सतीश कुमार (सम्पादक : मजदूर मोर्चा)
एस्कॉर्ट यूनियन के माध्यम से एचएमएस की ओर मेरे बढने से पहले ‘सीटू’ संस्मरण का उल्लेख करना जरूरी समझता हूं। इमरजेंसी हटने और जनता पार्टी की सरकार बनने के तुरंत बाद जब सीटू का विस्तार होने लगा तो सीटू जि़ला कमेटी में दिल्ली स्थित हाई कमान से आदेश आया कि गेडोर यूनियन के तत्कालीन प्रधान के नेतृत्व में गेडोर यूनियन को ‘सीटू’ से पुन: एफलिएट करने पर जि़ला कमेटी विचार करे। उस वक्त मैं भी उसका सदस्य होता था। जि़ला कमेटी ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव को नकार दिया। कारण यह बताये गये कि इमरजेंसी-कॉल में दिवान गांधी की गतिविधियां पार्टी एवं ‘सीटू’ विरोधी रही थीं। लेकिन शीघ्र ही आला कमान से आदेश आया कि इस पर पुनर्विचार किया जाय तथा साथ में इशारा भी दे दिया गया कि दिवान को सीटू से जोडऩा है।
कारण यह बताया गया था कि गेडोर 3000 से अधिक मज़दूरों वाली एक बड़ी यूनियन है। इसके जुडऩे से ‘सीटू’ की स्थिति हर प्रकार से सुदृढ होगी। लिहाजा जि़ला कमेटी ने न चाहते हुए भी सर्वसम्मत्ति से गेडोर यूनियन को एफलिएशन देकर दिवान गांधी को जि़ला कमेटी में शामिल कर लिया गया। जाहिर है इससे जि़ला कमेटी की आर्थिक स्थिति मज़बूत होने के साथ-साथ पूरे क्षेत्र में सीटू की बल्ले-बल्ले होने लगीं। लेकिन गेडोर का गुब्बारा बहुत समय तक फूला न रह सका और कुछ समय पश्चात फूट गया।
सरकारी एवं प्रबन्धन की नीतियों के चलते कम्पनी बंद होने लगी तो मज़दूरों के हिसाब का मसला आया। मज़दूर चाहते थे कि कम्पनी कानून के हिसाब से मज़दूरों का भुगतान करके उन्हें फारिग करे जबकि कम्पनी उन्हें औने-पौने में निपटाना चाहती थी। इस मौके पर जब मज़दूरों ने यूनियन नेतृृत्व को कम्पनी के साथ खड़े पाया तो ‘गृह युद्ध’ की सी स्थिति बन गयी। मज़दूर दो धड़ों में बंट गये। जम कर खूनी संघर्ष होने लगा-मज़दूरों का जान-माल का नुक्सान होने लगा, झूठे पुलिस केस बनाये जाने लगे। मालिकान सब कुछ बेच कर निकल लिये और मज़दूर आज भी हिसाब के लिये धक्के खा रहे हैं। यहां एक विशेष बात यह भी सामने आई कि मज़दूरों के एक बहुत बड़े ग्रुप ने बिना यूनियन के सीधे कम्पनी से बात-चीत करके एवं कानूनी लड़ाई लड़ कर बेहतर हिसाब पाया।
साधन सम्पन्न एवं भारी-भरकम यूनियन का यह हश्र तो होना ही था। क्योंकि ट्रेड यूनियन सम्बन्धी मौलिक समझदारी की कमी ही नहीं वह पूरी तरह नदारद रही। गौरतलब यह भी है कि जि़ला कमेटी की समझदारी आला कमान से बेहतर थी जिसने गेडोर को अपने साथ लेने से मना कर दिया था। इतना ही नहीं इस मुद्दे को लेकर कुछ समय बाद जि़ला कमेटी में फूट भी पड़ गयी थी।
अब चलते हैं फरीदाबाद की सबसे बड़ी यूनियन होने का गौरव हासिल कर चुकी ‘आल एस्कॉर्टस इम्प्लाइज़ यूनियन’ की ओर। इसका गठन इमरजेंसी से पूर्व हो चुका था लेकिन इमरजेंसी के चलते इसकी गतिविधियां का$फी हद तक दबी रहीं । 1977 में इसके संस्थापक प्रधान बने थे बीरम सिंह जिनके नेतृत्व में यूनियन ने दिसम्बर 1977 में मैनेजमेंट से पहला समझौता किया था। इसके बाद कार्यकारिणी द्वारा कुछ समय के लिये गोसाईं नामक एक मज़दूर को प्रधान पद सौंपा गया। करीब 12000 मज़दूरों वाली यह यूनियन किसी एक कारखाने तक सीमित न रह कर एस्कॉर्ट के छोटे-बड़े सात-आठ प्लांटों तक फैली हुई थी, बल्कि एक प्लांट तो नोयडा के पास सूरजपुर में था जहां यामाहा मोटर साइकिल बनती थी। यहां समझदारी यह रखी गयी थी कि जब कम्पनी एक है तो यूनियन क्यों न एक हो!
इस बड़ी एवं एकीकृत यूनियन के अस्तित्व में आने से पहले भी कम्पनी के लगभग सभी प्लांटों में एक से अधिक यूनियन थीं यानी हर प्लांट में एटक, सीटू, इन्टक और न जाने क्या-क्या नाम से रंग-बिरंगे झंडे गेटों पर लगे थे। लेकिन खास बात यह थी कि इनमें से किसी भी यूनियन का प्रधान कम्पनी का मज़दूर न होकर बाहरी पेशेवर नेता ही गेट तक आकर भाषण दिया करते थे। कम्पनी ने मज़दूरों के लिये ‘वर्कर कमेटी’ नाम से एक नकली सा ढांचा जरूर खड़ा कर रखा था जो मज़दूरों की नुमायंदगी करते हुए प्रबन्धन से बात-चीत करती थी। परन्तु वास्तव में उसके पल्ले कुछ नहीं था, न तो उस कमेटी के लोग प्रबन्धन के सामने बोल सकते थे और न ही प्रबन्धन उनको कोई भाव देते थे। इन हालात को देखते हुए ‘ऑल एस्कॉर्टस इम्प्लाइज यूनियन’ का गठन हुआ।
गोसाईं के कुछ दिन प्रधान रहने के बाद बैलेट पेपर के माध्यम से यूनियन का चुनाव कराया गया। जिसमें सुभाष सेठी को प्रधान पद के लिये खड़ा किया और भारी बहुमत से जिताया। इसी दौरान यहां सागर राम गुप्ता भिवानी से वकालत करने आया करते थे। वे बहुत अच्छे लेबर लॉ वकील तो थे परन्तु ट्रेडयूनियनिस्ट नहीं थे। एस्कॉर्ट यूनियन गठन के वक्त उनका यूनियन में अच्छा-खासा प्रभाव भी था। इसी के चलते उन्होंने सेठी की जगह खुद प्रधान बनने का प्रयास भी किया था जिसे संगठन ने यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया कि कोई बाहरी व्यक्ति प्रधान नहीं बन सकता।
हां, बदले में उनकी बात मानते हुए यूनियन को हरे झंडे वाली एनएलओ (नेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन) से जरूर एिफलिएट कर दिया। यह झंडा सागर राम जी गुजरात से लाये थे। इसे गुजरात के कुछ ट्रेड यूनियन विरोधी लो$गों ने महात्मा गांधी के तथाकथित सिद्धांतों पर बनाया था। कुछ समय तक एस्कॉर्ट के गेटों पर एनएलओ का हरा झंडा लहराता रहा तथा यूनियन का दफ्तर भी गुप्ता जी के नीलम चौक स्थित कार्यालय से ही चलता रहा। लेकिन यह गठजोड़ बहुत दिनों तक चलने वाला नहीं था और टूट गया। यूनियन ने गुप्ता जी के कार्यालय से 20 दुकानें छोड़ कर एक दुकान किराये पर ले ली। जिसे बाद में खरीद लिया और बगल वाली एक और दुकान को भी खरीद कर धीरे-धीरे नीलम फ्लाई ओवर की बगल में दिखाई देने वाले शानदार दफ्तर का निर्माण कर लिया।
अलग दफ्तर खोलने के बाद भी कुछ समय तक तो यूनियन ने एनएलओ से नाता बनाये रखा लेकिन धीरे-धीरे इसे तोडऩे की तैयारी भी करते रहे। इस तैयारी में यूनियन नेताओं ने समाजवादी खेमे की ओर बढना शुरू किया। इसी तैयारी के दौर में सुषमा स्वराज, जार्ज फर्नाडिस, मधु दंडवते व सुरेन्द्र मोहन जैसे राजनेताओं से सम्पर्क बढाया जाने लगा।
होते-होते वह दिन आ गया जब तिकोना पार्क स्थित वैष्णु देवी मंदिर में सुष्मा स्वराज के नेतृत्व वाली बैठक में एचएमएस से एिफलिएट करने का निर्णय ले लिया गया। उस बैठक में मैं खुद भी मौजूद था। उस वक्त तक फरीदाबाद में एचएमएस को कोई नहीं जानता था। लिहाज़ा एस्कॉर्टं यूनियन के माध्यम से ही एचएमएस ने इस औद्योगिक नगरी में प्रवेश पाया था।