सतीश कुमार (संपादक, मजदूर मोर्चा)
जुझारू नेतृत्व में कर्मठ मज़दूरों ने जहां ट्रेड यूनियन आन्दोलन को मजबूत करते हुए न केवल देश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ किया बल्कि इसकी रक्षा भी की। लेकिन जब नेतृत्व पथभ्रष्ट होने लगा तो न यूनियन रही न देश की अर्थव्यवस्था बची।
शुरू में कोई भी ट्रेड युनियनिस्ट भ्रष्ट नहीं होता और जो कोई होता भी है वह अपनी असलियत को ढक कर तीखे जुझारू तेवर दिखाता है। मजबूती से जड़ पकडऩे के बाद वह अपना असली रंग दिखाना शुरू करता है। यदि मज़दूर स्वयं जागरूक एवं सचेत हों राजनीतिक सिद्धांतों का ज्ञान रखते हों तो वे अपने नेता के पहले भटकते कदम को रोक सकते हैं। लेकिन यहां होती है अंध-भक्तों की भेड़चाल जो नेता के भटकने या बिकने के बाद पूरे आन्दोलन को ही अंधे कुएं में धकेल देती है।
इसे समझने के लिये बेहतरीन उदाहरण जॉर्ज फर्नाडिस का है। भारतीय रेलवे की जितनी बड़ी व मजबूत यूनियन उन्होंने खड़ी की, उसके उदाहरण विरले ही मिलते हैं। सन् 1973 में बतौर ताकतवर प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी से टक्कर लेते हुए जितनी कामयाब रेलवे हड़ताल उन्होंने कराई थी, उसका उदाहरण ढूंढ पाना आसान नहीं। करीब एक सप्ताह भरके लिये पूरा देश खड़ा कर दिया था। सरकार झुकी रेलवे कर्मचारियों की तमाम जायज बातें मानी गयीं जिससे कर्मचारियों को तो लाभ हुआ ही रेलवे ने भी खासी उन्नति की। उन्होंने रेलवे के अलावा बोंबे टैक्सीमैन यूनियन भी देश की एक बड़ी ट्रेड यूनियन खड़ी की थी जिसके अपने पेट्रोल पम्प तक होते थे। लेकिन आज वह शिवसेना के अधीन है।
फिर से वापस आते हैं रेलवे पर। ऐसा नहीं है कि उस वक्त पूरे रेलवे में अकेले जार्ज की ही यूनियन थी, उस वक्त भी सीटू, एटक इन्टक एचएमएस, बीएमएस आदि का नेतृत्व चलता था। इस सब के बावजूद यह फर्नाडिस का ही करिश्मा था जो सबके सिर एक साथ जोड़ कर इन्दिरा जैसी तानाशाही शक्ति को सफल चुनौती दे डाली। इसी के फलस्वरूप इमरजेंसी में, मौका मिलते ही उन्होंने जॉर्ज को डायनामाइट के एक झूठे मुकदमें में लपेट कर फांसी चढाने तक का षड्यंत्र रच डाला था। वक्त का पहिया घूमा इन्दिरा सत्ता से बाहर और जार्ज ने जेल से ही चुनाव जीत कर सत्ता मे हिस्सेदारी पाई और हिस्सेदारी भी ऐसी पाई कि समाजवादी से संघवादी हो गये। लेकिन इस दौरान उन जुझारू मज़दूरों के संगठन डूबते चले गये जिनके दम पर जॉर्ज सत्ता की सीढियां चढते जा रहे थे। नेता और मज़दूर केवल अपने हितों तक ही सीमित हो कर रह गये। न तो उन्होंने अपनी राजनीतिक सूझ को विकसित किया और न ही अपने संस्थान (रेलवे) के भविष्य की ओर ध्यान दिया। रेलवे की सेवा लेने वाले हर उपभोक्ता का भ्रष्टाचार एवं निकम्मेपन से सामना होने लगा। बेशक इसमें अधिक दोष सरकार एवं उसके आला अधिकारियों का रहा लेकिन यूनियन के माध्यम से उसका सशक्त विरोध करने की बजाय वे खुद भी इसमें भागीदारी करने लगे। सरकार भी यही चाहती थी, क्योंकि भ्रष्ट संगठन सरकार के सामने तन कर खड़े नहीं हो सकते। इसी का $फायदा उठाते हुए बीते आठ-दस साल से रेलवे में रिक्त पदों की संख्या 2 से 3, तीन से चार लाख तक होती चली गयी और यूनियनें मुंह ढक कर सोती रही। अब जब स्थिति रेलवे को बेचने तक कि आ गयी तो यूनियनों ने थोड़ी अंगड़ाई लेनी शुरू की है लेकिन अब इनकी वुक्कत कुछ खास रह नहीं गई; सरकार उनकी रत्ती भर परवाह नहीं करती। इसके लिये यूनियनें खुद जिम्मेवार हैं। आज यदि यूनियन मजबूत होती तो रेलवे की ऐसी दुर्दशा न होती।
बैंकों व जीवन बीमा निगम की यूनियनें भी रेलवे वालों से किसी तरह कम नहीं थी। वामपंथी विचारधारा से लैस एआईबीईए (अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी एसोसिएशन) का देश की बैंकिंग प्रणाली पर पूरा नियंत्रण था। इसका जन्म उस समय में हुआ था जब बैंक कर्मचारियों की हालत किसी लाला के मुनीम जैसी होती थी। नौकरी पर आने का समय तो निश्चित होता था लेकिन जाने का कोई समय नहीं होता था। देर रात को भी जाने से पहले पूछना पड़ता था कि ‘‘मैं जाऊं रात बहुत हो गयी है?’’ यदि मालिक/ मैनेजर का मूड सही हुआ तो कह देता था जाओ वरना कहता कि यह जो काम पड़ा है तेरा बाप करेगा?
ऐसी भयंकर गुलामी के हालात में अप्रैल 1946 में एचएल परवाना व डीपी चड्डा आदि ने इस गुलामी से मुक्ति दिलाने का बीड़ा उठाया था। विस्तृत विवरण की जरूरत नहीं , उस गुलामी से मुक्ति पाने के लिये बैंककर्मियों ने न केवल अपनी नौकरी बल्कि जान तक की बाज़ी लगा दी थी, तब कहीं जाकर काम करने के घंटे तय हुए, अधिक घंटे लगाने पर डबल ओवरटाइम के अलावा बेहतर सेवा शर्तों के साथ अच्छे वेतन भत्तों की शुरूआत हुई। यह सब बैंकों के राष्ट्रीयकरण से पहले ही हो गया था। बैंकों में मजबूत ट्रेड यूनियन बनने से किसी भी बैंक के मुनाफे में कोई कमी नहीं आई बल्कि उसमें बढ़ोत्तरी होने लगी, क्योंकि तमाम कर्मचारी बेहतर एवं लाभकारी सेवा शर्तों से संतुष्ट होकर काम में मन लगा रहे थे। समय-समय पर जब भी कभी बैंक मालिकान ने कोई कर्मचारी विरोधी काम करना चाहा तो यूनियन ने अपनी शक्ति का खुल कर प्रदर्शन किया।
राष्ट्रीयकरण होने पर तमाम यूनियनों ने समर्थन किया व खुशी जताई। परन्तु सरकार ने अपने राजनीतिक हितों को साधने हेतु बैंकों की पूंजी लुटानी शुरू की तो यूनियन ने इस ओर उचित ध्यान नहीं दिया क्योंकि अब धीरे-धीरे यूनियन नेतृत्व पथ भ्रष्ट होने लगा था। जहां राजनेता अपने चहेतों में बैंक का धन बांटने में जुटे थे वही यूनियन नेता भी अपनी-औकात के अनुसार सेंधमारी करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे। चंदे से मिलने वाले अपार धन ने यूनियन नेताओं की कार्यशैली अफसरशाही सरीखी बना दी। संघर्ष करने की क्षमता समाप्त हो गयी।
इसका फायदा उठाते हुए सरकारी प्रबन्धन ने खुल कर बैंक को लुटवाया, कर्मचारियों की संख्या घटा कर कार्यभार बढाया, आर्थिक हितों पर कुठाराघात किया। इतना ही नहीं बैंक ग्राहकों से भी वसूली के नये-नये तरीके खोज निकाले। इस सब के बावजूद आज न तो कर्मचारी कुछ बोलने की स्थिति में हैं और ग्राहक तो बोंलेगे ही क्या। स्थिति तो यहां तक बिगड़ चुकी है कि ग्राहकों का विश्वास ही बैंकों से उठता जा रहा है, वे सोच रहे हैं कि अपना पैसा बैंक में रखें या नहीं।
यदि बैंक कर्मचारियों की यूनियन पहले की तरह मजबूत एवं जुझारू रही होती तो आज बैंकों की यह दुर्दशा न हुई होती। बैंकों के ‘मरजर’ व निजीकरण की ओर वापसी न होती। इसी तरह यदि एलआईसी की यूनियन भी मजबूत बनी रहती तो आज इसके बिकने की नौबत न आती।
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