“शुद्र का नाम ऐसा होना चाहिए कि उसे सुन कर ही हिकारत का भाव आये।”

“शुद्र का नाम ऐसा होना चाहिए कि उसे सुन कर ही हिकारत का भाव आये।”
August 31 11:55 2020

कथा मनु और मानव धर्मशास्त्र की

प्रभात कुमार बसंत

मानव धर्म शास्त्र को मनुस्मृति के नाम से भी जाना जाता है। आजकल जब हिंदुत्व की चर्चा होती है तो कई विद्वान् और सामान्य लोग इस पुस्तक की खूबियों का जिक्र करते नहीं अघाते। इस पुस्तक को प्राचीन भारतीय मनीषी परंपरा की महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में देखा जाता है। आधुनिक काल में जहाँ अम्बेडकर जैसे नेताओं ने इस पुस्तक को खुलेआम जलाया तो दुसरे नेताओं और विद्वानों ने इसे भारतीय अथवा हिन्दू संस्कृति के मानक स्तम्भ का सम्मान दिया। ये बहस आज भी जारी है।

सबसे पहले इस पुस्तक का इतिहास जान लेना जरूरी है। ब्राह्मण परंपरा यह मानती है कि मनु पहले इंसान थे और उन्होंने ही मानव समाज को चलाने के लिए इस किताब की रचना की। इसका मतलब हो जाएगा कि इस किताब की रचना/करोड़ों साल पहले हुई क्योंकि मनु सृष्टि के आरंभिक काल सतयुग में पैदा हुए थे। जिओलॉजी, इतिहास या पुरातत्व के विद्वान् जो हमारे प्राचीन काल का अध्ययन करते हैं, वह बताते हैं कि मनुष्य की प्रजाति दो लाख साल से पहले पृथ्वी पर कहीं भी विद्यमान नहीं थी। जो प्रारंभिक इंसान थे वे फल बटोर कर और शिकार करके जीवन बसर करते थे। मनुष्य ने खेती करना लगभग एक हजार साल पहले शुरू किया। लिखने पढऩे का काम भी पांच हजार साल पहले शुरू किया। अगर मानव धर्मशास्त्र के लेखक पढ़े लिखे इंसान हों तो उन्हें पिछले चार पांच हजार साल के भीतर ही जन्म लेना पड़ेगा।

मानव धर्म शास्त्र की कोई भी लिखित पाण्डुलिपि चार पांच सौ साल से ज्यादा पुरानी नहीं है। फिर भी इतिहासकार यह मानते हैं कि इस पुस्तक की रचना आज से लगभग दो हजार साल पहले हुई थी । वे इस निष्कर्ष पर इसलिए पहुचे हैं क्योंकि इस किताब में जिस भाषा का इस्तेमाल किया गया है वह उसी काल में प्रचलित थी। साथ ही इस पुस्तक की चर्चा कई दूसरे ग्रंथों में की गई है जो पहली सदी और उसके बाद लिखे गए थे।

जब अंग्रेजी राज शुरू हुआ तो हिंदुस्तान पर शासन करने के लिए उन्होंने यहाँ के धर्मशास्त्रों का अध्ययन शुरू किया। इसलिए उन्होंने मानव धर्मशास्त्र का अनुवाद अंग्रेजी में किया। यह काम काफी कठिन था। समूचे देश से पांडुलिपियाँ इकट्ठी की गईं। हर पांडुलिप में कुछ अलग-अलग श्लोक पाए गए। उनके आधार पर एक आलोचनात्मक संस्करण निकलना काफी मुश्किल का काम था। उनका अनुवाद करना भी काफी मुश्किल था क्योंकि उसमे बहुत सारे संस्कृत शब्दों का इस्तेमाल हुआ था जिनका मतलब लोग भूल गए थे। अनुवाद के लिए उन्होंने कुल्लूकभट्ट नाम के टीकाकार की पुस्तक की सहायता ली। यह सारा काम यूरोप के विद्वान् कर रहे थे। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओँ में मनुस्मृति का जो अनुवाद मिलता वह इसी यूरोपीय संस्करण का अनुवाद है।

शर्म की बात है कि अपने ज्ञान की डींग हांकने वाले भारतीयों ने बिरले ही मनुस्मृति के पांडुलिपियों को पढ़ा। मनुस्मृति का परिमार्जित संस्करण अमेरिका के एक विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले ‘ओलिविल्ले’ नामक विद्वान ने 2005 में किया। आखिर भारत के संस्कृत विद्वान क्या कर रहे

थे?

इस विशाल ग्रन्थ में हजारों बातें बताई गईं हैं। हमारे लिए यह किताब महत्वपूर्ण है क्योंकि भारतीय जनमानस पर इसका स्पष्ट प्रभाव नजर आता है। जाति व्यवस्था, शादी-ब्याह और महिलाओं को लेकर जो स्थापनाएं इस पुस्तक में मानी जाती हैं वे आज भी प्रचलित हैं। अब तो भारतीय राजनीति का व्याकरण अक्सर मनु की स्थापनाओं से उड़ जाता है । इन सभी मुद्दों पर एक साथ चर्चा करना संभव नहीं है। अत: मैं सिर्फ दलितों के मुद्दे पर मनु की समझ की चर्चा करूँगा। मनु का निर्देश है चांडालों और स्वपचों को गाँव की सीमा से बाहर टीलों, पेड़ों के नीचे या शमशान घाट पर रहना चाहिए। उन्हें फेंके हुए टूटे बर्तन इस्तेमाल करना चाहिए। कुत्ते और गधे उनकी दौलत हैं। उन्हें मरे हुए लोगों के कपडे पहनना चाहिए। उनके गहने लोहे के होने चाहिए। तमाम समाजशास्त्री अध्ययन दिखाते हैं कि आज भी दलितों की बस्तियां गाँव के बाहर दक्षिण दिशा में होती हैं। ऐसा माना जाता है कि मृत्यु के देवता यमराज दक्षिण में रहते हैं। वे अगर गाँव आयें तो उनकी पहली मुलाकात दलित से होगी। हो सकता है कि यमराज उसकी जान लेकर ही संतुष्ट हो जाएँ।

दलितों को क्या नाम दिया जाए, इस पर मनु कहते हैं, “शुद्र का नाम ऐसा होना चाहिए कि उसे सुन कर ही हिकारत का भाव आये।” प्रेमचंद के उपन्यासों में दलित पात्रों के नाम हैं दुखिया, गोबर, घीसू। सुपरहिट हिंदी फिल्म लगान में भी दलित पात्र का नाम था कचरा। ये थोड़े से उदाहरण हमें समझाने के लिए काफी हैं कि अम्बेडकर ने मनुस्मृति को क्यों जलाया होगा।

(लेखक : इतिहासकार, प्रोफेसर जामिया)

 

 

 

 

 

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