ट्रेड यूनियन आन्दोलन क्यों पिट रहा है?
सतीश कुमार
1960 से 70 के दशक बल्कि कई जगह 80 के दशक तक भी यूनियन बनाने को एक अपराध की तरह और उसके नेता को अपराधी की तरह देखा जाता था। कारखानेदार व पुलिस-प्रशासन ऐसे ‘अपराधियों’ से निपटने के लिये पूरी सख्ती का इस्तेमाल करते थे। ट्रेड यूनियन एक्ट आदि को ये लोग फिजूल की बात समझते थे। ऐसे में, यानी असंगठित मज़दूरों का कारखानेदार जी भर कर शोषण करते थे। वो जो चाहें मज़दूर के साथ करें, वह बोल नहीं सकता था। जरूरत पडऩे पर मालिकान कारखाने में ही मज़दूर को अच्छी तरह मार-पीट भी लेते थे। जाहिर है ऐसे निरंकुश शोषण व प्रताडऩा से मज़दूरों में आक्रोश का बढ़ावा स्वाभाविक था।
प्रकृति का नियम है जब-जब कोई चीज़ हद से आगे बढ़ जाती है तो उसके निवारण का उपाय भी निकलता है। इसी नियम के आधार पर भयंकर प्रताडऩा व जिल्लत भरी जि़ंदगी से तंग आकर कुछ मज़दूर संगठन खड़ा करने का प्रयास करते हैं। ऐसे में ये लोग प्रबन्धन की नज़रों से छिप कर, कारखानों से दूर कहीं गुप्त मीटिंग करते थे। प्रबन्धन के प्यादे शिकारी कुत्तों की तरह संगठनकर्ताओं की सूंघ लेते फिरते थे, शक के आधार पर कई मज़दूरों को टार्चर भी करते थे, लेकिन कोई भी अपना मुंह नहीं खोलता था। शक के आधार पर कई मज़दूरों की नौकरी भी चली जाती थी लेकिन फिर भी नेता का भेद नहीं खुलता था। । जब संगठन की नींव पड़ जाती तो कारखाने के भीतर बाथरूम कैंटीन आदि में छुप-छुप कर प्रबन्धन विरोधी नारे लिख दिये जाते तो प्रबन्धक और भी भडक़ जाते तथा मज़दूरों में जोश बढ़ने लगता।
जब संगठन पूरी तरह से मजबूत हो जाता तो गेट मीटिंग व प्रबन्धन से आमने-सामने की लड़ाई का एलान किया जाता। प्रबन्धन सरकार से मिल कर यूनियन को कुचलने का खुला खेल खेलती। कंपनी के गुंडे व सरकार की पुलिस जम कर मज़दूरों पर हमले करते, झूठे मुकदमे बनते, नौकरी से निकाल दिया जाता, श्रम विभाग मालिकान की दलाली करते हुए उन्हें हर तरह का कानूनी सहयोग देता। परन्तु यह कब मु$फ्त में तो नहीं हो जाता था। इस काम के लिये पुलिस तगड़ी वसूली करती, श्रम विभाग अपना हिस्सा वसूलता तथा राजनेताओं व बड़े प्रशासनिक अधिकारियों का तो कहना ही क्या। उधर इस उठा-पटक एवं झगड़-जंजाल में कंपनी के उत्पादन एवं मुनाफे का जो नुक्सान होता वह अलग से।
यह सब खेल खेलते हुए प्रबन्धकों को समझ आ गया कि ऐसे तो काम चलने वाला नहीं। मज़दूर आन्दोलन से निपटने के लिये उन्होंने ऐसी रणनीति खोज निकाली कि अब न तो उन्हें मज़दूरों से झगडऩा पड़ता है और न ही पुलिस व अन्य महकमों पर खर्च करना पड़ता है। इस नई नीति के अनुसार कारखाने की यूनियन को ‘जिम्मेदार’ यूनियन का खिताब दिया गया। यानी कि कारखाने में उत्पादन एवं उसकी ग्रोथ के लिये अकेले प्रबंधन नहीं बल्कि यूनियन भी जिम्मेदार होगी। उन्हें समझाया गया कि कारखाने में कुछ लाभ होगा तभी तो उन्हें मिल पायेगा।
जब कारखाना चलाने व उसे आगे बढाने का दायित्व ही यूनियन नेतृत्व पर आ गया तो उसे सुविधायें भी चाहियें थी। लिहाजा नेताओं को कम्पनी के भीतर काम न करने की छूट मिल गयी। शिफ्टों की बजाय दिन की ड्यूटी मिल गयी और तो और बैठने के लिये कम्पनी के भीतर तमाम सुविधाओं से लैश दफ्तर भी मिलने लगा। कहीं आने-जाने के लिये कार भी कम्पनी से मिलने लगी। कम्पनी मालिकान एवं मैनेजरों के साथ नेताओं की नजदीकियां बढने लगी। इस तरह की बढी हुई नज़दीकियों के आर्थिक लाभ भी नेतागण प्राप्त करने लगे।
यूनियन नेताओं को प्राप्त इन सुख-सुविधाओं ने आम मज़दूरों को भी नेता बनने के लिये आकृष्ट किया। परिणामस्वरूप नेता बनने के लिये मज़दूरों में होड़ लगने लगी। यह होड़ बढते-बढते इतनी बढ गई कि राजनीतिक दलों की भांति मज़दूर भी वोट पाने के लिये वही सब करने लगे जो राजनीतिक दलों के लोग सत्ता प्राप्त करने के लिये करते हैं।
(लेखक : मजदूर मोर्चा सम्पादक )