फऱीदाबाद (मज़दूर मोर्चा) जुमलाजीवी प्रधानमंत्री 2025 तक भारत के टीबी मुक्त होने का ढिंढोरा पीट रहे हैं लेकिन उनकी डबल इंजन सरकार टीबी मरीजों को दवा ही उपलब्ध नहीं करा रही। सरकार ने स्वास्थ्य विभाग के जरिए अब टीबी मरीजों को संदेश दिया है कि यदि जान बचानी है तो खुद ही बाजार से दवा खरीद कर खाओ, स्वास्थ्य विभाग तो बस इस पर नजर रखेगा कि तुमने दवा सही समय पर खरीद कर कोर्स पूरा किया या नहीं, हालांकि ये नजर भी ऐसी होगी जिसे दिखता ही कुछ नही।
जिला टीबी अधिकारी डॉ. हरजिंदर ने मीडिया को बताया है कि बीच-बीच में दवाएं खत्म होने के कारण मरीजों को दिक्कतें झेलनी पड़ती हैं। ऐसे में मरीज बाहर से दवा खरीद कर अपना इलाज पूरा कर सकें इसके लिए उन्हें विभाग से विशेष कार्ड जारी किया जाएगा। इस कार्ड पर मरीज किसी भी मेडिकल स्टोर से टीबी की दवा खरीद सकता है, अभी तक कार्ड पर कोई तिथि और मात्रा अंकित न होने के कारण दवा विक्रेता मरीजों को दवा नहीं देते थे।
डॉट्स दवा की एक डोज (आईसोनियाजिड, रिफैंपिसिन, पायराजिनामाइड और इथामब्यूटॉल) की कीमत 30 से 100 रुपये तक है। अधिकतर मेडिकल स्टोर वाले मोटे कमीशन के लिए महंगी दवाएं ही रखते हैं। टीबी का पूरा कोर्स छह महीने तक चलता है, यानी मरीज को दवा के लिए प्रतिमाह कमोबेश तीन हज़ार रुपये खर्च करने होंगे। सुधी पाठक जान लें कि टीबी मरीजों में अधिकतर निम्न आय या निम्न मध्यम आय वर्ग के हैं जिनमें से अधिकतर कुपोषण का शिकार हैं। दवा के कारण शरीर को होने वाले नुकसान (साइड इफेक्ट) को कम करने के लिए मरीज को पौष्टिक भोजन लेना भी जरूरी है। यही कारण है कि सरकार टीबी मरीजों को पोषण के लिए पांच सौ रुपये प्रतिमाह भी जारी करती है जो सत्ता के गलियारों में ही डकार लिया जाता है। पोषण तो गया ऐसी तैसी में दवाओं का भी टोटा हो गया। समझा जा सकता है कि जिस टीबी मरीज के पास खाने को नहीं है उसके लिए दवाओं पर प्रतिदिन करीब सौ रुपये खर्च करना मुश्किल होगा।
मरीज बाजार से ये महंगी दवाएं खरीदने को मजबूर होंगे क्योंकि जुमलेबाज प्रधानमंत्री की सस्ती दवाओं की प्रधानमंत्री जन औषधि परियोजना में आइसोनियाजिड और इथाम्ब्यूटॉल दवाएं हैं ही नहीं, रिफैम्पिसिन और पायराजिनामाइड उपलब्ध तो हैं लेकिन ब्रांडेड कंपनी की न कि जेनरिक जिनकी कीमत दो से तीन गुना होगी। ये मरीज न तो आयुष्मान योजना, न ही चिरायु योजना में कवर होंगे, दवा न मिलने पर केवल मौत की योजना में कवर होंगे।
संदर्भवश पाठक जान लें कि बीके अस्पताल में बीते दस दिन से टीबी की दवाएं नहीं हैं। स्वास्थ्य विभाग ने अभी तक विशेष कार्ड बनाए भी नहीं हैं। ऐसे में जिन टीबी मरीजों की दवाएं दस दिन पहले खत्म हुई थीं वो बिना दवा के भटकने को मजबूर हैं। स्वास्थ्य सेवा मामलों के जानकार कहते हैं कि यदि डॉट्स की दवाएं 21 दिन तक छूट जाती हैं तो मरीज मल्टी ड्रग रेसिस्टेंट (एमडीआर) या रिफैम्पिसिन रेसिसटेंट (आरआर) का शिकार हो जाते हैं, ऐसे मरीज संक्रमण के लिहाज से खतरनाक तो होते ही हैं, उनका इलाज भी लंबा और कठिन हो जाता है, बहुत ही कम एमडीआर मरीज ठीक हो पाते हैं।
वरिष्ठ समाजसेवी सुरेश गोयल कहते हैं कि टीबी उन्मूलन एक वैश्विक मुहिम है, भारत में विश्व के 28 प्रतिशत टीबी मरीज हैं, इस बीमारी को खत्म करने के लिए सरकार का सक्रिय हस्तक्षेप जरूरी है, इसे टीबी मरीजों की इच्छा पर नहीं छोड़ा जा सकता, यानी सरकार उन्हें हर कीमत पर मुफ्त दवाएं उपलब्ध कराए। इसके विपरीत सरकार दवाएं नही दे रही है। सरकार आए दिन बताती है कि जीएसटी वसूली का नया रिकॉर्ड बन गया, जनता से वसूला गया ये धन स्वास्थ्य जैसी आधारभूत सुविधाएं देने पर भी नहीं खर्च किया जा रहा जो कि चिंतनीय है। वह कहते हैं कि सरकार की मंशा हर जगह से कमाई करने की है, यही कारण है कि अस्पतालों से मुफ्त मिलने वाली दवाओं की प्रधानमंत्री जन औषधि योजना के तहत कम दाम के नाम पर जनता से वसूली शुरू कर दी गई। जो हाल है लगता है कि सरकार धीरे धीरे टीबी की दवाओं की आपूर्ति भी बंद कर देगी। जो दवाएं अभी तक टीबी मरीजों को मुफ्त मिलती थीं जान बचाने के लिए अब खरीदनी पड़ेंगी। यही है मोदी के स्वस्थ भारत का सच।
पूर्व सीएम खट्टर तो जुमला फेकने में मोदी से भी आगे चले गए थे, मार्च 2023 में उन्होंने जुमला फेका था कि हरियाणा को देश का पहला टीबी मुक्त प्रदेश बनाया जाएगा। जब उन्होंने यह घोषणा की थी तब मरीजों की संख्या 4488 थी जो अक्तूबर 2023 में बढक़र 6501 हो गई थी, ये आंकड़े भी सरकारी हैं जो संदेह से परे नहीं हो सकते। लगता है कि सरकार टीबी खत्म करना नहीं चाहती बल्कि टीबी के मरीजों को ही खत्म करना चाहती है।