वैन जो बतौर एम्बुलेन्स आई उसमे पहले से ही चार लोग बैठे थे जिसमे एक टीबी का मरीज था और वो भी तब जब कोरोना फ़ैला है? ड्राईवर ने कहा एम्बुलेंस मिल गई ये कोई कम है?

वैन जो बतौर एम्बुलेन्स आई उसमे पहले से ही चार लोग बैठे थे जिसमे एक टीबी का मरीज था और वो भी तब जब कोरोना फ़ैला है? ड्राईवर ने कहा एम्बुलेंस मिल गई ये कोई कम है?
June 07 06:02 2020

अस्पताल बस कोरोना मरीज ही देखेंगेबीमारी

कोई भी हो मरना पड़ेगा कोरोना के नाम से ही…

ग्राउंड जीरो से विवेक कुमार की रिपोर्ट

 

कोरोना काल में क्या अन्य बीमारियाँ छुट्टी पर हैं? क्या हमने ये सोचने का प्रयास किया कि कोरोना काल के दौरान देशभर में रोजाना होने वाली लगभग 20 हजार मौतों का क्या हुआ? कैसे वे सभी मरने वाले यकायक रिकॉर्ड से और अन्य मरीज अस्पतालों से नदारद हो गए? इसे मजदूर मोर्चा की फरीदाबाद आधारित ग्राउंड रिपोर्ट से समझने का प्रयत्न करें।

 

30 मई की दोपहर 2.30 बजे 16 वर्षीय भोला का मेरे पास फोन आया। रोते हुए बोला कि भईया मम्मी को बीके अस्पताल की एमरजेंसी में लेकर आया हूँ पर यहाँ कोई इनको देख ही नहीं रहा। क्या हुआ है तुम्हारी मम्मी को? भोला के अनुसार वह फरीदाबाद के रिहायशी सेक्टर में साफ सफाई का काम करने वाली संतोषी (बदला हुआ नाम) को लेकर अपने घर बाई पास रोड जा रहा था। सडक़ पर अचानक एक गड्ढा आ जाने से भोला, माँ समेत स्कूटी से गिर गया। भोला को खास चोट नहीं आई पर उसकी माँ संतोषी के कंधे, आँख समेत सिर में चोट आई और वो बेहोश हो गई।

 

स्मार्ट अस्पताल की बदतमीज नर्स

आनन् फानन में स्मार्ट सिटी फरीदाबाद के स्मार्ट बादशाह खान अस्पताल संतोषी को लेकर पहुंचे। यहाँ पहुँचने पर टीटी का इंजेक्शन देने के बाद नर्स ने कहा सीटी स्कैन करवा लाओ पहले। सीटी करने के बाद भोला ने बताया कि उसको समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या करे। नर्स से कुछ पूछने पर वो इस तरह डांट रही थी कि मजबूरन आपको फोन किया। भोला ने लाउड स्पीकर पर नर्स से मेरी बात करवाने की कोशिश की ताकि समस्या को समझ सकें । परन्तु नर्स के नाम पर धब्बा लगाते हुए ड्यूटी नर्स ने चिल्लाते हुए बात करने से मना कर दिया। ‘मजदूर मोर्चा’ की टीम उसी समय अस्पताल के लिए निकल पड़ी।

बीके अस्पताल पहुँचने में हमे 35 मिनट का समय लगा। आपातकालीन वार्ड में पहुँचने पर पाया कि संतोषी एक  स्ट्रेचर पर पड़ी है। ड्यूटी नर्स से जब हमने उसके इलाज बाबत बात की तो उसने कहा जो कर सकते थे वो कर दिया। तो अब समस्या क्या आ रही है, नर्स ने कहा कि मुझे नहीं पता, 38 नम्बर में जाओ। जब हमने नर्स से कहा कि यही बात एक घंटा पहले इस बच्चे को भी तो बता सकती थीं आप, तो उन्होंने कहा बता दिया था इस लडक़े को, जिसका खंडन भोला ने पुरजोर तरीके से किया। इसके बाद नर्स उस किशोर बालक से तू-तड़ाक की भाषा में लडऩे लगी।

 

कोई बताने वाला नहीं

कमरा नंबर 38 में जाने पर डाक्टर ने सीटी रिपोर्ट मांगी जो अभी तक भोला के पास नहीं थी। गार्ड ने बताया कि जहाँ टेस्ट कराया था वहां से जाकर ले आओ। टेस्ट रिपोर्ट देते वक्त अस्पताल कर्मचारी ने कहा कि जल्दी अपनी माँ का इलाज करवाओ, इनके सिर में चोट है और ब्लीडिंग भी है। ऐसी स्थिति में जहाँ समय का बहुत महत्व है लेकिन इस अस्पताल में कोई व्यक्ति  नियुक्त नहीं किया गया है जो आने वाले गरीब और लगभग निरक्षर मरीजों का मार्गदर्शन करे। 38 नंबर कमरे में ड्यूटी पर बैठे डाक्टर ने कहा कि हमारे पास सर्जन की व्यवस्था नहीं है इसलिए सफदरजंग अस्पताल दिल्ली रैफर कर रहा हूँ, ये कहते हुए उन्होंने एम्बुलेंस के लिए लिखा।

 

आपदा में लोटने का एम्बुलेंस अवसर

आपातकालीन वार्ड से बाहर आकर एम्बुलेंस काउंटर से,जो एक कोने में है ढूंढ कर सफदरजंग अस्पताल के लिए एम्बुलेंस बुक की। बुकिंग कर्मचारी ने बताया कि 450 रुपये चार्ज लगेगा जो आपको ड्राईवर को ही देना होगा। इतने सीरियस केस में भी एम्बुलेंस जो सामने ही खड़ी थी को आने में 20 मिनट लगे, पर लूट का धंधा चालू रहा। ओमनी वैन जो बतौर एम्बुलेन्स आई उसमे पहले से ही चार लोग बैठे थे जिसमे एक टीबी का मरीज था। पूछने पर कि एक ही एम्बुलेन्स में सात लोगों को क्यों ले जा रहे हो और वो भी तब जब कोरोना महामारी व्यापक रूप से फैली हुई है, साथ ही एक मरीज टीबी जैसे संक्रामक रोग से भी पीडि़त है? हम पर खीझते हुए ड्राईवर ने कहा एम्बुलेंस मिल गई ये कोई कम है? जैसे ही ड्राइवर को समझ आया कि हम पत्रकार हैं,  तुरंत पैंतरा बदलते हुए फोन पर बात करने का सतही नाटक कर हमे बताया कि सर आपके मरीज के लिए दूसरी एम्बुलेंस अभी आ रही है।

जैसे-तैसे संतोषी को दिल्ली सफदरजंग अस्पताल पहुंचाया गया। डाक्टर ने सीटी स्कैन की रिपोर्ट देखने के बाद 15 दिन की दवा दे कर 15 दिन बाद बुलाया और कहा कि इस बीच कोई दिक्कत आये तो पास के अस्पताल में ही जाना।

 

मरीज बने फुटबाल

अगले ही दिन यानी 31 मई को संतोषी की हालत खराब होने लगी तो भोला और उसकी बहन रूबी जो एक फार्मा कम्पनी में कार्यरत है व ईएसआई कार्ड होल्डर भी है अपनी माँ को सेक्टर 8 फरीदाबाद के ईएसआई डिस्पेंसरी ले गए। सेक्टर आठ डिस्पेंसरी ने एनआईटी 3 वाले ईएसआई मैडिकल कॉलेज अस्पताल में भेजा और वहाँ भी घंटों धक्के खाने के बाद किसी तरह डाक्टर ने संतोषी को अटेंड किया और इतना ही कहा कि फिलहाल सर्जन नहीं है इसलिए परसों आना। मजबूरन ये बच्चे अपनी बुरे हाल माँ को किराये के ऑटो से लेकर वापस घर आ गए।

दो तारीख को दोबारा भोला घायल संतोषी को सेक्टर आठ की ईएसआई डिस्पेंसरी ले गया जहाँ से एनआईटी 3 यह कह कर जाने के लिए बोल दिया गया कि पहले वहीँ गए हो तो वहीं जाओ। भोला एनआईटी 3 की डिस्पेंसरी पहुंचा तो उसे गार्ड ने अन्दर जाने से रोक दिया। कारण बताया कि अबसे इस अस्पताल में केवल कोरोना के मामले ही देखे जाएंगे।

थक-हार कर भोला ने फिर मजदूर मोर्चा से संपर्क साधा। जब हमारी टीम अस्पताल पहुंची तो पाया कि आपातकालीन और ओपीडी वार्ड के गेटों पर लोग चौकीदारों से भीतर जाने की गुहार लगा रहे थे। जबकि चौकीदार उन्हें दीवारों पर चस्पा किये हुए ए-फोर शीट, जिनपर लिखा था कि “अस्पताल कोविद घोषित है”, दिखा कर विदा कर रहे थे।

भीतर न जाने का कारण मालूम चलने के बाद हमने अकादमिक ब्लाक में डिप्टी डीन डॉ अनिल पांडे से बात की। पाण्डेय ने बताया कि क्योंकि अस्पताल सोमवार यानी कि 30 मई को ही कोविड घोषित हो चुका है इसलिए अब उनके हाथ में कुछ नहीं। बेहतर होगा कि भोला दोबारा सेक्टर आठ की डिस्पेंसरी में ही अपनी माँ को ले जाए। साथ ही उन्होंने कहा कि यदि संतोषी एनआईटी की डिस्पेंसरी से ताल्लुक रखती है तो सीधे किसी प्राइवेट अस्पताल जो  पैनल में शामिल हो में ले जाएँ और हम उसका पैसा रिफंड कर देंगे। यदि सेक्टर आठ की डिस्पेंसरी से सम्बंधित मामला है तो आप उनसे पूछिए।

 

अस्पतालों को नहीं पता,उनका नाम और काम बदल गया

इसके बाद बाहर दो घंटे से धूप में ख ड़े ऑटो में लेटी संतोषी को भोला सेक्टर आठ डिस्पेंसरी ले आया। जब मजदूर मोर्चा की टीम ने ईएसआई सेक्टर आठ के डाक्टर से बात कर जानना चाहा कि क्यों संतोषी को यहाँ से दूसरी जगह भेजा गया जबकि एक दिन पहले ही वह अस्पताल कोविड घोषित है। डॉक्टर अरुण ने बताया कि इस बात की सूचना  उनके अस्पताल को आज ही मिली, इसलिए शायद संतोषी को भेज दिया। इसके बाद उन्होंने डाक्टर हरेंदर के पास भेज दिया।

डाक्टर हरेन्द्र ने रिपोर्ट देख कर बताया कि यूँ तो सब ठीक है, यदि उल्टी जैसी चीज न हो रही हो तो संतोषी ठीक है। फिर भी यदि आप निजी अस्पताल ले जाना चाहें तो आज का इंतजार कर लें। एमएस साहब अभी मीटिंग में गए हैं और शायद दोपहर तक हमारे पास प्रशासन से परमिशन आ जाए जिससे कि हम ऐसे मरीजों को निजी अस्पताल रैफर कर सकें। यदि आप बिना रैफर के जाना चाहे तो भी जा सकते हैं हम बाद में पैसे रिफंड कर देंगे।

 

ये सिर्फ यात्रा वृतांत नहीं

अब तक यह खबर एक यात्रा वृत्तांत ही लग रही है पर इस पूरे यात्रा वृतान्त में सरकार, प्रशासन और अस्पताल की अव्यवस्था परदे हटा-हटा कर झांक रही है, बशर्ते कोई देखे तो सही। पहले दिन से यदि देखें तो पाएँगे कि स्मार्ट अस्पताल के नाम पर जिस बीके अस्पताल पर करोड़ों खर्चे गए वहाँ न तो सर्जन है न ही उचित इलाज की व्यवस्था। इसके साथ ही ट्रेनिंग के नाम पर नर्स को सिर्फ अपना सफेद कोट पहनना ही सिखाया है शायद, किसी प्रोफेशनलिज्म नाम की चिडिय़ा को वे जानती ही नहीं।

सरकार और प्रशासन आदेश पे आदेश थोपते जा रहे हैं पर दो अस्पतालों के बीच में कोई सामंजस्य नहीं और इसका खामियाजा मरीज फुटबॉल बन कर भुगत रहा है। एक अस्पताल कहता है कि आदेश सोमवार को जारी हो गये, दूसरा कहता है कि मंगलवार की सुबह-सुबह ही आदेश प्राप्त हुए इसलिए मरीजों को असुविधा हुई।

 

सत्संग से काम चलाते चिकित्सक

अब सवाल है कि बीके अस्पताल के ऊपर जो जिला नागरिक अस्पताल लिखवाया हुआ है उसका अर्थ क्या है जब अस्पताल अपने नागरिक को इंसान ही नहीं मानता? साथ ही स्मार्ट से क्या मतलब है जब अस्पताल के पास मौके पर एक जरूरी सर्जन तक नहीं है। अस्पताल के एक स्टाफ ने भोला को कहा कि कोरोना के वक्त इतना अस्पताल में मत आओ जबकि यही बात सरकार भी रोज गा रही है। तो क्या सरकार बताएगी कि मोदी सरकार के गृह मंत्री अमित शाह क्यों अस्पताल में भर्ती थे? क्या लोग अस्पताल जाने के शौकीन हो रहे हैं इस महामारी में? जिसे सिर में चोट लगे वो क्या मंदिर जाये?

ऐसी ज्ञानवर्धक सत्संगी बातें करके आजकल चिकित्सक और जिले के डीएम् तक अपना काम चला ले रहे हैं। जबकि होना यह चाहिए था कि अस्पताल को कोविद घोषित होने के साथ ही उनमे आने वाले नियमति मरीजों की उचित व्यवस्था होनी चाहिए थी। तुगलकी  फरमानों को बांचने से पहले ईएसआई डिस्पेंसरियों को पॉवर होनी चाहिए थी कि वे अपने मरीज निजी अस्पताल में रैफर कर सकें (वैसे निजी से इतना मोह है तो डिस्पेंसरी को ही निजी कर दो)। व्यवस्था नहीं की तो कम से कम दो अस्पतालों को आपस में यह तो पता होना चाहिए था कि कौन सा अस्पताल कोविद घोषित है?

 

कोरोना ही जीओ कोरोना ही मरो

कोरोना काल में आईटी सेल के भ्रामक मीम तक को मात देने में खुद मोदी-खट्टर प्रशासन का कोई तोड़ नहीं, जो सुबह कुछ कहता है और शाम होते-होते अपने फैसले बदल लेता है और कुछ न मिले तो रात होते-होते बॉर्डर बंद कर देता है। इस बीच किसी को कुछ पता ही नहीं चलता कि कौन सा आदेश लागू हुआ है।

हाथी की मौत पर देश में चर्चे हैं, होने भी चाहिए पर इसके आगे सरकार कर क्या रही है? इंसानों के लिए कोई अस्पताल में चिकित्सक नहीं हैं और जो अस्पताल हैं उनको भी कोविड अस्पताल बना कर बाकी मरीजों को मरने के लिए छोड़ दिया गया है। ताली-थाली बजाने के बाद भाजपाई अब नया जुमला लाये हैं कि अब हमें कोरोना के साथ जीना सीखना होगा। पर कोई भाजपाई ये नहीं बोल रहा कि कोरोना के साथ जीना तो पता नहीं पर किसी भी वजह से मरना है तो भी कोरोना के नाम से ही मरना पड़ेगा वरना मरने के लिए कोई गुमनाम जगह ढूंढ लो।

view more articles

About Article Author

Mazdoor Morcha
Mazdoor Morcha

View More Articles