सतीश कुमार (सम्पादक, मजदूर मोर्चा)
जैसा कि पिछले अंकों में लिखा जा चुका है कि औद्योगिक मज़दूरों ने संगठित होकर एक बड़े सशक्त ट्रेड यूनियन आन्दोलन को बुलंदियों पर पहुंचाया था। किसी एक स्थान पर नहीं देश के कोने-कोने में। अनेकों बार, अनेकों जगह इसने हिंसक रूप भी लिये। ऐसे में सवाल उठता है कि ट्रेड यूनियन को सरकार चलने क्यों देती है, मज़दूरों को यूनियन बनाने क्यों देती है? दरअसल यह सरकार के हाथ में नहीं है। अंग्रेजी हुकूमत के दौरान जब लोकतंत्र की दूर-दूर तक कहीं कोई चर्चा नहीं थी तब भी सरकार ने ट्रेड यूनियन एक्ट बनाकर मज़दूरों को संगठित होने का अधिकार दिया था। वास्तव में सरकार ने यह अधिकार दिया नहीं था, मज़दूरों ने अपनी सामूहिक ताकत के बूते, बहुत सी कुर्बानियां देकर यह अधिकार प्राप्त किया था। यही नहीं बल्कि मज़दूर हितों की रक्षा के लिये अंग्रेजी राज में ही अनेकों कानून बनवा लिये थे।
हुकूमत चाहे गोरे अंग्रेजों की हो या काले अंग्रेजों की, वह बखूबी समझती है कि जब तक शान्तिपूर्ण माहौल नहीं होगा कोई भी उद्योग चल नहीं सकता। उन्हें शान्त रखने के लिये कोई भी कारखानेदार एक-एक मज़दूर से बातचीत अथवा सौदेबाजी नहीं कर सकता। इसके लिये उसे संगठित मज़दूर समूह के नेतृत्व से ही समझौता एवं सौदेबाज़ी करनी होती है। यहां सौदेबाज़ी शब्द बहुत महत्वपूर्ण है। मानवीय फितरत होती है कि वह कम से कम देकर बदले में अधिक से अधिक प्राप्त कर ले। इस लेन-देन में जहां कारखानेदार कम से कम उजरत देकर मज़दूर से अधिक से अधिक उत्पादन कराना चाहेगा वहीं मज़दूर भी कम से कम मेहनत के बदले अधिक से अधिक उजरत पाना चाहेगा। इसी लेन-देन को संतुलित करने के लिये सामूहिक सौदेबाज़ी की जाती है।
इस सौदेबाज़ी का समाज एवं अर्थव्यवस्था को भी लाभ होता है। ऊपरी तौर पर देखने से भले ही ट्रेड यूनियन की छवि एक उत्पाती या दंगा करने वाले खलनायक की बनती हो परन्तु वास्तव में अर्थव्यवस्था को सुचारू रूप से चलाये रखने के लिये यूनियनवाद बहुत महत्वपूर्ण है। यूनियन न होने से, अक्सर देखा गया है कि मेहनतकश का शोषण बढता जाता है। मालिक अपनी मानवीय प्रवृति के अनुरूप निरंकुश होकर मनमाने ढंग से शोषण करता है। इस से मालिकान के पास तो मुनाफे बढ कर धन के अंबार लग जायेंगे लेकिन दूसरी ओर मेहनत बेचने वाले को जब पर्याप्त मेहनताना नहीं मिलेगा तो उसकी क्रय-शक्ति घटती चली जायेगी। परिणामस्वरूप जब उत्पादित माल का कोई खरीदार ही नहीं होगा अथवा नाम मात्र ही खरीदार होंगे तो कारखानेदार उत्पादन किस के लिये करेगा? यानी उत्पादन घटेगा और अर्थव्यवस्था में मंदे की स्थिति आ जायेगी। इसके अलावा मालिकान खर्च बचा कर सुरक्षा उपायों का जब उल्लंघन करेंगे तो दुर्घटनायें भी होंगी और फिर प्रतिक्रियास्वरूप बबाल कटेगा। इन सब हालातों के मद्देनज़र श्रम खरीदने वालों व श्रम बेचने वालों के बीच संतुलन बनाये रखने के लिये ट्रेड यूनियनों का होना बहुत जरूरी है।
भारत में सबसे पहली ट्रेड यूनियन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा ‘एटक’ (ऑल इन्डिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस) के नाम से बनाई गयी थी। देश भर के तमाम प्रमुख औद्योगिक केन्द्रों पर इसका एकछत्र राज होता था। सन् 1942-43 तक इसकी स्वतंत्रता संग्राम में काफी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसी दौर में ड्रेड यूनियन का महत्व समझते हुए कांग्रेस पार्टी ने भी ‘इंटक’ (इन्डियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस) स्थापित कर ली ताकि मज़दूरों को किसी आन्दोलन में धकेलने या रोकने के लिये उसे कम्युनिस्ट पार्टी के भरोसे न रहना पड़े। तथाकथित आज़ादी के बाद तो ट्रेड यूनियनों की बाढ सी आ गयी। जगह-जगह नये-नये नामों से ट्रेड यूनियनें बनने लगीं। समाजवादियों ने अपनी हिन्द मज़दूर पंचायत, हिन्द मज़दूर सभा तो गुजरात के गांधीवादियों ने नेशनल लेबर ऑरगेनाइजेशन खड़ी कर दी। कम्युनिस्ट पार्टी से टूट कर बनी माकर्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने ‘सीटू’ (सेंटर ऑफ इन्डिया ट्रेड यूनियन) नाम से अपना झंडा गाड़ दिया। ऐसे में पूंजीपतियों द्वारा पोषित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भला कैसे पीछे रहता उसने भी भारतीय मज़दूर संघ के नाम से मज़दूरों को फांसने का एक जाल देश भर में फैला दिया। हरियाणा में चौटालों का राज आया तो लोक-मज़दूर संगठन, जिसे मज़दूर लट्ठमार संगठन कहते थे, खड़ा कर दिया।
विभिन्न राजनीतिक दलों एवं विचारधाराओं से बंधी इन ट्रेड यूनियनों ने अपने-अपने राजनीतिक हितों के लिये इन मज़दूर संगठनों का इस्तेमाल किया। कुछ मज़दूर नेताओं ने इस प्रक्रिया के द्वारा निजी लाभ भी उठाये परन्तु अधिकांश मज़दूर वर्ग एक प्यादे की तरह इस्तेमाल होता रहा। राष्ट्रीय एवं राज्य स्तर के मज़दूर नेताओं को भविष्य निधि ट्रस्ट, ईएसआई कार्पोरेशन का कॉर्पोरेटर, विभिन्न बोर्डों एवं आयोगों का सदस्य बना दिया गया। लेकिन इन पदों पर पहुंचने के बाद ये नेता मज़दूरों से लगभग पूरी तरह कट गये। मज़दूर को उनमें अ$फसरशाही दिखने लगी। अब नेता उन्हें मठाधीश की तरह नज़र आने लगा। इसके परिणामस्वरूप बड़े यूनियन दफ्तरों में वेतनभोगी कर्मचारी तो बैठे मिलेंगे लेकिन मज़दूर कोई इक्का-दुक्का ही फटकता है।
मज़दूरों के दबाव में समय-समय पर सरकारों ने विभिन्न श्रम कानून तो बनाये, उन्हें लागू करने के नाम पर श्रम विभाग बनाये परन्तु यह सब मज़दूरों को राहत कम देते हैं और भ्रमित ज़्यादा करते हैं। सबसे पहले ट्रेड यूनियन रजिस्ट्रेशन को ही ले लीजिये। किसी भी कारखाने के कोई सात मज़दूर कागजी औपचारिकतायें पूरी करके राज्य के श्रम आयुक्त को रजिस्ट्रेशन के लिये आवेदन कर सकते थे। आवेदकों की पुष्टि करने का काम श्रम निरिक्षक करता है। इस काम के नाम पर वह मालिकान को इसकी सूचना देकर अपनी जेब गर्म करता है। सूचना मिलते ही मालिकान आवेदकों को नौकरी से निकाल देता है। बस हो गया यूनियन का बंटाधार। सात मज़दूर तो फिर भी जैसे-तैसे तैयार हो जाते थे, लेकिन अब मज़दूर विरोधी सरकार ने यह संख्या बढ़ा कर कुल मज़दूरों का 10 प्रतिशत कर दी है। यानी कि जिस कारखाने में 300 मज़दूर होंगे वहां कम से कम 30 मज़दूर आवेदन करेंगे।
यही एक नहीं श्रम विभाग के बिके हुए अधिकारियों के पास ऐसे अनेकों हथकंडे हैं यूनियन का रजिस्ट्रेशन रोकने के लिये। कुछ तथाकथित यूनियन नेताओं ने तो श्रम विभाग की दलाली करके रजिस्ट्रेशन कराने का ही धंधा शुरू कर दिया। एक-एक रजिस्ट्रेशन का लाखों रुपया तक वसूला जाता है।
किसी श्रमिक को नौकरी से निकाले जाने पर उसका श्रम न्यायालय तक पहुंचना भी श्रम निभाग के हाथ में होता था लेकिन अब औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 2ए में संशोधन करके श्रम विभाग की दादागीरी को समाप्त करके सीधे श्रम न्यायालय जाने का रास्ता साफ हो गया। लेकिन इन न्यायालयों में होता क्या है? वर्षों तक मज़दूर को यहां भटकाया जाता है। कम्पनी की ओर से बड़े से बड़े, एक से एक महंगे वकीलों के सामने मज़दूर का जुगाड़तंत्र फेल हो जाता है। हाईकोर्ट में अपील करना बहुत महंगा होने के साथ-साथ वहां दसियों साल तक नम्बर नहीं लगता। इस सबके बावजूद यदि जैसे-तैसे मज़दूर जीत भी जाय तो मालिकान फैसले लागू नहीं करते। यानी कुल मिलाकर मज़दूर को भटका-भटका कर मार देने की यह व्यवस्था सरकार एवं उद्योगपतियों ने मज़दूर को ‘गेट’ की लड़ाई से दूर रखने के लिये बनाई है। यदि मज़दूर अपने हकों के लिये ‘गेट’ की लड़ाई लड़ता है तो उसे बर्दाश्त करना मालिकान के बस का नहीं। उसी से बचने के लिये श्रम विभाग व न्यायालय बनाये गये हैं जिनके मकडज़ाल में फंस कर अधिकांश मज़दूर दम तोड़ जाते हैं।