संसाधन बढ़ते गये, यूनियन डूबती गयी…

संसाधन बढ़ते गये, यूनियन डूबती गयी…
September 26 12:55 2020

 

सतीश कुमार (संपादक, मजदूर मोर्चा)

 

अपनी मेहनत का वाजिब दाम पाने के लिये जब संगठित मज़दूर संघर्ष करने लगता है तो उसे संसाधनों की जरूरत पडऩा लाजमी है। उसे इश्तिहार भी छापने पड़ते हैं, बैनर, पोस्टर रैलियों व आवागमन आदि, सब पर खर्चा होता है। धरने के लिये तम्बू व लाउड स्पीकर आदि का भी जुगाड़ करना पड़ता है। इसके लिये किसी भी एक या दो-चार मज़दूर के बस का नहीं कि वे संसाधन जुटा लें। इसके लिये उसे अपने तमाम मज़दूर साथियों को साधना होता है। इसके लिये सबसे पहला काम होता है उनसे चंदा एकत्र करना। चंदा एकत्र करने से संगठन की आर्थिक स्थिति तो मजबूत बनती ही है साथ में चंदा देने वाला मज़दूर अपने आप को यूनियन से जुडा हुआ महसूस करता है, वह अपने आप को संगठन का एक हिस्सा मानने लगता है। यह चंदा सदैव मज़दूर के वेतन के अनुरूप इतना रखा जाता है कि उसे देने में कष्ट न हो। मज़दूर चंदा तभी खुशी-खुशी देता है जब उसे अपने यूनियन नेतृत्व पर विश्वास होता है। इसके विपरीत कई बार नेतृत्व विश्वास पैदा करने की बजाय जोर-जबर से वसूली करके संगठन को बदनाम करते हैं।

लेकिन अब बड़ी-बड़ी यूनियनों ने चंदा एकत्र करने की प्रणाली बदल दी है। पहले चोरी-छिपे मज़दूरों से चंदा एकत्र होता था, फिर गेट पर खड़े होकर चंदे की पर्ची काटी जाने लगी क्योंकि $फैक्ट्री के भीतर पर्ची काटना, कम्पनी की नज़रों में अपराध माना जाता था। वहीं अब मज़दूरों के वेतन से चंदा कट कर सीधे यूनियन के खाते में जाने लगा है। प्रबन्धन के सहयोग से यूनियन केवल एक रजामंदी $फार्म पर मज़दूर के हस्ताक्षर करा कर मैनेजमेंट को देती है, $िफर बाकी काम मैनेजमेंट खुद कर देती है। इस से जहां चंदा एकत्र करने पर होने वाली मेहनत व खर्चा बचा वहीं वसूली भी पूरी कि पूरी एक साथ होकर यूनियन खाते में पहुंचने लगी। जाहिर है इससे यूनियन की वित्तीय स्थिति का$फी मज़बूत होने लगी। लेकिन चंदा वसूली के जरिये मज़दूर से होने वाला सीधा संवाद खत्म हो गया।

जाहिर है जब पैसा आयेगा, सम्पन्नता बढेगी तो काम करने के हालात भी बेहतर होंगे। यूनियन वालों को, पहले जहां कहीं बैठने को ठौर नहीं थी, अब शानदार द$फ्तर बनने लगे। कई जगह तो वातानुकूलित तक भी हो गये। पहले जो कागजी कार्रवाई मज़दूर नेता खूद मिल जुलकर किया करते थे अब इसके लिये क्लर्क बाबू तथा चपरासी तक की व्यवस्था होने लगी। वाहन के नाम पर पहले जहां एक साइकिल होती थी, जिससे प्रतिदिन शहर भर के 50-60 किलोमीटर नाप दिये जाते थे, अब दुपहिया और कहीं-कहीं तो कार तक उपलब्ध होने लगी। दूसरे शहर तक जाने के लिये पहले जहां सार्वजनिक परिवहन ही एक मात्र सहारा होते थे वहां अब टैक्सियां आ गयी। पहले जहां मज़दूर नेता खुद ही श्रम विभाग की कोर्ट कचहरी कर लिया करते थे, उनकी जगह अब पेशेवर वकीलों ने कब्जा ली है। नेता तो केवल ‘नेतृत्व’ करने भर को रह गये।

अब एक और बीमारी बढने लगी है मालिकान से ‘सहयोग’ लेने की। सहयोग के नाम पर कम्पनी के वाहन, हवाई यात्रा के टिकट, अगले शहर में ठहरने की व्यवस्था यानी होटल आदि या कम्पनी का अपना कोई गैस्ट हाउस। द$फ्तर के लिये कम्पनी का $फर्नीचर व अन्य साजो-सामान, सोविनेयर आदि के लिये कम्पनी से विज्ञापन जैसी चीजें तो सबको दिखती ही हैं लेकिन इससे मज़दूरों के मन में भ्रम पेदा होता ही है कि उक्त मेहरबानियों के अलावा नेता न जाने क्या-क्या वसूली मालिकान से करते होंगे। यह भ्रम झूठा भी हो सकता है और सच्चा भी; लेकिन दोनों ही परिस्थितियां संगठन के लिये घातक ही हैं।

किसी भी एक कारखाने में संगठित होने वाले मज़दूरों की एक यूनियन होती हैं। जिसके पदाधिकारी-प्रधान, सचीव,कोषाध्यक्ष व कार्यकारिणी आदि होती हैं। ये सभी लोग प्राय: कारखाने में कार्यरत अथवा कम्पनी द्वारा निष्कासित मज़दूर होते हैं। कुछ मामलों में बाहरी व्यक्ति भी होते हैं। किसी भी कारखाने में बनी इस तरह की यूनियन स्वतंत्र भी रह सकती है और चाहे तो किसी बड़ी केन्द्रीय फेडरेशन से ए$िफलियेट भी हो सकती है। अधिकतर यूनियनें किसी न किसी राष्ट्रीय फेंडरेशन से ए$िफलियेट होती हैं, बल्कि गठित ही उनके द्वारा की जाती हैं। इसका लाभ यह रहता है कि किसी भी कारखाने की यूनियन ए$िफलिएट होने के बाद अपने आप को अकेला महसूस न करके एक बड़े परिवार का हिस्सा मान कर अधिक सुरक्षित महसूस करती है। किसी भी संकट की स्थिति में वे फेडरेशन की अन्य इकाइयों से मदद की अपेक्षा करती हैं। इसलिये बड़ी फेडरेशन के प्रभाव को देखते हुए उसके साथ अधिक इकाइयां एफिलिएट होती हैं। ये इकाइयां बाकायदा फेडरेशन को मासिक ए$िफलिएशन $फीस व चंदे आदि देती हैं।

पूरे देश भर की तरह $फरीदाबाद में भी कम्यूनिस्ट पार्टी की एटक का एकछत्र राज था। लगभग हर कारखाने के गेट पर एटक का लाल झंडा लगा होता था। अनेकों यूनियनों में पदाधिकारी भी बाहरी एटक नेता ही होते थे। कुछ समय बाद कांग्रेसी सरकार के आशीर्वाद से कांग्रेसी फेडरेशन इन्टक को पनपाया जाने लगा। ये लोग जबरन मालिकान से मिल कर फैक्ट्री गेटों पर अपना तिरंगा झंडा गाडऩे लगे। इन्हें एक और बड़ी सुविधा यह भी रही कि अच्छी-भली चल रही यूनियन के बावजूद कोई सात मज़दूर पकड़ कर झटपट अपनी समानांतर यूनियन रजिस्टर करा कर खड़ी कर देते थे। इन्टक की एक खूबी यह भी रही है कि इनका जि़ला स्तर पर कोई संगठन नहीं था। इनके दसियों नेता अपने-अपने द$फ्तर के प्रधान रहे हैं। बाजार में खुली दुकानों की तर्ज पर इनके द$फ्तर खुले थे। हर नेता खुद कमाता था, खुद खाता था, कुछेक तो अब तक भी बचे हैं। ये लोग संघर्ष की बजाय ले-देकर समझौता करके पतली गली से निकलने में यकीन करते थे। इसलिये इनके साथ कभी भी कोई बड़ी यूनियन ए$िफलिएट नहीं हुई।

1964 के बाद एटक में विभाजन हुआ और सीटू का जन्म हुआ। कहावत है कि नया-नया मुल्ला प्याज भी ज्यादा खाता है और बांग भी ज्यादा ऊंची देता है; इसी को चरितार्थ करते हुए सीटू ने भी अन्य इलाकों की तरह $फरीदाबाद में भी ज़ोर-शोर से झंडे गाडऩे शुरू कर दिये। इमरजेंसी दौर में कुछ मंदे पड़े तो इसके समाप्त होते ही 1977 में अपने पूरे शबाब में आ गये। हर रोज शहर भर में सीटू का धूम-धड़ाका, कभी इस फैक्ट्री में तो कभी उस फैक्ट्री में। इसी दौर में हिंद मज़दूर सभा का भी $फरीदाबाद में आगमन हो गया। इस आगमन के मुख्य वाहक तो एस्कॉर्ट कम्पनी के मज़दूर नेता बीरम सिंह व सुभाष सेठी थे। परन्तु इनको नेतृत्व देने व इनका मार्ग प्रशस्त करने का काम तत्कालीन समाजवादी नेता जार्ज $फर्नाडीस व सुषमा स्वराज ने किया। दोनों समय के साथ रंग बदल कर लाल से भगवा हो गये थे।

सुधी पाठकों, खासकर ट्रेड यूनियन साथियों से निवेदन है कि इधर-उधर आपस में बात करने की बजाय सीधे मुझे लिखकर भेजें। उसे हम प्रकाशित करेंगे।

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Mazdoor Morcha
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