सोशल मीडिया पर नकेल… खुश तो बहुत होंगे आप लोग

सोशल मीडिया पर नकेल… खुश तो बहुत होंगे आप लोग
November 20 07:01 2020

 

यूसुफ किरमानी

बिहार चुनाव के नतीजे जब आ रहे थे तो उसी दौरान केंद्र की मोदी सरकार ने चुपचाप एक काम और कर डाला। वह था सोशल मीडिया पर सेंसरशिप का। देश के अधिकांश न्यूज चैनल और अखबार पहले से ही सरकार की गोद में बैठ चुके हैं। सोशल मीडिया थोड़ा बहुत सरकार को टक्कर दे रहा था तो अब उस पर भी नकेल कसने के लिए 9 नवम्बर को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंन्द ने उस अधिसूचना पर हस्ताक्षर कर दिए जिसके जरिए डिजिटल या आनलाइन मीडिया को भी अब मोदी सरकार केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्रालय के जरिये नियंत्रित करेगी। इस अधिसूचना का खुलासा जिस दिन नतीजे आ रहे थे, उसी दिन हो गया था लेकिन ताज्जुब है कि मामूली विरोध के अलावा देश के तमाम प्रबुद्ध लोग इस पर चुप है। मोदी सरकार की इस अप्रत्यक्ष सेंसरशिप का जितना विरोध होना चाहिए था, वह नहीं हुआ। अभी तक किसी नामी गिरामी वकील ने इसे अदालत में चुनौती देने की बात भी नहीं कही है।

जिस गजट नोटिफिकेशन को जारी किया गया है, उसमें मुख्य रूप से ओटीटी यानी ओवर द टॉप ऐसा प्लैटफॉर्म है जिस पर नेटफिलिक्स, ऐमजॉन, हॉटस्टार और अन्य कंपनियां आपको मनोरंजक कार्यक्रम, सीरियल वगैरह दिखाती हैं। अब उन्हें केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्रालय यानी भारत सरकार द्वारा बनाये गये नियम-कायदे मानने होंगे। मसलन हाल ही में पाताललोक और मिर्जापुर वेबसीरीज में जिस तरह धर्म की राजनीति पर कटाक्ष किये गये हैं, वह सरकार को पसंद नहीं आया। मोदी सरकार ने इन दोनों ही सीरियलों को उसके हिन्दुत्व के एजेंडे पर प्रहार माना। यही वजह है कि हिन्दूवादी संगठनों ने ऐसे सीरियलों पर रोक लगाने की मांग की थी।

डिजिटिल मीडिया या आनलाइन मीडिया पर नियंत्रण के लिए जारी की गई अधिसूचना का सबसे खतरनाक बिन्दु है समाचार और करेंट अफेयर्स के कार्यक्रमों का इन पर प्रसारण करने वालों को सरकार के नियमों का पालन करना होगा। यानी यूट्यूब और फेसबुक पर जो स्वतंत्र पत्रकार अपने चैनल या कार्यक्रम पेश कर रहे हैं, उन पर भी मोदी सरकार शिकंजा कसना चाहती है। टीवी चैनलों और अखबार मालिकों ने जब एक साजिश के तहत मोदी विरोधी पत्रकारों को अपने-अपने संस्थानों से निकाल बाहर किया तो इनमें से तमाम पत्रकारों ने यूट्यूब और फेसबुक पर अपना चैनल शुरू कर दिया। इनमें कुछ पत्रकारों के चैनल इतने लोकप्रिय हैं कि उन्हें टीवी न्यूज चैनलों पर गला फाडऩे वाले या सरकारी ऐंकरों से ज्यादा देखा जा रहा है। रवीश कुमार और पुण्य प्रसून वाजपेयी का कार्यक्रम जैसे ही यूट्यूब और फेसबुक पर जारी होता है, उसे देखने वालों की संख्या टीवी चैनल पर देखने वाले दर्शकों से कहीं ज्यादा होती है। इसी तरह दिल्ली के पत्रकार फरहान यहिया हिन्दुस्तान एक्सप्रेस चैनल फेसबुक पर चलाते हैं। वो ज्यादातर दिल्ली पर फोकस करते हैं। उनकी रिपोर्ट इतनी तीखी होती है कि उससे दिल्ली सरकार से लेकर भारत सरकार तक परेशान रहती है। उन पर कई बार हमले हुए। लेकिन फरहान आधी रात को अपना कैमरा लेकर कहीं भी पहुंच जाते हैं। अब ऐसे आनलाइन चैनलों पर संकट के बादल मंडरा सकते हैं।

मोदी सरकार की ताजा परेशानी सोशल मीयिा पर समाचार और करेंट अफेयर्स के प्रोग्राम हैं। लेकिन उसे यह मौका तब मिला जब सुदर्शन चैनल ने सिविल सर्विस परीक्षा आयोजित करने वाली यूपीएससी पर सवाल उठाया और कहा कि मुसलमान ज्यादा आईएएस, आईपीएस और एलायड सर्विसेज में आ रहे हैं। मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और कोर्ट ने ऐसे चैनलों और ऐसी सामग्री के दिखाये जाने पर सख्त ऐतराज जताया। केंद्र सरकार ने उस समय सुप्रीम कोर्ट में ऐसा कानून बनाने की बात कही थी। उसने 9 नवम्बर को उसी सिलसिले में यह अधिसूचना जारी कर दी। ज्यादातर लोग मोदी सरकार की इस अधिसूचना को हल्के ढंग से ले रहे हैं। उनका मानना है कि इसे ओटीटी प्लेटफॉर्म पर नियंत्रण के लिए लाया गया है। लेकिन दरअसल सरकार की नजर सोशल मीडिया पर दिनरात चलने वाले समाचार और करेंट अफेयर्स कार्यक्रमों को लेकर है। सरकार की चिन्ता जनचौक, द वायर, आल्ट न्यूज, न्यूज क्लिक और द स्क्रॉल जैसी प्रखर समाचार वेबसाइट या पोर्टल भी हैं। यह बात मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं कि लोग कथित राष्ट्रीय या मेनस्ट्रीम मीडिया के पोर्टलों पर सस्ती कार या मोबाइल खरीदने के झांसे वाले लेख, नग्न और गंदी तस्वीरों से ऊब कर जनचौक या द वायर पर आ जाती है। आल्ट न्यूज ने जिस तरह दक्षिणपंथी गिरोहों के वीडियो की पड़ताल करके उन्हें नंगा करने का काम किया है, मोदी सरकार की चिन्ता वह पड़ताल है। इसलिए वह डिजिटल या आनलाइन मीडिया पर लगाम कसना चाहती है।

मोदी सरकार अगर डिजिटल या आनलाइन मीडिया को जिम्मेदार बनाने या जवाबदेही तय करने के लिए कोई कानून बनाती या सुझाव देती तो शायद उसकी मंशा पर शक नहीं जताया जाता। लेकिन 9 नवम्बर का गजट नोटिफिकेशन हर तरह से आनलाइन मीडिया पर सेंसरशिप की तैयारी बताती है। इंटरनेट की आजादी पर नजर रखने वाली संस्था फ्रीडम हाउस का कहना है कि पिछले तीन साल में भारत में इंटरनेट आजादी में लगातार गिरावट और सरकारी दखल को अनुभव किया जा रहा है।

जिस देश में सरकार की पसंद के हिसाब से संपादक रखे जाते हों या बदले जाते हों, उस देश में इस तरह की पाबंदी नई बात नहीं है। लेकिन सबसे ज्यादा ताज्जुब यह है कि जिस देश के ,मीडिया और पत्रकारों ने राजीव गांधी के शासनकाल में बिहार प्रेस बिल का विरोध किया हो, उसी देश का मीडिया और पत्रकारों का बहुत बड़ा तबका आनलाइन मीडिया, फिल्म, अन्य क्रिएटिव चीजों पर नकेल कसता हुआ चुपचाप देख रहा है। यह देश एक तरफ तो अर्नब गोस्वामी जैसे पत्रकारों की आजादी छिनने पर चिन्ता जता रहा है तो दूसरी तरफ तमाम वृद्ध एक्टिविस्ट जो जेलों में बंद हैं, उनकी गिरफ्तारी, उनकी प्रताडऩाओं पर मौन है। वृद्ध तेलगू कवि वरवरा राव, दलित विचारक आनंद तेलतुम्बड़े, मानवाधिकार कार्यकर्ता उमर खालिद, पत्रकार गौतम नवलखा, प्रशांत कन्नौजिया की आजादी के कुछ भी मायने नहीं हैं। अर्नब गोस्वामी की आजादी की चिन्ता करने वाले सुप्रीम कोर्ट को डिजिटल और आनलाइन आजादी छिनने का खतरा पैदा होने पर जरा भी अफसोस नहीं है। वह एक्टिविस्ट सफूरा जरगर को तब रिहा करता है जब उसका पति उसकी जमानत उसके प्रेग्नेंट होने का हवाला देकर मांगता है। डॉ कफील खान को महीनों बाद तब रिहा किया जाता है जब पुलिस सबूत पेश नहीं कर पाती और अदालत उनके भाषण का वीडियो टेप सुनती है। अनगिनत नाम हैं जो व्यक्तिगत आजादी मांगने पर जेलों में बंद हैं। लेकिन अदालत सिर्फ अर्नब की आजादी की परवाह करती है, उसे इंटरनेट की आजादी की परवाह नहीं है।

आनलाइन मीडिया पर सेंसरशिप का कदम किसी समुदाय विशेष के खिलाफ नहीं है। दरअसल, उसका यह कदम आजाद भारत के हर उस शख्स के खिलाफ है जो सरकार की नीतियों, उसकी पहल, उसके कानूनों को शक की नजर से देखता है। आनलाइन मीडिया पर सेंसरशिप की नकेल कसने के बाद आपको कौन बतायेगा कि भारतीय बैंक किस तरह का गुल आपके पैसों के साथ खिला रहे हैं। सरकार जिस डर को आपके अंदर बैठाना चाहती है, उसका सामने करने को तैयार रहिये। अब आपको सचेत करने वाले या तो जेलों में होंगे या उनकी कलम गिरवी रखी जा चुकी होगी। अब आप अपनी चिन्ता खुद

करिये।

(वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक)

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Mazdoor Morcha
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