सेक्टर 17 में आकर खड़ा हो जाता है। संतोष जैसे सैकड़ों अन्य दिहाड़ी मजदूर ठीक इसी तरह देश के हर राज्य और शहर में यही रुटीन फॉलो करते हैं। काम मिले तो 9 से लेकर शाम 6 बजे तक हाड़-तोड़ काम करने के बाद संतोष को मिलते हैं 600 रुपये। यानि एक सप्ताह में रोज काम मिले और बीमार न पड़े तो 4200 रुपये। प्याज, तेल, टमाटर खाने जैसी फालतू बात हम यहां नहीं करेंगे। इस वर्ग के लोगों को रोटी में चिपका कर खाने को आचार, चटनी कुछ भी मिल जाए तो वो खाना मान लेते हैं तो हम भी मान कर चलते हैं फिलहाल। संतोष के दो बच्चे और पत्नी है जिनका पेट भी इसी कमाई से भरता है तो कभी नहीं भी भरता।

संतोष से एक पायदान ऊपर खड़े हैं जावेद और सुमित। जावेद ऊबर टैक्सी चलाते हैं और सुमित ऑनलाइन डिलीवरी पार्टनर हैं। 23 साल के जावेद के मुताबिक जबसे टैक्सी चला रहे हैं एक दिन भी 10 घंटे से कम नहीं चलाई और कमाई महीने की 20 हजार वो भी तब जब हर दिन गाड़ी चली। गाड़ी की किस्त और मेन्टिनेंस का भी खर्च रहता है। कई बार तो 15-15 घंटे भी चलानी पड़ी है

ताकि गाड़ी की किस्त भर सकें। वहीं मूर्ति जैसों के पास लग्जरी है कि वे लोन भी हजारों करोड़ों में लें और न भरें तो भी सरकार उसे बट्टे खाते में डाल देती है और मूर्ति दोबारा सैकड़ों करोड़ का लोन ले सकते हैं। जबकि जावेद की गाड़ी उठा ली जाएगी और दोबारा कभी लोन नहीं मिलेगा।

इसी तरह सुमित को 10 मिनट में डिलीवरी करने के टास्क में अपनी जान जोखिम में डालने के लिए भी लगभग महीने में जावेद जितने ही पैसे बचते हैं। ज्यादा डिलीवरी मतलब ज्यादा पैसा, तो काम के घंटों का हिसाब 12 से ऊपर ही है नीचे तो बिल्कुल नहीं। कहीं 10 मिनट में पहुंचने के चक्कर में एक्सीडेंट हुआ तो खाया-पिया सब बराबर।
ये तो बात हुई असंगठित क्षेत्र की। जिसके बारे में नारायण मूर्ति ने बिल्कुल नहीं कहा था। बल्कि ये तो हम जैसे खाली बैठे लोग हैं जो इन जैसे तुच्छ प्राणियों को मूर्ति जी के डिस्कोर्स में शामिल, कर लाए वरना मूर्ति जैसों के लिए न ये देश हैं न देश के युवा। उनके लिए ये बस जनसंख्या का नंबर हैं और इस नंबर पर मध्यम वर्ग सहित मूर्ति जी काफी शर्मिंदा हैं। तो असल और मुख्य बात है कि मूर्ति जिसे देश कह रहे हैं वह क्या है? मूर्ति जी खुद देश हैं और युवा से उनका अर्थ आईटी सेक्टर में काम करने वाले वह लोग हैं जिनकी दुनिया एक 4 फुट के क्यूबिकिल में समाई हुई है। तो सीधे मूर्ति जी के देश और देश के युवाओं पर आ जाते हैं।

शॉप एण्ड इस्टैब्लिश्मन्ट ऐक्ट के मुताबिक कर्नाटक में जहां मूर्ति जी का देश बसता है सप्ताह में 48 घंटे का समय नियत किया गया है एक कर्मचारी के लिए। जिसमे 8 घंटे प्रति दिन काम और एक घंटे का ब्रेक शामिल है। ऐसा नहीं है कि 48 घंटे का समय अक्कड़ बक्कड़ बंब्बे बोल अस्सी नब्बे पूरे सौ करके रखा गया। जबकि इसके पीछे वैज्ञानिक रिसर्च शामिल है जिसमे बताया गया है कि किसी व्यक्ति की प्रोडक्टिविटी कितने समय तक बनी रहती है और स्वास्थ्य के लिए क्या जरूरी है। ठीक वैसे ही जैसे स्कूल की कक्षा में एक विषय का पीरियड लगभग 40 मिनट का होता है क्योंकि बच्चे का दिमाग एक विषय को इतनी ही देर एक बार में समझता है। तो क्या मूर्ति जी को इसका हाल नहीं मालूम जो हम जैसे घिसे-पिटे उन्हे यह बताएंगे? बिल्कुल, वे यह सब जानते हैं पर वे यह भी जानते हैं कि जिन युवाओं को वे संबोधित कर रहे हैं वे युवा कुंद जहन हो चुके हैं। हर बात में देश घुसा कर इनसे जब मोदी जैसे को एन्डॉर्स करवाया जा सकता है, पेशाब और गोबर खिलाया जा सकता है, ताली-थाली बजवाई जा सकती है तो 70 घंटे का काम भी करवाया जा सकता है। मजदूरों के लिए इस सरकार ने लेबर कानून बदल कर उनसे 12 घंटे काम करने का कानून तक बना डाला पर किसी की चूं तक नहीं निकली। जबकि इस देश ने एक से बड़े एक ट्रेड यूनियन आंदोलन देखे। तो अगर इन क्यूबिकिल शेरों को 70 घंटे के लिए रौंदना शुरू कर भी देंगे तो क्या ही हो जाएगा। दरअसल मूर्ति साहब की इन बातों में मोदी जी के लिए इशारा है कि, जल्दी ही ऐसा कानून बना कर कॉर्पोरेट के हाथ में दिया जाए, बाकी 70 घंटे काम कैसे करवाना है वे जानते हैं। आई टी में काम करने वाले मनु के मुताबिक कई लोगों से तो कंपनी 12-12 घंटे काम करवाती है और पेमेंट के नाम पर कोई अलग पैसा नहीं दिया जाता। वहीं इन्फोसिस में बतौर मैनेजर सौरभ का कहना है कि 8 घंटे के काम में जब कोई मीटिंग या प्रेज़न्टेशन शामिल होती है तो इनको काम से अलग माना जाता है और और इस घंटे को अलग से काम करके पूरा करना पड़ता है।

वर्क फ्रॉम होम में तो हालात और खराब हैं। मैनेजर मान कर चलता है कि आप घर में ही तो बैठे हैं तो क्या आठ घंटे या क्या 12 घंटे, सब बराबर है। महिलाओं के मामले में वर्क फ्रॉम होम तो वर्क ऑफ होम विद वर्क फ्रॉम होम बन जाता है। जिन लोगों को बंगलुरू जैसे शहर में दफ्तर जाना है उन का आने-जाने का 3 घंटा तो वर्क में गिने ही नहीं जाते। दिन के 24 घंटे में ट्रैवल का यह समय घल्लु -धारा में गया। पर इन सबके लिए मिलता कुछ नहीं, आपकी कॉस्ट टू कंपनी इज़ फिक्स्ड और देश यानि की मूर्ति टाइप लोग फायदे ही फायदे में।
कुल जमा मूर्ति जी घी के डिब्बे में धंसे पड़े रहें और उनके लिए युवा देश के बैल बन कर मलाई मथें और घी का डब्बा बड़ा होता जाए जिसमें मूर्ति का सारा कूनबा डूबा रहे। क्या कभी हमने आपने सुना या शायद इन्फोसिस की किसी प्राइवेट मीटिंग में ही मूर्ति जी और उनकी पत्नी ने बताया कि 48 घंटे में पैदा होने वाले स्ट्रेस से जो मानसिक नुकसान उनके कर्मचारी का हुआ उससे देश को कितना नुकसान पहुचता है? ट्रैफिक में फंसा युवा प्रोडक्टिविटी के कितने घंटे रोज पेट्रोल फूक कर गंवा देता है? क्या कभी मूर्ति जी बता सकेंगे कि उनकी बेटी जो अब ब्रिटिश प्रधानमंत्री की पत्नी भी है, के पास हजारों करोड़ कहां से आए जिन्हे वो टैक्स हैवन मॉरिशस से घुमा कर हिंदुस्तान भेज आईं और टैक्स चुरा लिया। इन सब पर कभी आपने नहीं सुना होगा कि मूर्ति जैसे लोग कहें कि ये देश मेरा है और मैं देश के युवा को उसकी मेहनत के मुकाबले भी पे करूंगा और टैक्स भी दूंगा। हां इनकी लूट-मार से स्ट्रेस में धकेला हुआ युवा स्ट्रेस में क्यों है और क्यों न उसकी काउन्सलिंग करने का ड्रामा करके एचआर पॉलिसी में दिखाएं कि हम अपने कर्मियों का कितना खयाल रखते हैं।

सो कॉउसेलिंग के लिए दिन चुनेंगे दीवाली या होली, फिर पूछेंगे कि तुम डिप्रेस क्यों हो? अपनी पूंजीवादी मानसिकता को सही साबित करने का एक झुनझुना सुनाना मूर्ति जी नहीं भूलते जिसमें वे कहते हैं कि 1974 के दशक में उन्हे समाजवादियों द्वारा युगोस्लाविया और बुल्गारिया की सीमा के पास बेवजह कैद कर लिया गया, इसलिए उन्होंने पूंजीवादी बनना चुना न कि एक कन्फ्यूज़्ड समाजवादी।

तो वही सोच आज तक मूर्ति जी को प्रेरित किये हुए है जिसमें युवा का जन्म उनकी तिजोरी भरने के लिए हुआ है न कि अपने जीवन और उसे अपने परिवार के साथ जीने के लिए।

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Mazdoor Morcha
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