धंधेबाज़ नेता बेचने लगे मज़दूरों को…

धंधेबाज़ नेता बेचने लगे मज़दूरों को…
August 31 11:47 2020

 

सतीश कुमार

कम्पनी मालिकान ने अस्सी का दशक जाते-जाते संगठित मज़दूरोंं के साथ उलझ कर राजनेताओं, पुलिस व प्रशासन के हाथों लुटने के साथ-साथ अपनी उत्पादकता व मुना$फे में भारी नुकसान उठाने की अपेक्षा मज़दूर नेताओं को ही पालतू बनाने में अपनी भलाई समझी। मानवीय कमजोरियों के चलते कम्पनी मालिकान को ऐसे नेताओं की कोई कमी नहीं रही। मज़दूर भी अपने सामूहिक हित भूल कर पालतू नेता बनने की होड़ में जुट गये। मज़दूरों ने भी इन्हें पहचान कर खारिज करने की अपेक्षा सस्ते लोभ-लालच में $फंस कर अपने वोट को बेचने का काम शुरू कर दिया।

पालतू नेताओं का पूरा लाभ उठाते हुए प्रबन्धकों ने यूनियनों को कमजोर एवं खोखला करने की ऐसी नायाब  चाल चली कि देखते-देखते ही यूनियनों का सूर्य अस्त होने लगा। जहां शहर में मज़दूरों के बड़े-बड़े जलसे जुलूस व प्रदर्शन होना बड़ी आम बात थी, वो अब मई दिवस जैसे महत्वपूर्ण मज़दूर त्योहार पर भी देखने को नहीं मिलते। प्रबन्धन ने संगठित मज़दूरों से उलझने की बजाय उनकी भर्ती ही बंद कर दी। काम के लिये ठेकेदारी व ट्रेनिंग आदि पर नये कामगारों को न्यूनतम वेतन पर रखना शुरू कर दिया। ये मज़दूर भी वही सब काम करने लगे जो पुराने संगठित मज़दूर किया करते थे। लेकिन इनको वेतन पुराने एवं नियमित मज़दूरों के वेतन से आधा या चौथाई मिलता।

नियमित मज़दूर एवं उनका नेतृत्व प्रबंधन की इस चालबाजी से आंखें मीचे अपनी मस्ती में मस्त रहा। अपने साथ काम करने वाले इन नये मज़दूरों को अपनी यूनियन का सदस्य बनाने की अपेक्षा उन्हें अपना चाकर समझने लगे। अपने हिस्से का काम भी इन पर थोप कर खुद फैक्ट्री के भीतर रहते हुए भी मस्ती मारने लगे, वहीं ताश व जुआ तक भी खेलने लगे। प्रबन्धन सब कुछ देखते हुए भी खामोश रहता क्योंकि वह यूनियन से उलझना नहीं चाहता और उत्पादन उसका नये मज़दूर पूरा कर ही रहे हैं तो उसे भला क्या जरूरत पड़ी पंगा लेने की। माहौल ऐसा बनता चला गया कि पुराने संगठित मज़दूर अब अपने आपको मज़दूर कहलाने तक से संकोच करने लगे। यूनियन के दम पर अच्छे वेतन के साथ-साथ साइड बिजनेस चलाने से आर्थिक स्थिति का$फी बेहतर होने लगी। उन नेताओं का तो कहना ही क्या जो कम्पनी के साथ या कम्पनी के माध्यम से ही व्यापार करने लगे। उनके यहां तो धन बरसने लगा जिससे प्रेरित होकर छोटे नेताओं को भी बड़ा नेता बनने की धुन सवार होने लगी।

इसके चलते नेताओं व प्रबन्धन की तो पौ बारह हो गयी क्योंकि इस तरकीब से कम्पनी भी मुना$फे में और यूनियन वाले नियमित मज़दूर भी मौज़ में। ऐसी-तैसी हो रही है तो उसी कम्पनी में काम करने वाले असंगठित मज़दूरों की जिनके खून-पसीने से उक्त दोनों मौज मार रहे हैं। यूनियन एवं प्रबन्धन के बीच होने वाले त्रैवार्षिक समझौतों के द्वारा यूनियन अपने सदस्य मज़दूरों के लिये अच्छी-खासी आर्थिक वृद्धि वेतन एवं भत्तों की बढोत्तरी के रूप में प्राप्त कर लेती है। इससे कम्पनी की सेहत पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता क्योंकि समझौते का लाभ प्राप्त करने वाले मज़दूर तो कुल कमाने वाले मज़दूरों के आधे से भी कम बल्कि कई बार तो केवल चौथाई ही होते हैं। यानी तो कमाने वाले असली मज़दूर हैं उन्हें उस समझौते से कुछ नहीं मिलता, वे ज्यों के त्यों सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन पर ही खटते रहते हैं। इतना ही नहीं इन कच्चे मज़दूरों से कम्पनी आठ घंटे में12 घंटे का उत्पादन कराती है जबकि नियमित लोग आठ घंटे की शि$फ्ट में 6 घंटे का भी कर दें तो समझो बहुत है। सुपरवाइज़र तो क्या मैनेजर तक की हिम्मत नहीं जो इन्हें टोक सके क्योंकि वे यूनियन के संरक्षण में हैं।

एक ओर मजे की बात यह भी है कि जब कभी यूनियन को अपनी किसी मांग को लेकर कम्पनी पर दबाव बनाना होता है तो यूनियन सबसे पहले कच्चे श्रमिकों की एन्ट्री बंद कर देती है। कच्चे मज़दूर बेचारे चाह कर भी इसका विरोध नहीं कर सकते जबकि उस दिन काम पर न आ पाने की वजह से उनका वेतन कट जाता है। यानी यूनियन वाले इन कच्चे मज़दूरों का खुला दुरुपयोग अपने हितों को बढावा एवं संरक्षण देने के लिये करती है। ऐसे में भला, ‘मज़दूर-मज़दूर भाई-भाई’ तथा ‘ दुनियां भर के मज़दूरो एक हो’ के नारों की क्या प्रासंगिकता रह जाती है। समझने वाली बात केवल इतनी है कि उक्त नारे तमाम श्रम शक्ति को एकजुट करने के लिये दिये गये थे जिसके द्वारा पूंजीपतियों व उनकी सरकारी-गैरसरकारी ताकतों से टकराया जा सके। लेकिन अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिये यूनियन नेतृत्व पर काबिज़ लोगों ने सब कुछ भुला कर, यूनियन की ताकत को केवल अपने निजी हित साधने का जरिया बना लिया।  लेकिन इस तरह का पाखंड बहुत समय तक तो चलने वाला है नहीं। जो मज़दूर 1920 की अंग्रेज हुकूमत से लड़ते-मरते अनेकों कुर्बानियां देते हुये यहां तक पहुंचा है, जिसने कारखानेदारों व उनकी सरकारों के सारे जुल्म सह कर भी संगठन, खड़े किये हैं, वे आखिर कब तक बढ़ते शोषण को सहन कर पायेंगे। जिस र$फ्तार से संगठित यूनियनों का प्रभाव घटता जा रहा है, उनका दायरा दिन ब दिन सिकुड़ता जा रहा है, ऐसे में एक न एक दिन तो इन्हें समाप्त होना ही है। इसमें अब बहुत ज्यादा समय लगने वाला नहीं है, उसके बाद जब सारा ही मज़दूर वर्ग कच्चे मज़दूर एवं असंगठित की शक्ल में आ जायेगा तो $िफर वही पुरानी संघर्ष प्रक्रिया प्रारम्भ होनी निश्चित है।                                                       (सम्पादक, मजदूर मोर्चा)

 

 

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