मीडिया की नहीं, राजनीतिक दलों की साख बचना जरूरी
यूसुफ किरमानी
आजतक न्यूज़ चैनल पर एंकर रोहित सरदाना के डिबेट कार्यक्रम के दौरान कांग्रेस प्रवक्ता राजीव त्यागी की मौत पर टीवी मीडिया के समूचे परिदृश्य पर बात करना ज़रूरी है। इस डिबेट शो में भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा मौजूद थे। कांग्रेस के कई नेताओं ने आरोप लगाया कि संबित पात्रा ने जिस तरह राजीव त्यागी को घेरा और जयचंद कहा, फिर त्यागी को रोहित सरदाना ने बोलने नहीं दिया, इसी वजह से राजीव त्यागी को दिल का दौरा पड़ा और उनकी मौत हो गई।
राजीव त्यागी की मौत पर जो सबसे पहला शब्द दिमाग आया, वह था – डिबेट लिंचिंग। यानी टीवी पर बहस के दौरान एंकर, सत्तारूढ़ पार्टी का प्रवक्ता और बाकी पैनलिस्ट एकतरफ़ हो जाते हैं और वे घेरकर गिरा देते है। विपक्ष के प्रवक्ता को न बोलने देते हैं न सवाल पूछने देते हैं। डिबेट शो के अंत में शो के बाहर सत्तारूढ़ पार्टी का प्रवक्ता एंकर की पीठ थपथपाकर चला जाता है।
लेकिन बात सिर्फ इतनी सी नहीं है। 2014 से पहले टीवी चैनलों पर डिबेट की स्थिति यह नहीं थी। उस वक्त जितने भी टीवी शो थे उनमें एक तरह की गरिमा बनी हुई थी और तब तक अरनब गोस्वामी की चीख चिल्लाहट शुरू नहीं हुई थी। लेकिन भाजपा जब केंद्र में सत्तारूढ़ हो गई तो टीवी मीडिया और डिबेट शो का परिदृश्य पूरी तरह बदल गया।
भाजपा या नरेंद्र मोदी ने जिन पूँजीपति घरानों के सहारे सत्ता पाई थी, उसने एक नेक्सस पहले ही बना लिया था। यानी गुजरात वायब्रेंट प्रोग्राम में जिन अंबानी, अडानी, टाटा, बिरला और महेंद्रा ने मोदी को बतौर प्रधानमंत्री आगे बढ़ाने की घोषणा की थी, उनके मुताबिक़ ही मोदी के स्थापित होने पर सबकुछ होना था। इसी क्रम में मुकेश अंबानी ने पूरा टीवी नेटवर्क 18 चैनल ही खऱीद लिया। इसके अलावा मुकेश अंबानी ने लगभग हर चैनल में हिस्सेदारी खऱीद ली।
चैनल मालिकों को समझा दिया गया कि टीवी चैनल चलाने के लिए जो पैसा चाहिए, वो सरकार अगर चाह ले तो नहीं मिलेगा। चैनल मालिकों को फ़ौरन ही समझ में आ गया कि अगर उन्होंने सरकार की सलाह को नहीं माना तो वे कंगाली की हालत में आ जाएँगे। चैनलों को समझा दिया गया कि वे रिपोर्टिंग पर पैसा ख़र्च करने की बजाय टीवी डिबेट करें। वहाँ हर पार्टी के नेताओं और प्रवक्ताओं को बुलायें। एंकर उस दिन का एजेंडा तय करे। देश में क्या हो रहा है, क्या होने वाला है, उसकी चिन्ता छोड़ दें। चैनलों और एंकरों को समझ में आ गया। हालात ये हैं कि अब सरकार जो एजेंडा तय करती है, टीवी चैनल उसी पर या उसके इर्द-गिर्द ही बहस कराते हैं। तमाम टीवी एंकर सरकारी एजेंटों के संपर्क में रहते हैं। टीवी चैनलों पर हिन्दू-मुसलमान की बहस 2014 से अभी तक यूं ही जारी नहीं है। हर चैनल पर सत्तारूढ़ दल के मुताबिक पेड मुस्लिम मौलाना इन सारे शो में बुलाये जाते हैं जो मात्र पांच हजार का लिफाफा पकडक़र सरकार के अनुकूल बहस करते हैं या जुमले उछालते हैं।
हाल ही में देश में कई घटनाएं हुईं जो टीवी चैनलों पर उठनी चाहिए थीं या टीवी चैनल अपने रिपोर्टरों से उसकी पड़ताल कराते लेकिन चैनलों की रुचि ऐक्टर सुशांत सिंह राजपूत की मौत को रहस्यमय बनाये रखने में है। उसकी दिलचस्पी बुलंदशहर में छेडख़ानी के बाद हादसे में मारी गई होनहार सुदीक्षा भाटी के बारे में नहीं है।
इसलिए राजीव त्यागी की मौत के लिए अकेले किसी एंकर या चैनल को जिम्मेदार ठहराने की बजाय हर राजनीतिक दल और हर चैनल को उस मौत के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। टीवी पर राजनीतिक बहसों का जो स्तर गिरा, उसके लिए भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस भी जिम्मेदार है। क्यों नहीं कांग्रेस ने अपने प्रवक्ताओं के चैनलों पर जाने पर रोक लगाई, कांग्रेस का नाम लेकर चैनलों पर जाने वाले छुटभैया नेताओं पर कार्रवाई क्यों नहीं की गई। बीच में कांग्रेस ने अपने प्रवक्ताओं के जाने पर रोक लगाई थी लेकिन अब फिर से उस अनुमति मिल गई थी। वामपंथी दलों के नेताओं को कोई भी चैनल नहीं बुलाता लेकिन अगर गलती से कोई चैनल बुला भी लेता है तो वे अपनी बात इस तरह से रखकर जाते हैं कि एंकर और सत्तारूढ़ दल के एजेंट उनका मुंह देखते रह जाते हैं।
मीडिया की साख टीवी चैनलों और फेक न्यूज की वजह से खत्म हो चुकी है। कम से कम कांग्रेस समेत सभी राजनीतिक दल अपनी साख बचा लें। वो मीडिया को उसके हाल पर छोड़ दें। उनका खुमार जब जनता उतारेगी तब उतारेगी। लेकिन राजनीतिक दलों की साख बचना ज्यादा जरूरी है।
संज्ञान: दिल्ली हिंसा पर खबर कवर करने गए द करवां के पत्रकारों पर भगवा गुंडों ने जानलेवा हमला किया। एडिटर्स गिल्ड आफ इंडिया ने उस घटना की निन्दा तक नहीं की।
(हिन्दीवाणी के संपादक और राजनीतिक विश्लेषक )