जमीन से गायब होता ट्रेड यूनियन आन्दोलन राष्ट्रीय, अंतराष्ट्रीय स्तर पर बुलंद

जमीन से गायब होता ट्रेड यूनियन आन्दोलन राष्ट्रीय, अंतराष्ट्रीय स्तर पर बुलंद
December 14 08:02 2020

 

सतीश कुमार  (सम्पादक : मजदूर मोर्चा)

 

दुनिया भर के मेहनतकश लोग जो विभिन्न प्रकार से अपनी मेहनत बेचकर रोज़ी-रोटी कमाते हैं, अपने हितों की रक्षा के लिये संगठित होकर जो यूनियन बनाते हैं, उसी को ट्रेड यूनियन कहा गया है। इसके रूप विभिन्न व्यवसायों के अनुरूप अलग-अलग हो सकते हैं। कोई बैंकों में कार्यरत हैं तो उनके हित और मांगे उनसे भिन्न होंगी जो सडक़ परिवहन से जुड़े हैं; इसी तरह कारखानों में काम करने वालों के हित एवं आवश्यकतायें उनसे भिन्न होंगी जो भवन निर्माण में लगे हैं। लेकिन इसके बावजूद भी ये सब मेहनतकश जो संगठन बनाते हैं, वे ट्रेड यूनियन ही कहलाते हैं।

जब से दुनिया में औद्योगीकरण का आरम्भ हुआ है, कारखानों में मज़दूरी करने के लिये लोग आने लगे हैं। कारखानों में काम करने की विकट परिस्थितियों एवं भयंकर शोषण ने मज़दूरों को संगठित होकर लडऩे के लिये प्रेरित किया। ये संगठन एक कारखाने से शुरू हो कर पूरे शहर, शहर से पूरे देश और एक देश से अन्य देशों तक फैलते चले गये। इसी फैलाव के चलते मज़दूर संगठनों ने न केवल राष्ट्रीय फेडरेशनों का रूप ले लिया बल्कि अंतराष्ट्रीय स्तर पर भी बड़ी-बड़ी फेडरेशन खड़ी हो गयी। इनके भी कई रूप हैं, कोई स्टील एंड इंजीनियरिंग से जुड़ी है तो कोई टेक्स्टाइल से तो कोई माइनिंग से तो कोई जहाजरानी आदि से। इसके अलावा आज इनके राजनीतिक रूप भी अलग-अलग तरह के नज़र आते हैं। कई तरह की कम्युनिस्ट विचारधारायें हैं तो कई तरह की समाजवादी और डेमोक्रेटिक विचारधारायें मौजूद हैं जिनसे ये फेडरेशन जुड़ी हैं।

ट्रेड यूनियन के इस अंतराष्ट्रीय फैलाव की बदौलत यूएनओ में भी आईएलओ (अंतराष्ट्रीय मज़दूर संगठन) के नाम से एक ब्रांच है। इसका उद्देश्य यूएनओ के तमाम सदस्य देशों में मजदूरों के अधिकारों एवं हितों की देखभाल करना तथा श्रम कानूनों की पालना पर निगरानी रखना है। साल -दो साल में आईएलओ द्वारा तमाम देशों के बड़े श्रमिक नेताओं व सरकारी अधिकारियों/मंत्रियों की कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया जाता है। लेकिन यह किसी रस्म अदायगी एवं पाखंड से कम नहीं है क्योंकि इस तरह की कॉन्फ्रेंसों का निहितार्थ केवल नेताओं, मंत्रियों व अफसरों की विदेश यात्रा तक ही सीमित होकर रह जाता है। इनसे धरातल पर मौजूद एवं कारखानों व खदानों में दिन-रात खटने वाले मज़दूर को कुछ नहीं मिल पाता। स्थानीय स्तर पर कमज़ोर बल्कि मृत-प्राय:संगठनों के चलते उन पर शोषण का शिकंजा दिन-प्रति दिन कसता जा रहा है। उनकी हालत बद से बद्तर होती जा रही है। इसके पीछे ट्रेड यूनियन एवं फेडरेशन को अफसरशाही ढांचा एवं कार्यशैली है। मज़दूर नेता अफसरों की भाषा बोलने लगे हैं तथा उनके दफ्तर सरकारी जैसे हो चले हैं। केन्द्रीय स्तर की इस कार्यशैली का असर काफी हद तक निचले स्तरों तक भी पहुंचना स्वाभाविक है।

धरातल यानी निचले स्तर पर जहां मज़दूरों को सीधे तौर पर संगठन की आवश्यकता होती है वहां संगठन लगभग पूर्णतया निष्प्रभावी हो जाता है। इसके चलते न तो मालिकान श्रम कानूनों की परवाह करते और न ही उन्हें लागू कराने वाली सरकारी मशीनरी। इसमें सरकार का श्रम विभाग पीएफ (भविष्यनिधि)व ईएसआईसी आदि सभी शामिल हैं। कानून है कि स्थाई प्रकृति के काम पर ठेकेदारी श्रमिक नहीं रखे जा सकते परंतु इस कानून का उल्लंघन न केवल कारखानेदार कर रहे हैं बल्कि सरकार खुद भी बड़े पैमाने पर कर रही है। ईएसआईसी के अस्पतालों में आधे से अधिक कर्मचारी ठेकेदारी में काम कर रहे हैं जिनकी संख्या सैकड़ों-हजारों में है। इतना ही नहीं समान काम का समान वेतन का नियम व कानून, जिसकी व्याख्या देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी की जा चुकी है कि सरेआम अवहेलना हो रही है। बीते वर्ष तक तो यह अत्याचार ईएसआईसी के अस्पतालों में भी हो रहा था, परन्तु जब उच्चाधिकारियों को कुछ शर्म आई तो ठेकेदारी कर्मचारियों का वेतन भी नियमित कर्मचारियों के बराबर कर दिया गया। सरकारी स्कूलों व कॉलेजों तक में यह भेद-भाव बड़े पेमाने पर चल रहा है। यहां ‘ठेकेदारी’ शब्द की जगह ‘गेस्ट’ तथा विजिटिंग जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया है। कोई भी विषय पढ़ाने वाला एक अध्यापक को लाखों का वेतन मिलता है तो दूसरे को एक चौथाई भी नहीं।

मेहनत बेचने वालों पर यह सब अत्याचार एवं शोषण केवल इस लिये हो पा रहा है कि उनकी सामूहिक सौदेबाज़ी करने की ताकत जो ट्रेड यूनियन के माध्यम से बनती है, वह इतनी क्षीण हो चुकी है कि मेहनत खरीदने वाले उसकी कीमत अपनी मन-मर्जी से लगाने को स्वतंत्र हैं। ट्रेड यूनियन का इतिहास जानने वाले जानते हैं कि स्कूल-कॉलेजों के शिक्षक आज जो लाखों का वेतन पा रहे हैं उसके लिये 1971-72 में, उस वक्त के संगठनों ने कितना कठिन संघर्ष किया था, कितनी कुर्बानियां दी थीं। संगठन के अभाव में वे सब आज मिट्टी में मिल गयी है।

फिर से लौटते हैं औद्योगिक मज़दूरों की ओर। इनके हितों के लिये बनाये गये सरकारी प्रतिष्ठान ईएसआई कार्पोरेशन व भविष्यनिधि विभाग जिस तरह से मज़दूरों को प्रताडि़त कर रहा है, उनका शोषण कर रहा है, देखते ही बनता है लेकिन किसी ट्रेड यूनियन की औकात नहीं बची कि इन सब के खिलाफ कोई बड़ी मुहिम चला पाये। दुर्भाग्य की बात तो यह है कि इन दोनों प्रतिष्ठानों शीर्ष प्रबन्धन में ट्रेड  यूनियनों के प्रतिनिधि भी शामिल हैं। ईएसआई कार्पोरेशन में बतौर पार्षद एक तिहाई नुमाइंदे मज़दूरों के, एक तिहाई मालिकान के व एक तिहाई सरकार के होते हैं। संख्या के हिसाब से सभी पक्षों के लगभग 15-15 नुमाइंदे होते हैं। मजे की बात तो यह है कि ईएसआईसी कार्पोरेशन में सरकार की ओर से कभी एक खोटी चवन्नी भी निवेश नहीं की गयी, सारा पैसा मालिकान और मज़दूरों द्वारा कमा कर दिया गया है। इसके बावजूद लाखों करोड़ों के इस फंड पर सरकारी दादागीरी पूरी तरह से हावी रहती है। मज़दूर प्रतिनिधि जब मुंह नहीं खोलते तो मालिकान को भला क्या जरूरत पड़ी जो सरकार से पंगा ले?

लगभग ऐसे ही हालात भविष्यनिधि विभाग के हैं। दर असल यह विभाग नहीं एक ट्रस्ट है। जिसमें मालिकान व मज़दूरों के नुमाइंदों के साथ-साथ सरकार के भी नुमाइंदे होते हैं। इसमें भी सारा पैसा मज़दूरों व मालिकान का होता है। तमाम सरकारी अमले का वेतन व एय्याशी का खर्चा उन्हीं के दिये अंशदान से चलता है। लेकिन मज़दूरों को अपना जमा कराया पैसा ही इस ट्रस्ट से वापस लेना का$फी भारी पड़ता है। विस्तार में न जाकर पाठक इतना ही जान लें कि 27000 करोड़ से भी अधिक की राशि इस ट्रस्ट में ऐसी पड़ी हुई है जिसका कोई लेनदार अथवा दावेदार नहीं है। सीधे शब्दों में कहा जाय तो यह वह राशि है जो मज़दूरों के खून-पसीने की कमाई से सरकार ने वसूल तो कर ली थी लेकिन उन्हें लौटाई नहीं गई; जाहिर है इस रकम को सरकार कभी भी ‘राष्ट्रहित’ के नाम पर गटक जायेगी।

इसके अलावा एक ओर बड़ा घपला पीए$फ के नाम पर मालिकान व फंड कर्मचारी यह करते हैं कि मज़दूरों के वेतन से काटा गया पैसा उनके खातों में जमा ही नहीं कराया जाता। भारतीय दंड संहिता की धारा 406 व 420 के तहत होने वाले इस तरह के सैकड़ों अपराधों का कोई संज्ञान नहीं लिया जाता, क्योंकि जिसका पैसा लूटा जाता है उसकी तो कोई सुनता नहीं और विभाग के जिन अधिकारियों द्वारा इस तरह के मुकदमे दर्ज कराये जाने चाहिए वे खा-पी कर चुप रह जाते हैं। इन सब बातों के बावजूद ट्रेड यूनियनों की ओर से कोई भी गम्भीर कदम नहीं उठाये जाते।

 

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