बड़ी हैरानी की बात है कि कोरोना के इस पूरे दौर में इस संस्था का कोई जिक्र नहीं, न कोई बयान आया न इसने कोई बीमारी के आंकड़े पेश किये।

बड़ी हैरानी की बात है कि कोरोना के इस पूरे दौर में इस संस्था का कोई जिक्र नहीं, न कोई बयान आया न इसने कोई बीमारी के आंकड़े पेश किये।
May 17 17:41 2020

कोरोना के नाम पर हुआ लॉकडाउन  राजनीति करने के लिए हुआ है|

अजातशत्रु

जब से कोरोना बीमारी के विरुद्ध 25 मार्च को पूरे देश में लॉकडाउन हुआ है तब से अब तक सरकार ने क्या-क्या कदम उठाये हैं उनको देखिये और समझिये।

सबसे पहले तो प्रधानमंत्री ने ताली बजवाई, फिर दिये जलवाये और फिर अंत में पुष्पवर्षा की गई। इस बीच मज़दूरों को उनके दड़बों में बंद रखने की पूरी कवायद की गई, उनको बहका के, धमका के, पीट के और गिरफ्तार कर के भी। दूसरी तरफ तबलीगी जमात के बहाने से पूरे मुस्लिम समुदाय को दोषी ठहराने और उनके खिलाफ घृणा भरने का कार्यक्रम चलता रहा। इधर मोदी जी ने एक नया फंड पीएम-केयर फंड बनाया और उसमें मान मनुहार, जोर-जबरदस्ती हर तरह से पैसा जमा करने का कार्यक्रम चलता रहा। इस बीच चीन से अपनी कंपनियों के मार्फत अनाप-शनाप रेट पर मेडिकल व अन्य सामान का आयात भी जारी रहा और चीन के विरुद्ध बीजेपी आईटी सेल की आधारहीन पोस्ट भी जारी रही। फिर मज़दूरों का दर्दनाक महापलायन शुरू हुआ, जिनके लिये न सरकार ने कोई आंसू बहाये न कोई प्रबन्ध किया। वहीं दूसरी तरफ भारतीय रिजर्व बैंक ने उद्योग जगत के लिये दो लाख करोड़ का पैकेज जारी कर दिया। छोटे दुकानदार छोटे-मोटे काम-धंधे वाले और रेहड़ी वालों की भी उनका धंधा चौपट करके कमर तोड़ी जा रही थी। क्या देश में कोरोना का संक्रमण इतने भयंकर रूप से फैल चुका था कि उसके लिये इतने सख्त लॉकडाउन की जरूरत थी? या फिर इसको मुख्य उद्देश्यों से ध्यान भटकाने के लिये एक भ्रम पैदा करने के लिये लगाया गया?

देश में ‘एनसीडीसी’ यानी ‘नेशनल सेन्टर फार डिजीज कन्ट्रोल’ नामक एक संस्था है जो ऐसी या किसी भी महामारी के समय देश भर से सारे आंकड़े इकट्ठे करके उनके प्रकाश में उस बीमारी से निपटने की रणनीति तय करती है। इसका एक अंग ‘इन्टीग्रेटेड डीजीज सर्वाइलेंस प्रोग्राम’ यानी ‘आईडीएसपी’ है जिसके द्वारा पूरे देश में किसी भी बिमारी के आंकड़े इकट्ठे किये जाते हैं। दो फरवरी 2020 तक ये विभाग पीछले 10 सालों से पूरे देश से बिमारी के आंकड़े इकट्ठे करके हर हफ्ते नियमित रूप से प्रकाशित करता रहा है। दो फरवरी को भी इसने देश में तीन कोरोना मरीज़ होने की रिपोर्ट प्रकाशित की है। लेकिन उसके बाद से इस विभाग ने रहस्यमय ढंग से चुप्पी साध ली। आखिर क्यों और किसके कहने पर? पहले सार्स वायरस के संक्रमण के बाद 2004 में इस संस्था एनसीडीसी और इसके अंतर्गत आईडीएसपी, की स्थापना की गयी थी। इस संस्था के पास पूरे देश से आंकड़े इकट्ठे करने का एक तंत्र है और उन का विश्लेषण करने को ‘ऐपीडमोलोजास्टि’ या कहें महामारी विशेषज्ञ भी है। इनके पास संक्रामक रोग और वायरस आदि के भी विशेषज्ञ है। लेकिन बड़ी हैरानी की बात है कि कोरोना के इस पूरे दौर में इस संस्था का कोई जिक्र नहीं। न कोई बयान आया न इसने कोई बीमारी के आंकड़े पेश किये।

कोरोना या कोविड-19 से निपटने की कमान मुख्य रूप से सरकार ने आईसीएमआर को सौंप रखी है जिसकी मुख्य टीम या टास्क फोर्स में न कोई संक्रामक रोग विशेषज्ञ है और न ही महामारी विशेषज्ञ। और तो और एक रिसर्च यानी अनुसंधान संस्था होने के नाते आइसीएमआर के पास न तो कोई बीमारी से निपटने  के सम्बन्ध में कोई पिछला अनुभव है न प्रशासनिक ढांचा। तो फिर इस संस्था को यह जिम्मेदारी सरकार ने क्यों सौंपी? क्या बाहर से करोड़ों रुपये की खरीददारी को मनमर्जी से करने के लिये? एनसीडीसी चुप क्यों बैठी है? जबकि अमेरिका में उनकी इसी तरह की संस्था सीडीसी का प्रमुख हमेशा राष्ट्रपति ट्रंप के साथ प्रेस-कान्फ्रेस में मौजूद रहा है। वह न सिर्फ बिमारी के बारे में अधिकारिक आंकड़े देता रहा है बल्कि राष्ट्रपति के कई अवैज्ञानिक रवैयों पर खुलेआम मतभेद जाहिर करता रहा है और उन्हें लागू करने से इन्कार भी किया है। वहां राजनीति, मेडिकल विशेषज्ञों के सामने नतमस्तक रही है। लेकिन भारत में एनसीडीसी के बजाय आईसीएमआर को इस लड़ाई में आगे करने से लगता है कि यहां मेडिकल विशेषज्ञ राजनीतिज्ञों के आगे नतमस्तक है। घुटने टेके हुये है।

दूसरी तरफ इस पूरे लॉकडाउन के समय में केन्द्र सरकार, जो पूरी तरह स्थिति की नियंत्रक थी, वह क्या करती रही। केन्द्र सरकार के कार्यालय बंद होने के बावजूद-

1-नयी शिक्षा नीति का मसौदा तैयार कर के जारी किया गया जिसकी कोई जल्दी नहीं थी।

2-बिजली कानून में संशोधन का मसौदा जारी किया गया। नया मसौदा निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाता है।

3-बीजेपी की राज्य सरकारों के द्वारा मज़दूरों के काम के घंटे 8 से बढाकर 12 कर दिये और कुछ सरकारों ने तो सारे श्रम कानून ही तीन साल के लिये ताक पर रख दिये, सिर्फ महिला श्रमिक, बंधुआ और बाल श्रम कानून को छोडक़र।

4-अनेकों मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को पकड़ कर जेलों में डाल दिया गया जबकि कोरोना संक्रमण के चलते भीड़ कम करने के लिये जेलों से सजायाफ्ता कैदियों तक को पेरोल पर छोड़ा जा रहा था।

5-पचास भारतीय राजस्व सेवा अधिकारियों द्वारा आर्थिक हालात सुधारने के लिये अमीरों पर टैक्स और गरीबों को सीधी आर्थिक मदद देने का प्रस्ताव सरकार को देने के लिये सरकार द्वारा रविवार छुट्टी के दिन ही तुरन्त उन पर कार्यवाही की गई और उनको कारण बताओ नोटिस दिया गया।

6-आरोग्यसेतु ऐप जारी किया गया जिसका उपयोग किसी भी व्यक्ति की निगरानी और निजी जानकारी हासिल करने में किये जाने की सम्भावनाएं हैं।

यानी कि सरकार लॉकडाउन के समय का प्रयोग बेरोजगार हुये गरीबों और जरूरतमंदों की मदद करने के उपाय करने के बजाय विरोध की आवाज को दबाने और अमीरों और प्राईवेट कंपनियों को फायदा पहुंचाने की नीतियां बनाने और ऐसे काम करने में जुटी थी। ये सब निरंकुश तानाशाही की तरफ बढते कदम हैं।

सरकार की मंशा नीति आयोग के बयानों और खुद प्रधानमंत्री मोदी के बयानों से भी साफ हो जाती है। नीति आयोग के सीइओ अमिताभ कांत ने कहा है कि आर्थिक सुधार का यह ऐसाअवसर है जो जिंदगी में कभी एकाधा बार ही आता है। उधर 12 मई को अपने भाषण में मोदी जी ने भी कहा कि हमने आपदा को अवसर में बदल दिया है। कैसा अवसर? बड़ी ही शर्म की बात है कि महामारी के गंभीर संकट के समय को एकजुट होकर उससे लडऩे का समय बताने की बजाय भारत की सबसे बड़ी नीति निर्धारण संस्था का सीइओ इसे एक आर्थिक सुधार का अवसर बता रहा है। तो क्या कोरोना संकट सिर्फ एक बहाना था जिसका उपयोग सरकार ने लॉकडाउन लगाकर अपने छुपे एजेंडे को पूरा करने के लिये किया? उन क्रूर आर्थिक सुधारों को लागू करने के लिये किया जिन्हें साधारण हालातों में वह लागू नहीं कर पाती। अमिताभ कांत के बयानों से स्पष्ट है कि उनका इशारा उद्योगपतियों को था कि अब जबकि मज़दूर और आम गरीब जनता घरों में लॉकडाउन के बहाने हमने कैद कर रखी है और श्रम कानूनों को हमने उठाकर कूड़े में डाल दिया है तो आपके पास मौका है कि जिसको भी अपनी फैक्ट्री से निकालना है निकाल बाहर करो और फैक्ट्री में मुनाफा बढाने के लिये, जो भी बदलाव आप करना चाहते हैं कर डालिये। सरकार के खजाने के मुंह भी बड़े औद्योगिक समूहों के लिये ही खुले हैं, गरीब मज़दूरों, किसानों, छोटे रेहड़ी वाले और दुकानदारों के लिये एक फूटी कौड़ी भी नहीं दी गई।

उपरोक्त सभी तथ्य बताते हैं कि कोरोना संक्रमण से निपटने के लिये देश भर में और वह भी इतने सख्त लॉकडाउन की जरूरत नहीं थी बल्कि यह मोदी सरकार के राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिये जरूरी था। अपने तुच्छ राजनीतिक हितो के लिये और अपने उद्योगपति मित्रों को फायदा पहुंचाने के लिये मोदी सरकार ने पूरे देश की गरीब मज़दूर, किसान, दुकानदार, छोटे-मोटे धंधे करने वाली जनता को एक भयंकर यंत्रणा में झोंक दिया। फिलहाल चाहे उद्योगपतियों को कितना ही फायदा पहुंचाकर मोदी जी खुश हो रहे हों बहुत जल्द ही भूखे नंगों की एक बड़ी आबादी मोदी की नीन्द हराम करने वाली है जो खुद उनके बोये बीजों का परिणाम होगा।

 

 

 

 

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