राजनीतिक पुलिसिंग में सर के बल खड़ा होता है कानून

राजनीतिक पुलिसिंग में सर के बल खड़ा होता है कानून
September 26 12:47 2020

 

विकास नारायण राय 

(पूर्व डायरेक्टर, नेशनल पुलिस अकादमी, हैदराबाद)

समाज में यह आशंका आये दिन साक्षात दिख जायेगी कि पुलिस द्वारा कानून का तिरस्कार कहीं नागरिकों द्वारा पुलिस के तिरस्कार में न बदल जाए। लोकतांत्रिक आन्दोलन से एक विभाजक शासन का आमना-सामना होने पर पुलिस के लिए इस कसौटी पर खरा उतरने की चुनौती और भी बढ़ जाती है। उसे अपने पेशेवर आचरण के मीन-मेख के साथ-साथ सत्ता पक्ष के राजनीतिक दबाव की छान-बीन से भी गुजरना होता है। मसलन, तमाम जानकार हलको में दिल्ली दंगे के पुलिस निष्कर्षों को कानून को सर के बल खड़ा करने जैसा बताया जा रहा है। राजनीतिक पुलिसिंग का ऐसा बेशर्म आयाम बेशक इस व्यापक पैमाने पर रोज न भी दिखे लेकिन इसमें नया कुछ नहीं।

आम नागरिक प्राय: कानून का पालन करना चाहेगा। इसके लिए कानूनों का सहज और स्पष्ट होना सभी के लिए फायदेमंद है। पुलिसवालों ने, जिनके कंधों पर कानून-व्यवस्था को लागू कराने का भार होता है, कानून पढ़ा होता है, आम नागरिक ने नहीं। इसलिए, पुलिस पर आयद है कि कानून पालना की कवायद को यथासंभव एक-सार और सुगम रखा जाए जिससे लोगों के मन में किसी भ्रान्ति की गुंजाइश न रहे। यह समीकरण वैसे ही है जैसे किसी चौक पर यदि लाल बत्ती के जलने-बुझने के सामान्य क्रम में गड़बड़ी आ जाए तो वहां यातायात में अफरा-तफरी मच जाना स्वाभाविक है।

बड़ोदरा, गुजरात में 29 वर्षीय ड्राइवर शैलेश वनकर 15 सितंबर रात काम के बाद हर रोज की तरह मोटर साइकिल से वापस अपने गाँव जा रहा था। अँधेरे में उसकी मोटर साइकिल सडक़ के बीच सो रही गाय से टकरा गयी और इस दुर्घटना में आयी गंभीर चोटों से उसकी अस्पताल में मृत्यु हो गयी। वह चार भाई-बहनों में सबसे छोटा था। लेकिन अगले दिन पुलिस ने उसी के खिलाफ लापरवाही से ड्राइविंग का मुकदमा दर्ज कर दिया जबकि गुजरात पुलिस एक्ट की धारा 90 ए के मुताबिक पशु को इस तरह सडक़ पर छोडऩा अपराध है। वड़ोदरा म्युनिसिपल कारपोरेशन के स्वास्थ्य अधिकारी आवारा छोड़े गए पशु मालिकों के विरुद्ध मुकदमे दर्ज भी कराते आये हैं। तब फिर पुलिस ने शैलेश के मामले में उलटी गंगा क्यों बहायी? क्या इससे कानून की पालना को लेकर नागरिकों के मन में असमंजस की स्थिति नहीं बनेगी?

जाहिर है, उपरोक्त वड़ोदरा प्रसंग में स्थानीय पुलिस किसी न किसी तरह के दबाव में काम कर रही होगी। लेकिन कानून लागू करने वाली एजेंसी के लिए यह आदर्श स्थिति नहीं कही जायेगी।  ऐसे ही रोजमर्रा के उदाहरणों से बाद में पुलिस के नागरिकों से टकराव के रास्ते निकलते हैं न कि उनसे सहयोग मिल पाने के। पुलिस के लिए कानून का मखौल उड़ाना अंतत: स्वयं अपना मखौल उड़ाना ही बन जाता है।

क्या आज किसान आंदोलनकर्ताओं के खिलाफ़ भी शासन की ओर से वैसे ही तिरस्कार युक्त तर्क नहीं दिए जा रहे हैं जैसे गुजरी सर्दियों में नागरिकता संशोधन कानून आंदोलन में शामिल लोगों के खिलाफ़ हुआ करते थे? अब आंदोलित किसानों को ‘गुमराह’ से ‘राष्ट्रद्रोही’ तक बताया जा रहा है, तब आंदोलित मुसलमानों को सम्बोधित करने के लिए भी ऐसे ही विशेषण इस्तेमाल होते थे। यानी, क्या पुलिस एक बार फिर राजनीति और कानून के दोराहे पर नजर आएगी?

फिलहाल चल रहे किसान आंदोलन में सडक़ें भी रोकी गयी हैं और छिट-पुट हिंसा भी हुयी है। इस पहलू पर मोदी राज के पक्ष में सर्वाधिक वोकल रही फिल्म स्टार कंगना रनौत का बयान दिल्ली पुलिस को नंगा करने जैसा ही समझिए। जिस कदर सतही और लोकतंत्र विरोधी कंगना का बयान है, उसी टक्कर का राजनीतिक धक्केशाही वाला आचरण दिल्ली दंगों के दौरान और सम्बंधित केसों के इन्वेस्टीगेशन में दिल्ली पुलिस का भी रहा है।

कंगना के मुताबिक़ जो भी मोदी सरकार द्वारा पारित तीन किसान ऐक्ट का मुखर विरोध कर रहा है, वह आतंकवादी हुआ और उसका यूएपीए में चालान किया जाना चाहिए। यानी, कहीं यदि आन्दोलन में कोई हिंसा हो जाए तो राजनीतिक विरोधियों को भी षड्यंत्रकारी बनाकर बाँध दो! दिल्ली पुलिस ने भी फऱवरी दंगों के मामलों में यही तो किया जब हिंसक दंगाइयों पर कार्यवाही से इतर उन्होंने सीएए-एनआरसी का मुखर विरोध करते आ रहे तमाम ऐक्टिविस्ट को भी षड्यंत्र की झूठी कहानी गढ़ कर दंगों से नत्थी कर दिया।  ऐसा भी नहीं कि कंगना रनौत के कहे ने किसी बहुत बड़े रहस्य से पर्दा उठाया हो। अमित शाह निर्देशित पुलिस के राजनीतिक इस्तेमाल का यह शैतानी आयाम जाहिर तो था ही और इसे लेकर तमाम जागरूक नागरिकों, समाजकर्मियों,  कानूनविदों ही नहीं स्वयं वरिष्ठ पुलिसकर्मियों के बीच भी दिल्ली पुलिस की कड़ी आलोचना चलती रही है। लेकिन बिहार चुनाव के सुशांत सिंह राजपूत अध्याय में भाजपा रणनीति का मुखौटा बन कर उभरी कंगना रनौत के वोकल होने ने पुलिस के राजनीतिक इस्तेमाल के उसके मंसूबे चौड़े में जग-जाहिर कर दिए।

मोदी सरकार ने लोकसभा में माना है कि लॉकडाउन में मार्च से जून के बीच एक करोड़ से ऊपर श्रमिक अपने घरों को लौटे। इसके चलते 80 हज़ार से ऊपर दुर्घटना हुयीं जिनमें 29 हज़ार से अधिक लोगों ने जान गँवायी। वस्तुत: यह ऐतिहासिक त्रासदी लॉकडाउन और सरकारी हठधर्मिता की विफलता का ही ढिंढोरा थी। यानी, कानून को सिर के बल खड़ा करने से उस दौर में भी कुछ हासिल नहीं हुआ था।

भाजपा की संकीर्ण राजनीति को पोसने में पुलिस को झोंकने की महँगी कीमत पूरे देश को चुकानी पड़ेगी। फऱवरी के दिल्ली दंगों ने एक अल्पसंख्यक लोकतांत्रिक आंदोलन के राजनीतिक दमन के दूरगामी परिणामों की ओर चेताया था; अब किसान और श्रमिक वर्गों के आंदोलित होने की बारी है। देर-सवेर इनके निहितार्थ भी हमारे सामने आएँगे।

 

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Mazdoor Morcha
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