मज़दूर का उद्योगपति और सरकार से संघर्ष का सक्षिप्त इतिहास…

मज़दूर का उद्योगपति और सरकार से संघर्ष का  सक्षिप्त इतिहास…
August 20 03:33 2020

ट्रेड यूनियन: एक डूबता हुआ आंदोलन

सतीश कुमार

औद्योगिक मज़दूरों ने अपने हितों की रक्षा एवं सुविधाओं में बढोतरी के साथ-साथ अपनी नौकरी की सुरक्षा के लिये संगठित होकर जो यूनियने बना कर आन्दोलन किये उसे ट्रेड यूनियन का नाम दिया गया। अंग्रेजी हुकूमत व पूंजीपतियों के कठोर शिकंजों के बावजूद देश के बड़े औद्योगिक केंद्रों, कलकत्ता, बंबई व कानपुर जैसे बड़े नगरों में औद्योगिक मज़दूरों ने अपनी जान की बाज़ी लगा कर बहुत बड़े ट्रेड यूनियन आन्दोलन खड़े कर दिये थे। उन्हीं आन्दोलनों की वजह से पहले अंग्रेजी हुकूमत और फिर देशी हुकूमत को औद्योगिक मज़दूरों से सम्बन्धित अनेकों एक्ट बनाने पड़े।

इतिहास में बहुत ज़्यादा पीछे न जाते हुए भी थोड़ा सा इतिहास जानना बहुत जरूरी है। सन 1920 में बम्बई स्थित कुछ कारखानों के मज़दूरों ने हड़ताल कर दी। उद्योगपतियों के गुंडों व पुलिस ने मज़दूरों पर खुले अत्याचार किये। उस वक्त सात मज़दूर नेताओं को हड़ताल कराने का दोषी ठहरा कर दस हजार रुपये  का जुर्माना लगा दिया। उस वक्त के कानून के अनुसार हड़ताल से हुई क्षतिपूर्ति, इसके लिये जिम्मेदार लोगों से करने का प्रावधान था। वैसे यह प्रावधान अभी भी कानून की किताब से मिटाया नहीं गया है; वह बात अलग है कि इस प्रावधान को प्रयोग में नहीं लाया जाता। जाहिर है दो-चार रुपये मासिक वेतन पाने वाले मज़दूर भला इतना भारी जुर्माना कैसे अदा कर सकते थे, लिहाज़ा उन्हें जेल में डाल दिया गया। लेकिन इसके बावजूद भी उद्योगपतियों के क्रूर शोषण के विरुद्ध मज़दूर आन्दोलन थमना तो दूर बल्कि और तीव्र से तीव्रतर होता चला गया। मजबूर होकर सरकार ने मज़दूरों की मांगें मानने का सिलसिला शुरू किया।

इस कड़ी में सबसे पहले 1923 में मुआवज़ा अधिनियम, 1926 में ट्रेड यूनियन अधिनियम बनाया गया। इस एक्ट के द्वारा मज़दूरों को अपनी यूनियन बनाने व उसे पंजीकृत कराने का अधिकार दिया गया। जाहिर है इसके लिये बाकायदा श्रम विभाग की स्थापना की गयी। मज़दूरों को समय पर पूरा वेतन मिले इसके लिये 1936 में वेतन भुगतान एक्ट लाया गया। इसके बाद 1946 में औद्योगिक नौकरी अधिनियम बनाया गया जिसके द्वारा कारखानों में नौकरी सम्बन्धी नियम व शर्तों का विवरण दिया गया है। इसके बाद 1947 में औद्योगिक विवाद अधिनियम बनाया गया जिसके द्वारा नौकरी से निकाले जाने से लेकर हर तरह के विवाद को सुलझाने के नियम बताये गये हैं। कारखानों में काम करते समय मज़दूरों की सुरक्षा एवं स्वास्थ्य के लिये आवश्यक नियमों को लागू कराने के लिये 1948 में कारखाना अधिनियम बनाया गया। इसी के साथ 1948 में ईएसआई एक्ट बनाया गया जो 1952 में लागू किया गया। इसी साल भविष्य निधि एक्ट भी लागू किया गया। 1965 में बोनस एक्ट लाया गया। पांच साल की नौकरी पूरी कर लेने वाले को ग्रेच्यूटी देने के लिये 1972 में ग्रेच्यूटी एक्ट लाया गया।

मज़दूरों के अधिकारों एवं हितों की रक्षा के लिये 1923 से लेकर 1972 तक कई एक्ट बनाये गये। सवाल उठता है कि ये सभी कानून एक ही दिन में क्यों नहीं बना दिये गये, इन्हें बनाने में इतना समय क्यों लगा? दरअसल उद्योगपति व उनके द्वारा चलाई जा रही सरकारें श्रमिकों  को कभी भी कुछ देने को राज़ी नहीं थीं। यह तो उनकी मजबूरी थी कि जब भी संगठित मज़दूरों एवं ट्रेड यूनियनों का दबाव असहनीय हो जाता था तो उन्हें कुछ न कुछ देना पड़ता था। यही है देश भर के मज़दूर अथवा ट्रेड यूनियन आन्दोलन के सतत संघर्ष की संक्षिप्त कहानी। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि मज़दूरों ने लड़-मर कर, बेतहाशा कुर्बानियां देकर बीती एक सदी में जो कुछ हासिल किया था वह दिन-ब-दिन मज़दूर के हाथ से निकलता जा रहा है।

ट्रेड यूनियन आंदोलन कमजोर होने के चलते सरकार अब तक बने मज़दूर हितैषी कानूनों एवं प्रावधानों को तो ठंडे बस्ते में रख भी चुकी है, साथ ही नये-नये मज़दूर विरोधी कानून भी लाने जा रही है। जिन कड़े संघर्षों के बदौलत मज़दूरों ने आठ घंटे की ड्यूटी का प्रावधान कराया था वह अब 12-16 घंटे तक होता जा रहा है। कारखानों में अब न तो मज़दूरों की जान की कोई सुरक्षा रह गई है और न ही नौकरी की गारंटी। ट्रेड यूनियन एक्ट सहित लगभग सभी एक्ट अब एक मजाक बन कर रह गये हैं। यह केवल लाइब्रेरियों में रखी किताबों की शोभा बनकर रह गये हैं।

दरअसल, इसके लिये सरकार अथवा कारखानेदारों  को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। क्योंकि कारखानेदार का तो लक्ष्य ही अधिक से अधिक मुनाफा कमाने के लिये, मज़दूर का अधिक से अधिक शोषण करना होता है। रही बात सरकार की, तो वह वोट तो बेशक मज़दूरों का ही लेती है लेकिन उस वोट को पाने के लिये जो भारी-भरकम खर्च होता है, वह उद्योगपतियों की ही तिजोरी से निकल कर ही आता है। ऐसे में भला सरकार उद्योपतियों को छोडक़र मज़दूरों के हितों को कैसे साध सकती है? जाहिर है कि ऐसे में सरकार उद्योगपतियों के हाथ की कठपुतली ही रहेगी।

(अगले अंक में आन्दोलन की कमजोरी का कारण)    

 

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Mazdoor Morcha
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