फरीदाबाद (म.मो.) पूरे देश को 70 दिन तक लॉकडाउन की कैद में रखने के बावजूद कोरोना महामारी थमने की बजाय और भी तीव्र गति से फैलने लगी है। इसे बेकाबू होता देख सरकार ने अब यह गुप्त नीति बना ली है कि टैस्टिंग ही बंद कर दी जाय। जब टैस्टिंग ही नहीं होगी तो संक्रमितों के आंकड़े कहां से आयेंगे? केवल नाम-मात्र को दिखाने के लिये टैस्टिंग प्रक्रिया चलाई जाय। ऐसे में एक तो सैम्पल ही कम लिये जा रहे हैं और उनके परिणाम यानी रिपोर्ट देने में तीन-चार कहीं-कहीं तो 5-6 दिन भी लगाये जा रहे हैं। प्राइवेट लैबोरेट्रियों को यह टैस्टिंग करने से डरा-धमका कर रोका जा सकता है।
स्थानीय बीके अस्पताल में जहां केवल सैम्पल लेने का काम होता था, वह बीते मंगल व बुद्ध को नहीं हो पाया क्योंकि इसके लिये आवश्यक किट समाप्त हो गयी थी। एक हजार किट मंगाई थी जो खत्म होने को हैं। एनआईटी के ईएसआईसी मेडिकल कॉलेज अस्पताल में जहां टैस्टिंग सुविधा है, प्रति दिन 300 से भी अधिक टैस्ट होने लगे थे, लेकिन बीते एक सप्ताह से काम बिल्कुल बंद है। कारण यह बताया जा रहा है कि टैस्टिंग करने वाले सारे कर्मचारी संक्रमित हो चुके हैं। विदित है कि मज़दूरों के पैसे से केवल उनके इलाज के लिये बना यह अस्पताल सरकार ने पूरी तरह कोरोना को समर्पित कर दिया है। इसके बावजूद यहां टैस्टिंग का काम बंद हुआ पड़ा है।
सवाल यह पैदा होता है कि टैस्टिंग कर रहे यदि 6-7 कर्मचारी डॉक्टर आदि संक्रमित हो भी गये तो बाकी स्टाफ क्या कर रहा है? दरअसल लैबोरेट्री में काम करने वाले चालीस कर्मचारियों की जगह मात्र पन्द्रह लोगों को ही रात-दिन पेला जा रहा था। ऐसे में ब्रेक डाउन तो होना ही था। संक्रमण से बचाव के लिये पर्याप्त उपाय भी नहीं किये गये थे। इन हालात में बीके व बल्लबगढ से लिये गये सैम्पलों को प्राइवेट लैबों में भेजा जा रहा है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार वहां प्रति सैम्पल 4000/-रुपये तक का खर्च आयेगा। पर हां वहां सरकारी बाबुओं को कमिशन जरूर मिल सकता है।
संक्रमितों व इससे मरने वालों की संख्या को कमतर दिखाने के लिये भाजपाई सरकारें हर तरह की तिकड़मबाज़ी कर रही हैं। गौरतलब है कि गुजरात हाई कोर्ट ने जब अहमदाबाद में बढते संक्रमण को लेकर वहां के सिविल अस्पताल व सरकार की खिचाई करनी शुरू की तो सरकारी वकील ने कहा कि यदि सब की टैस्टिंग करा दें तो 70 प्रतिशत लोग संक्रमित निकलेंगे और इसके उजागर होने पर जनता में भयानक हडक़ंप मच जायेगा। इसके बाद मोदी जी ने यह मामला उन जजों से हटवा कर अपनी पसंद के जजों को लगवा कर मामला रफा-दफा कराया। इसी तर्ज पर दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल भी लो$गों को कम से कम टैस्ट कराने व कम से कम अस्पताल आने की सलाह दे रहे हैं। योगी के यूपी और शिवराज चौहान के एमपी का तो कहना ही क्या, न होगा बांस न बजेगी बांसुरी। न सैम्पलिंग व टैस्टिंग पर खर्चा करना और न इलाज पर जिसने जीना हो जी ले मरना हो मर ले यानी सवारी अपने सामान की खुद जिम्मेवार है। सरकार तो केवल हिन्दू-मुस्लिम, राम मन्दिर व लूट-मार के लिये ही है।