मैं ट्रेड यूनियन आन्दोलन से कैसे जुड़ा
सतीश कुमार
कॉलेज की पढाई के दौरान विभिन्न राजनीतिक विचारकों को पढने का मौका मिला। इनमें सबसे अधिक प्रभाव पड़ा कार्ल मार्क्स व लेनिन का। इसके साथ-साथ पढाने वाले प्रोफेसर साहेबान भी जिस तरह राजनीति शास्त्र पढाते थे उसका भी युवा दिलों-दिमाग पर खासा प्रभाव पड़ा। विचारकों के साथ-साथ भारत अमेरिका, इंग्लैंड, चीन, रूस व स्विटज़रलैंड आदि देशों के संविधान पढने का भी अवसर मिला। इन सबके साथ अन्य वामपंथी साहित्य में भी रुचि बढ़ती गयी। शोषक और शोषित वर्ग की परिभाषा दिमाग में बैठती चली गयी। वामपंथी झुकाव होने के चलते पहले करनाल फिर हिसार के वामपंथी नेताओं-कार्यकर्ताओं से मेल-जोल बढता गया जो सक्रिय सहयोग तक पहुंच गया। छात्र जीवन में सीखी-समझी राजनीति को अमली जामा पहनाने के लिये ट्रेड यूनियन फ्रंट पर काम करने का निर्णय लिया और पहली जनवरी 1975 को बल्लबगढ स्थित बहुराष्ट्रीय अमेरिकी कम्पनी गुडईयर में 10 रुपये दैनिक मज़दूरी पर भर्ती हो गया। काम था रबड़ व कार्बन ढोने का। काम बेशक सख्त व प्रदूषित था, लेकिन उससे भी कठिन सामाजिक व पारिवारिक परिस्थितियों से जूझना था क्योंकि पिता जी व चाचाजी दोनों ही प्रशासनिक पदों पर नियुक्त थे। नौकरी मैं करता था, 25 रु. मासिक किराये की कोठरी में मैं रहता था, परेशान दूसरे लोग रहते थे कि मैं यह नौकरी क्यों कर रहा हूं? कोई और सरकारी नौकरी क्यों नहीं पकड़ी आदि-आदि?
दरअसल मेरे लिये ट्रेड यूनियन को समझने व सक्रिय भागीदारी करने के लिये खुद मज़दूर बनना जरूरी था। मैं आज भी यह महसूस करता हूं कि खुद मज़दूर बने बगैर मज़दूर वर्ग के जीवन, उसकी कठिनाइयों आदि को समझना मुमकिन नहीं। मज़दूर बन कर ही मैंने समझा कि सर्द रात में 12 बजे ड्यूटी पर जाना क्या होता है या रात एक बजे काम से लौटना व फिर से शाम चार बजे ड्यूटी पर जाना कैसा होता है। यह सिलसिला आंधी-बारिश जैसी किसी भी परिस्थिति में टाला नहीं जा सकता क्योंकि टालने का मतलब नौकरी पर संकट गहराना होता है।
फैक्ट्री के भीतर प्रदूषित वातावरण के साथ-साथ काम का दबाव तो रहता ही है साथ में सुपरवाइज़र व मैनेज़र की बदतमीजियां भी सहनी पड़ती हैं। न चाहते हुए भी, आठ घंटे हाडतोड़ काम करने के बाद जब अगले आठ घंटे ओवर टाइम का आदेश मिलता था तो मुसीबत का पहाड़ सा टूट पड़ता था। मुझ जैसे नये लडक़ों को ओवर टाइम पर रोकना कम्पनी के लिये बहुत अधिक फायदेमंद होता था क्योंकि एक तो डबल रेट की बजाय सिंगल रेट से पेमेंट करनी पड़ती थी यानी मात्र 20 रुपये में दोनों शिफ्ट करा लेते थे दूसरे हम जैसों पर काम का बोझ भी मनचाहा लादते थे जबकि पुराने श्रमिकों की दिहाड़ी 20 से 25 रु. होती थी और ओवर टाइम डबल रेट से देना पड़ता था यानी 40-50 रु. में पड़ता था।
उस जमाने में काम बहुत सख्त और फैक्ट्री का वातावरण अति प्रदूषित होता था। रबड़ गलाने व उसमें रसायन मिलाने की प्रक्रिया में धुंआ और बदबू तो होती ही थी साथ में अति महीन कार्बन भी हवा में मिला रहता था, परिणामस्वरूप थूकने के साथ भी कार्बन बाहर आता था। काम के बाद नहाने में आधा घंटा लगना मामूली बात थी। लाइफबॉय साबुन की एक चक्की बमुश्किल एक सप्ताह ही चल पाती थी, शुकर यह था कि यह चक्की हर सप्ताह मिल जाया करती थी। एक विभाग ऐसा भी था जहां टायर पकते थे। इसके लिये स्टीम प्रेस लगी थीं। इस विभाग का तापमान 70 डिग्री सेंटिगे्रड तक पहुंच जाया करता था। सोचिये गर्मियों में यहां काम करने वालों की हालत क्या होती होगी? टायरा पकाने वाले मज़दूर खुद भी पक जाते थे।
कम्पनी के नियम बहुत कड़े थे, एक मिनट लेट होने पर आधे घंटे का वेतन कट जाता था। आधा घंटा लेट होने पर गेट से ही वापस भगा दिया जाता था। सुपरवाइज़र की ज़रा सी शिकायत पर नौकरी से निकाल दिया जाना बड़ी आम सी बात थी। घरेलू जांच करके निकालने का नाटक तो यदा-कदा ही होता था। यूनियन के नाम पर इन्टक सम्बन्धित कुछ सरकरदा मज़दूर अवश्य सक्रिय थे, लेकिन मज़दूरों के बीच उनकी विश्वसनीयता न के बराबर थी।
मेरे देखते-देखते एक मज़दूर पर सुपरवाइज़र ने गाली देने का आरोप लगाया। कम्पनी ने उससे जवाब-तलब किया तो यूनियन वालों ने उसका जो जवाब बना कर दिया वह ऐसा था जैसे मैनेजमेंट ने ही लिखवाया हो, लिहाजा उसे निकाल बाहर किया गया। यदि उसका जवाब ठीक से लिखा गया होता तो वह नौकरी से हाथ न धोता। इस तरह अनेकों हरकतें यूनियन की देखकर मैं काफी सचेत हो चुका था, जब मैं मज़दूर बना ही ट्रेड यूनियन समझने के लिये था तो मुझे तो सचेत होना ही था।
1975 के अन्त तक आते-आते मैं कन्फर्म मज़दूर हो चुका था यानी मेरी नौकरी को एक कानूनी सुरक्षा कवच मिल गया। वह बात अलग है कि इस कवच की कोई खास परवाह कम्पनी करती नहीं थी। जितने भी मज़दूर बाहर निकाले जाते थे वे सब इस कवच के बावजूद ही निकाले जाते थे। कारण एक ही था कि उस कवच में कम्पनी यूनियन के माध्यम से सेंधमारी कर लेती थी। मेरे ऊपर भी सेंधमारी करने का एक मौका जल्द ही आ गया लेकिन मैंने बड़ी होशियारी से यूनियन को सेंधमारी से रोकते हुए खुद ही अपने कानूनी अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए अपनी नौकरी को बचाया। हुआ कुछ यूं था कि थोड़ा बीमार होने पर मैं सेक्टर सात की ईएसआई डिस्पेंसरी गया वहाँ मौजूद दो महिला डॉक्टरों जो मज़दूरों से दुर्व्यवहार करने की आदि थी, से मैं भिड़ गया। मेरे सवाल-जवाब से इन्चार्ज डॉक्टर बुरी तरह से बौखला गयी और बौखलाहट में उसने मेरी पर्ची पर एक लाइन लिखी और काट दी, फिर दूसरी लिखी और काट दी; उसके बाद कुछ और लिख कर अपने आप को कानूनी जाल में फंसा लिया। अपने बचाव में तथा मुझ पर दबाव डालने के लिये उसने कम्पनी में मेरी शिकायत कर दी। कम्पनी तो पहले ही तलवार पर धार लगाये बैठी थी, शिकायत मिलते ही सस्पेंड कर दिया।
कम्पनी के इस मूर्खतापूर्ण आदेश पर मैं तो खुश था कि चलो कुछ दिन माहौल बदलने के लिये गांव चले। उधर प्लांट के मज़दूरों व यूनियन ने समझ लिया था कि अब तो इसकी नौकरी गयी।
यूनियन नेता मेरी ‘मदद’ करने के नाम पर मुझे ढूंढते रहे। मदद के नाम पर उन्होंने कम्पनी के उस नोटिस का जवाब लिखवाना था जो मुझे दिया गया था। लेकिन मैं तो सचेत था। यूनियन नेताओं से सामना होने के पहले ही मैं अपना जवाब दाखिल कर चुका था। जवाब बड़ा ही माकुल था व सटीक था, इस पर उस वक्त के ईएसआई मेडिकल सुपरिटेंडेंट ने भी अपनी जांच बैठाई और मुझे निर्दोष पाया। कम्पनी मुंह ताकती रह गई। मुझे 15 दिन के बाद पूरे वेतन सहित काम पर बहाल कर दिया गया। कम्पनी में ये पहली घटना थी कि कोई मज़दूर इस तरह से लौट कर काम पर आये। पूरे प्लांट में यह खबर आग की तरह फैल गई।
(सम्पादक मज़दूर मोर्चा)