पत्रकार ने मज़दूरों के वेतन का मुद्दा उठाया तो पुलिस से पिटवाया, जेल भिजवाया

पत्रकार ने मज़दूरों के वेतन का मुद्दा उठाया तो पुलिस से पिटवाया, जेल भिजवाया
May 17 17:10 2020

फरीदाबाद (म.मो.) शहर का एक बड़ा चोर व सीनाज़ोर उद्योगपति सर्वजीत सिंह चावला फ्रेंडस ऑटो नाम से एनआईटी के औद्योगिक क्षेत्र में एक फैक्ट्री का मालिक है। बैंकों के कर्जे, सरकार का जीएसटी श्रम विभाग की फैक्ट्री लाइसेंस फीस तो यह डकारता ही है, अपने मज़दूरों का वेतन तक डकारने में भी इस बेशर्म को कतई कोई शर्म-ओ-हया नहीं।

‘हरियाणा अब तक’ नाम से एक वैब पोर्टल चलाने वाले पत्रकार पुष्पेंद्र राजपूत ने इसकी फैक्ट्री के गेट प्लॉट नं. 38 पर जाकर मज़दूरों से बात करके उनकी कथा-व्यथा को वायरल किया तो चावला को इतनी मिर्ची लगी कि उसने पुलिस के साथ अपने अति ‘मधुर’ सम्बन्धों का इस्तेमाल करते हुए 9 मई को पुष्पेन्द्र व उसके सहयोगी लाल सिंह को 30000 रुपये लेते हुये रंगे हाथ पकड़वाने का नाटक रच दिया। पकडऩे वाली पुलिस रेडिंग पार्टी के साथ किसी ड्यूटी मजिस्ट्रेट का न होना इस पुलिसिया कार्यवाही पर संदेह खड़ा करता है।

थाना सेंट्रल पुलिस ने इस मामले में ब्लैकमेलिंग का मुकदमा दर्ज कर दोनों आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया। आरोपी पर लगे आरोप सही हैं या गलत इसका फैसला तो कोर्ट ही करेगी लेकिन इससे पहले, 10 मई को  बीपीटीपी क्राइम ब्रांच इनको ले गई, जहां इनको टॉर्चर किया गया। टार्चर करने की आवश्यकता पुलिस को क्यों पड़ी? आमतौर पर इस तरह के मामलों में न तो क्राइम ब्रांच का कोई ताल्लुक होता है और न ही टॅार्चर का। इस तरह का पाप पुलिस केवल लोभवश ही करती है। पत्रकार के मामले में तो कोई छोटा पुलिस अधिकारी लोभवश भी यह सब करने की हिम्मत नहीं कर सकता; जाहिर है इस जघन्य अपराध के पीछे किसी उच्च पुलिस अधिकारी का हाथ है।

सुधी पाठक भूले नहीं होंगे कि 14 अगस्त 2019 को एनआईटी के डीसीपी आत्महत्या मामले में ‘मज़दूर मोर्चा’ सम्पादक सतीश कुमार को भी ब्लैक मेलिंग के आरोप में तत्कालीन सीपी संजय कुमार ने लपेट लिया था। करीब सप्ताह भर सीपी ने अपनी पूरी ताकत लगा कर सम्पादक को हिरासत में लेने का प्रयास किया था। लेकिन जल्द ही सरकार को सीपी की चाल समझ आ गयी थी और उसे यहां से चलता कर दिया गया था। नई बनी तफतीशी टीम ने सम्पादक को पूरी तरह बेगुनाह पाया था। ऐसी ही है पुलिस की जांच।

जालसाज़ चावला के खिलाफ

कोई कार्यवाही नहीं?

खुद करोड़ों-अरबों की जालसाज़ी करने वाले सर्वजीत चावला की शिकायत पर एक पत्रकार को तो पकडऩे व टॅार्चर करने में पुलिस ने गजब की फुर्ती दिखाई, परन्तु खुद अरबों रुपये की जालसाज़ी करे बैठे इस चावला के विरुद्ध कोई कार्यवाही करने की हिम्मत पुलिस एवं प्रशासन क्यों नहीं जुटा पा रहा?

पुष्पेन्द्र ने तो केवल इतना ही दिखाया था कि मज़दूरों का वेतन नहीं दे रहा, उनका जबरन फुल एंड फाइनल हिसाब करके जो चैक दिये थे वे भी बाउंस हो गये। पुलिस की नीयत यदि थोड़ी सी भी साफ होती तो इसी सूचना पर उस चावले को भी बुक कर लेती। डरे-दबे मज़दूरों से और पूछताछ करती तो पुलिस को पता चल सकता था कि मज़दूरों को हिसाब के जो चैक थमाये गये थे, वे उनकी बनती कुल रकम के आधे से भी कम थे जिन्हें मज़दूरों ने यह समझ कर स्वीकार कर लिया था कि ‘भागते चोर की लंगोटी ही सही।’ लेकिन अफसोस यह कि यह फटी लंगोटी भी उन गरीबों को नसीब नहीं हुई।

इसके अलावा जिन ‘मज़दूरों’ का पीएफ व ईएसआई के नाम पर पैसा काटा गया था, वह भी जमा कराने की बजाय खुद ही डकार गया। कहने को तो भारतीय दंड संहिता की धारा 406, 409 व 420 के तहत यह एक अपराध बनता है जिसके लिये इस जालसाज़ को गिरफ्तार करके जेल भेजा जा सकता है। परन्तु देश का कानून व पुलिस ऐसे जालसाज़ों को पकडऩे के लिये थोड़े ही बने हैं; ये तो केवल लुटे-पिटे गरीबों व उनकी आवाज़ उठाने वालों को रगड़ा लगाने के लिये बनाये गये हैं। इस लिये इनसे कोई ज्यादा उम्मीद भी नहीं करनी चाहिये। गरीब मज़दूरों को कुछ मिल सकता है तो संगठित होकर संघर्ष करने से ही मिल सकता है।

मज़दूरों के अलावा इस चोर चावला ने केनरा बैंक को भी 67 करोड़ से अधिक का चूना लगा रखा है। बैंकिंग नियमों के अनुसार जब किसी कम्पनी ने एक बैंक से कर्ज ले रखा हो तो वह किसी दूसरे बैंक में खाता केवल तभी खोल सकती है जब पहले बैंक से एनओसी ले लिया जाये। प्राप्त जानकारी के अनुसार इसने अपना एक खाता गुडग़ांव के ईंडसइंड बैंक में भी खोल रखा है जो केवल अपने आप में ही एक घोटाला है। केनरा बैंक के साथ दूसरा घोटाला यह है कि 19 मार्च को बैंक ने इसकी फैक्ट्री को कब्जे में लेकर अपना ताला लगाया दिखाया हुआ है, जबकि मौके पर आज भी यह चोर वहीं कब्ज़ा जमाये बैठा है। इस मामले में केनरा बैंक की भी भूमिका संदेह के घेरे में है।

इसकी आयकर की स्थिति बाबत तो पता नहीं, लेकिन जीएसटी का कोरोड़ों रुपया ये दबा कर बैठा है। पिछले दिनों विभागीय अधिकारियों ने इसके विरुद्ध कुछ कार्यवाही करने की पहल की थी, परन्तु शीघ्र ही कोई सेटिंग के हो जाने के चलते वह कार्यवाही भी दबा दी गई। और तो और, फैक्ट्री एक्ट के तहत लाइसेंस रिन्यूअल की जो फीस बनती है, वह भी इस जालसाज़ से कई वर्षों से अदा नहीं की है।

ऐसा भी नहीं है कि यह और इसका परिवार कोई भूखा-नंगा हो और कंगाली का जीवन काट रहा हो इनके पास एक से एक कीमती कारों का काफीला है, छुट्टियां बिताने हर साल ये यूरोप के देशों में जाते हैं।  बैंकों से कर्ज लेकर प्लॉट तो खरीद लेते हैं, परन्तु देनदारी का भुगतान नहीं करते। ‘मज़दूर मोर्चा’ के 4-10 अगस्त के अंक में ‘फ्रेंड्स ऑटो के मज़दूरों को दो माह से वेतन नहीं, मालिक सपरिवार यूरोप यात्रा’ शीर्षक से काफी विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित कर रखी है।

  Categories:
view more articles

About Article Author

Mazdoor Morcha
Mazdoor Morcha

View More Articles