नफरतों की आग अगर कश्मीर से लद्दाख के बीच जमी बर्फ पिघलाती तो शायद शेखू और स्पाल्जेस अपने प्यार से दुनिया के किसी कोने में गर्मजोशी पैदा करते। पर अब स्पाल्जेस का इंतजार न जाने कितना लम्बा होगा और जो कहीं न रुक सकी तो फिर शायद उसके और शेखू के पास इंतजार की वजह भी न बचे

नफरतों की आग अगर कश्मीर से लद्दाख के बीच जमी बर्फ पिघलाती तो शायद शेखू और स्पाल्जेस अपने प्यार से दुनिया के किसी कोने में गर्मजोशी पैदा करते। पर अब स्पाल्जेस का इंतजार न जाने कितना लम्बा होगा और जो कहीं न रुक सकी तो फिर शायद उसके और शेखू के पास इंतजार की वजह भी न बचे
July 04 08:23 2020

लद्दाख को यू टी बनाना और वहां लादी गयी संघ मार्का देशभक्ति गयी तेल लेने, न रोजगार बचे न सुरक्षा की गारंटी : लद्दाखियों को भूखों मरने की नौबत आ रही है…

 

विवेक कुमार की ग्राउंड जीरो रिपोर्ट 

“जब लेह को यूटी बनाया था तो शुरू का पहला हफ्ता हम बहुत खुश हुए पर अब समझ ही नहीं आ रहा कि क्या होगा कैसे होगा, रोजी रोटी कैसे चलेगी, सरकार ने किसी तरह की कोई मदद नहीं की।” लप्सुंग को लगता था कि यूटी बनने से लेह की हालत सुधर जाएगी और शेष भारत को भी कुछ ऐसा ही वहम है। इसी अंधविश्ववास में डूबे भारत ने आज चीन के नाम पर लेह-लद्दाख के अपने निवासियों को मरने के लिये भी छोड़ दिया है। युद्ध की स्थिति में खड़ा भारत जिस लद्दाख के लिए मरा जा रहा है वहां रहने वाले स्थानीय निवासी दिखने में भले हमें चीनी ही लगते हों पर हैं वे सब खालिस भारतीय। युद्ध के उन्माद में उनके प्रति सरकार का क्या रुख है और लम्बे बंद ने उनके जीवन को कैसे तहस-नहस कर दिया, आइये जानें मजदूर मोर्चा की फोन आधारित इस ग्राउंड रिपोर्ट से।

23 वर्ष के लप्सुंग लेह-लद्दाख में टैक्सी चलाने का काम करते हैं, गत वर्ष लद्दाख यात्रा के दौरान मुझे सारा लद्दाख एक अलग अंदाज से दिखाने वाले लप्सुंग के पास खाने तक के पैसे नहीं बचे हैं। वे पिछले साल सितम्बर के महीने में अंतिम ग्राहक को पैंगगोंग झील दिखाने के लिए निकला था, क्योंकि सात लोगों का ग्रुप था इसलिए इनोवा कार की बुकिंग थी, पर ग्राहक ने होटल से निकलने में देरी कर दी इसलिए चांगला पास तक ही जा सके। क्योंकि चांगला पास की ऊंचाई 17688 फीट से भी ज्यादा है, यदि पैंगगोंग तीन बजे भी पहुंचते तो वापस आते आते धूप कमजोर पड़ जाती और रास्ते में पड़ी बर्फ जम कर पत्थर का रूप ले लेती जिससे कि गाड़ी फंसने का खतरा था। चांगला से पैंगगोंग न पहुँच पाने की खीझ में ग्राहक ने पूरे पैसे भी नहीं दिए। वही 4 सितम्बर अंतिम दिन था जब मैने पैसे कमाए थे। नेटवर्क की समस्या से जूझने वाले लेह की इतनी ही खबर लप्सुंग से प्राप्त हो सकी।

लाहौल स्फीति हिमाचल के रहने वाले बीरेन लेह में ढाबा चलाते हैं और लम्बे वक्त से बेरोजगारी की मार झेल रहे हैं। बीरेन को डर सता रहा है कि अगर भारत-चीन युद्ध हो गया तो ऐसे में वे अपने परिवार को कैसे पालेंगे। सितम्बर 2019 में पुणे की दो लड़कियों को मोमोस खिलाने के बाद आज तक किसी को पानी तक नहीं बेचा है। कारण पूछने पर बीरेन ने कहा कि कारण एक हो तो बताऊँ, रोज नए कारण आ जा रहे हैं, सारा लेह परेशान है इस सरकार के रोज बदलने वाले नियमों से। सबसे मुख्य कारण लॉकडाउन और अब चीन-भारत के बीच जो लड़ाई के बादल छाए हैं वह है। बीरेन ने बताया कि जबसे युद्ध के हालात बने हैं सडक़ पर सिर्फ फौज के ही ट्रक हैं। चार दिन से एक भी प्राइवेट गाड़ी उनके ढाबे के सामने से नहीं गुजरी जबकि फौजी ट्रकों की लम्बी कतार कई किलोमीटर तक है। लॉकडाउन में एक पैसे की कमाई नहीं हुई और अब लड़ाई के डर से कोई टूरिस्ट इधर नहीं आ रहा। बिना टूरिस्ट हम अपना धंधा कैसे करें, इस सरकार को कोई समझ और चिंता ही नहीं है।

कश्मीर के मुस्लिम लडक़े शेखू (बदला हुआ नाम) से इश्क करने वाली 22 वर्षीय बौद्ध लडक़ी स्पाल्जेज (बदला हुआ नाम) का प्लान था कि इस बार रास्ता खुलते ही शेखू उसे लेह स्थित सिन्धु व्यू पॉइंट पर मिलेगा और वहीं  से दोनों जम्मू या दिल्ली जा कर शादी कर लेंगे। बिलाल कश्मीर से रास्ता खुलते ही सब्जियां और फल लेकर लेह जाता है पर लॉकडाउन और अब चीन से युद्ध के खतरे ने स्पाल्जेस के सपने पर पानी फेर दिया है। उसे डर है कि कहीं उसके घर वाले उसकी शादी किसी और से न करवा दें। फिलहाल इस गुप्त सूचना की खबर किसी को नहीं पर शादी के लिए लडक़ा देखने की कोशिशें घर वालों की ओर से जारी हो गई हैं।

जिन लोगों को लेह-लद्दाख की जलवायु, भौतिक अवस्था और उसका होने वाला सामजिक व् आर्थिक असर का ज्ञान नही उन्हें ये समस्या कोई खास नहीं लग रही होगी। थोड़ी बहुत समझ रखने वाले इस समस्या को शायद उतना ही देख रहे होंगे जितना अन्य भारतीय क्षेत्रों में समस्यायें मोदी के लॉकडाउन के कारण पैदा हुयीं। पर नहीं ऐसा बिलकुल भी नहीं है। हम जितना इस समस्या को एक मैदानी इलाके के भारतीय की तरह देख रहे हैं, लेह-लद्दाख के निवासियों के लिए ये उससे कहीं अधिक है और जिसका अंदाजा भी मैदानी इलाके में बैठे लोगों को लगाना मुश्किल है।

विश्व प्रसिद्ध हिमालय और उसमें स्थित कराकोरम व लद्दाख के विशाल पहाड़ों की गोद में बसा लेह कोई आम पहाड़ी स्थान नहीं। यूँ तो भारतीय हिमालय को भूगोलवेत्ताओं ने मोटा-मोटी तीन भागों में बांटा है, वृहद हिमालय, लघु हिमालय एवं शिवालिक। हममे से अधिकतर लोग शिवालिक (दून पहाडिय़ां, पीरपंजाल) या लघु हिमालय या मध्य हिमालय (मनाली सोलोंग, रोहतांग) के मनोहारी दृश्य देख कर अपने फेसबुक पर उसकी फोटो लगा देते हैं और इतना ही जानते हैं इस हिमालय को। पर वृहद् हिमालय में रहने वाले लेह निवासियों के पास शिवालिक के देहरादून की तरह हरी भरी खेती लायक जमीनें और मध्य हिमालय के मनाली जैसी पहुँच वाली सडक़ें नहीं हैं। और इस भौगौलिक संरचना का सीधा असर वहां के बाशिंदों के सामाजिक आर्थिक जीवन पर है।

क्योंकि हम यहाँ सिर्फ लद्दाख का भूगोल समझने नहीं बैठे हैं इसलिए लद्दाख का जिक्र पांच अगस्त के उस पावन दिन से शुरू करते हैं जिस दिन इसे अलग संघ शासित प्रदेश बनाने की घोषणा मोदी सरकार ने की। लद्दाख में रोजी-रोटी कमाने का प्रमुख साधन वहाँ जाने वाला टूरिस्ट है और साथ ही आर्मी को होने वाली सप्लाई है। पांच अगस्त के बाद एक लम्बे बंद और उससे उपजे भय के कारण टूरिस्ट का जाना लगभग बंद हो गया था। जब तक लद्दाख में लोग खुशी मनाने निकले तब तक घाटी और रोहतांग से आने वाले रास्तों पर प्रकृति के तय कार्यक्रम के तहत बर्फ गिरनी शुरू हो गई और देश के अन्य हिस्सों से सडक़ संपर्क समाप्त हो गया।

इस बीच पडऩे वाली बर्फबारी से गाड़ी के अन्दर भरा ईधन जमने के साथ-साथ इन्सान का मूत्र तक जमीन पर गिरते ही जम जाता है। कई बार गाड़ी को स्टार्ट करने के लिए उसके नीचे आग जला कर ईधन को पिघलाना भी पड़ जाता है। ऐसी विकट परिस्थिति में जो पैक्ड फूड (जी हाँ वही जिसकी तारीख निकलते ही हम दुकानदार की खाल खींचने लगते हैं) एक्सपायर हो चुके होते हैं उन्हें वहां के निवासी अगले साल मई माह में रास्ते खुलने तक भी खाते रहते हैं। भेड़ की अंतडिय़ों में उसके खून को उबाल कर सूप और चर्बी वहां का मुख्य भोजन बना रहता है। इसी के साथ सब्जी के नाम पर सिर्फ आलू ही सहारा होता है।

जाहिर है इन हालातों में वहां टूरिज्म नहीं होता और निवासी जो चार माह की कमाई है मुख्यत: उसी पर जीवित रहता है। अब लम्बे बंद के बाद मई में रास्ते खुलने थे तो मोदी जी का बिना जरूरत का आंकलन किये एक समान रूप से लागू किया गया लॉकडाउन मुंह बाए खड़ा हो गया और आज तक जारी है। इस हालात में जो चार महीने कमाने के हैं उनमे से दो महीने तो गुजर गए वो भी बिना एक पैसा कमाए।

वीरेन जैसे ढाबा और अन्य होटल वालों को अब कुछ आस बंधी थी तो चीन से युद्ध का ड्रामा किया जा रहा हैं। जब तक किसी कूटनीति या शायद कुटाईनीति का उपयोग करके मोदी जी कोई हल निकालेंगे तब तक फिर से बर्फ पडऩे का मौसम आ जाएगा और ऐसे में लद्दाख के लोगों पर लॉकडाउन व् मोदी जी की निकम्मी विदेश नीति का कूटनीतिक व सामरिक भार अगले साल मई माह तक के लिए चढ़ा रहेगा। इतना होने के बावजूद अगले साल मई में हालात अनुकूल होंगे इसकी कोई गारेन्टी थोडे ही न दी जा सकती है क्योंकि देश के प्रधानमन्त्री तो तब भी मोदी ही होंगे।

लद्दाख पर रोज झूठ बोलने वाले मोदी को शायद नहीं मालूम कि लेह में 3000 बस और 4000 टैक्सी पंजीकृत हैं जो पिछले लगभग एक साल से बंद खड़ी हैं और शायद अगले साल रास्ता खुलने तक अब बंद ही रहेंगी। एक टैक्सी से ड्राईवर 3 से 4 लाख रुपया सीजन में कमा कर बाकी का साल काटता था जो उसके लिए अब नामुमकिन से कम नहीं रहा।

बीरेन ने बताया कि चीन से लड़ाई का माहौल बनाकर फौजी अमले को ले जाने वाले ट्रकों की संख्या इतनी बढ़ गई है कि पहाड़ों में ऊपर तक उन्ही की लम्बी कतार लगी हुई है ऐसे में जरूरी समान की आमद भी बाधित है और जो आ रहा है वह भी महंगा हो जाता है। कमाई कुछ नहीं और महंगाई सुरसा सी। लॉकडाउन में सरकार से मदद न मिलने से खफा बीरेन ने बताया कि बहुत से ट्रांसपोर्टर तो अब अपनी गाड़ी फौजी अमले में फंसने के डर से भी नहीं भेज रहे।

नफरतों की आग अगर कश्मीर से लद्दाख के बीच जमी बर्फ पिघलाती तो शायद शेखू और स्पाल्जेस अपने प्यार से दुनिया के किसी कोने में गर्मजोशी पैदा करते। पर अब स्पाल्जेस का इंतजार न जाने कितना लम्बा होगा और जो कहीं न रुक सकी तो फिर शायद उसके और शेखू के पास इंतजार की वजह भी न बचे। इस बीच दिल्ली में मध्य वर्ग अपने सोफे पर बैठ कर टीवी के सामने पकौड़े खाते हुए चीन की ऐप डिलीट कर उन लद्दाखियों को जिनका सब बर्बाद हो रहा है, देश के लिए सब कुर्बान करने की देशभक्ति बाँट रहे होंगे।

 

 

 

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Mazdoor Morcha
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