भारत छोड़ो आन्दोलन की कीमत पर मोदी सरकार ने मूलनिवासी दिवस के भ्रामक प्रचार की मुहिम चलाई …

भारत छोड़ो आन्दोलन की कीमत पर मोदी सरकार ने मूलनिवासी दिवस के भ्रामक प्रचार की मुहिम चलाई …
August 15 07:10 2020

विवेक कुमार  का लेख

9 अगस्त 1942 भारत छोड़ो आन्दोलन की शुरुआत और इस दिन को भारतीय इतिहास में मिले ऊंचे दर्जे को कम करने के लिए मोदी सरकार ने लगभग सभी राष्ट्रीय अखबारों में अंतर्राष्ट्रीय मूल निवासी दिवस के फुल साइज़ पन्ने वाले विज्ञापन बांटे| जाहिर है आज़ादी के लड़ाई में बतौर गद्दार शामिल हुए संघी सरकार का एजेंडा और क्या हो सकता है| मूलनिवासी दिवस को बड़े स्तर पर प्रचारित करना एक स्वागतयोग्य कदम है जिसे भारत छोड़ो आन्दोलन दिवस के साथ भी इतने ही बड़े स्तर पर अख़बारों में मनाया जा सकता था|

खैर, जब बात अंतर्राष्ट्रीय मूलनिवासी दिवस की है तो क्यों न इसे हर कसौटी पर कस कर मोदी जी की भावना को ज़रा कस लिया जाए|

यूएनडीआरआईपी नाम से बने एक मसौदे को 22 सालों की जद्दोजहद के बाद यूएन जनरल असेम्बली ने 13 सितम्बर 2007 को आत्मसात किया| मात्र चार देशों अमेरिका, कनाडा, न्यूजीलैंड, और ऑस्ट्रेलिया को छोड़कर भारत समेत 144 देशों ने इसकी शर्तों पर हस्ताक्षर किये| इस मसौदे में मूलनिवासियों के लिए कुल 46 अधिकारों का प्रावधान है जिनमे मुख्य पांच प्रावधानों में आर्टिकल 4-आतंरिक व् स्थानीय मामलों में आत्मनिर्भरता का अधिकार, आर्टिकल 5- राजनीतिक, और सांस्कृतिक मामलों में संस्था गठन का अधिकार, आर्टिकल 14- अपनी शैक्षणिक व्यवस्था बनाने का अधिकार जिसमे सरकारें उनकी मदद करेंगी, आर्टिकल 16 अपनी जबान में मीडिया बनाने और हर मीडिया हाउस में बिना भेदभाव पहुँच का अधिकार जिसे सरकार सुनिश्चित करवाए और आर्टिकल 30 कहता है कि आदिवासी इलाकों में कोई सैन्य गतिविधि नहीं होगी|

हालाकि यूएन के नियम बाध्यकारी नहीं हैं पर 144 देशों ने अपने राष्ट्र प्रतिनिधियों को महंगे नाश्ते और कबाब खिला, मोटा खर्चा कर ही दिया तो नैतिकता स्वरुप ही कम से कम कुछ लाज तो अपने ही खर्च की रखी जाती, जबकि ऐसा नहीं हुआ| इससे बेहतर तो वे देश थे जिन्होंने इस मसौदे को मानने से साफ़ मना कर दिया| भारत जैसे देश जिसके संविधान में आदिवासियों के लिए कई प्रावधान मौजूद हैं, ने यूपीए सरकार में वाह-वाही के लिए इसपर दस्तखत तो ज़रूर किये पर न खुद कांग्रेस ने इसे लागू कराया और मोदी ने तो इसपर विचार करना भी अपनी शान और सोच के खिलाफ समझा|

भारतीय संविधान की पांचवीं अनुसूची में आदिवासी बाहुल्य इलाकों की पहचान की गई है और वहां रहने वाले आदिवासियों को कई विशेषाधिकार दिए गए हैं जैसे कि आदिवासी सलाह परिषद् का गठन जो आदिवासी अधिकारों से जुडी सलाह राज्यपाल को देंगे और इसी माध्यम से राष्ट्रपति तक भी सलाह पहुंचेगी जिसपर वह आदेश लागू करवा सकता है| आर्टिकल 29-30 भारतीय संविधान में अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा का अधिकार भी देते हैं| 1996 में पेसा कानून बना जो पांचवी अनुसूची के दायरे में रहने वाले आदिवासियों को कई पंचायती अधिकार प्रदान करता है| 2006 में एक वन अधिकार कानून भी बना जिसके तहत जंगल में खेती, लकड़ी बीनने जैसे कई हक़ दिए गए|

इन सबके बावजूद आदिवासियों के ज़मीनी हालत बद से बदतर होते गए हैं| दरअसल यह सभी अधिकार सजावटी गुलदस्ते बन कर रह गए हैं| आदिवासी हक़ में बने यूएनड्रिप और भारतीय संविधान व् अन्य विशेषाधिकारों के उलट भारत में यदि सीमवर्ती इलाकों को छोड़ दें तो आदिवासी इलाकों में ही सबसे अधिक सैन्य गतिविधियाँ होती हैं, जो पूंजीपतियों द्वारा की जाने वाली खनिज की लूट को सुचारु बनाते हैं| साथ ही आज तक भारत की मुख्य मीडिया में कोई भी आदिवासी मीडिया या किसी मुख्य मीडिया में उनका स्थान नहीं बना है| स्वशासन का अधिकार भी एक मजाक बन कर रह गया है| शिक्षा व्यवस्था के नाम पर मूलनिवासियों को क्या मिला ये किसी से छिपा नहीं है| आरक्षण के माध्यम से जो प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने का काम सरकार का था उसी आरक्षण को सरकार तोड़-मोड़ के समाप्त भी कर रही है|

सरकार को अत्याचार में पीछे छोड़ते हुए सुप्रीम कोर्ट ने मिली भगत से अपने एक आदेश में आदिवासियों को जंगल से बेदखल करने का फरमान जारी कर दिया जिसका असर लगभग 11 लाख आदिवासियों पर पड़ना है| सामाजिक कार्यकर्ताओं की याचिकाओं के बाद फ़िलहाल इस फैसले पर सिर्फ रोक लगी है जबकि फैसला जस का तस बना हुआ है| मजबूत वनाधिकारों व कानूनों के बावजूद केंद्र की मोदी सरकार ने आदिवासी हकों को कोर्ट में डीफेंड नहीं किया, क्योकि सरकार वास्तव में चाहती ही नहीं कि मूलनिवासियों के अधिकार सुनिश्चित हों| हाँ अखबार में फोटो देकर अपनी राजनीति कर लेने में मोदी को कोई शर्म नहीं|

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Mazdoor Morcha
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