छबई की मरहूम बेटी का एकमात्र जिंदा बचा बेटा उनकी जिन्दगी का सहारा है जिसके शरीर पर चर्मरोग हो गया है। सांप की केंचुल सा दिखने वाला ये रोग बढ़ता ही जा रहा है और न जाने किस दिन छबई के अंतिम सहारे को भी लील ले।

छबई की मरहूम बेटी का एकमात्र जिंदा बचा बेटा उनकी जिन्दगी का सहारा है जिसके शरीर पर चर्मरोग हो गया है। सांप की केंचुल सा दिखने वाला ये रोग बढ़ता ही जा रहा है और न जाने किस दिन छबई के अंतिम सहारे को भी लील ले।
March 16 10:00 2020

 मोदी-योगी के संसदीय क्षेत्रों में भी भाजपायी रामराज्य झूठ का पुलिंदा बना

उज्ज्वला और आयुष्मान हैं भ्रष्टाचार की सरकारी महामारी की चपेट में

ग्राउंड जीरो से विवेक कुमार की रिपोर्ट 

हे डराईबर साहेब, अरे तनी धीरे चलावा बसवा, लगत बा जिन्दा नाहीं पहुंचब घरे,” गोरखपुर से बनारस जाने वाली सडक़ (राजमार्ग) पर चलने वाली बसों और अन्य सभी प्रकार की गाडिय़ों में बैठे लोगों के लगभग ऐसे ही शब्द रोज बस ड्राइवर के कानों तक पहुचते हैं। पर ड्राइवर को आदत पड़ चुकी है, बस पहले ही इतनी धीरे चल रही है जिसके बाद और धीरे चलाने का विकल्प ही नहीं बचता।

पाठकों को ज्ञात हो कि गोरखपुर, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का 20 साल से संसदीय क्षेत्र होने के साथ-साथ घर भी है और बनारस (वाराणसी) प्रधानमंत्री मोदी का संसदीय क्षेत्र। दोनों बड़े नगरों से हजारों परिवार फरीदाबाद में बसे हुए हैं; दिल्ली और आसपास का क्षेत्र तो इन पुरबियों से पटा पड़ा है। इन इलाकों में पहुँचने वाली केन्द्रीय और राज्यपोषित योजनाओं का हाल क्या है और साथ ही आधारभूत संरचना किस रसातल में जा रही है, दोनों की जमीनी हकीकत को पाठक ‘मजदूर मोर्चा’ के इस यात्रा वृतांत के माध्यम से जान सकेंगे।

जिस राजमार्ग का जिक्र ऊपर किया गया है उस पर लगे हजारों पेड़ों को छ: वर्ष पहले मात्र इसलिए काट दिया गया ताकि मार्ग को चौड़ा किया जा सके। तीन वर्ष पूर्व भी ‘मजदूर मोर्चा’ ने इस पर विस्तारपूर्वक रिपोर्ट लिखी थी। क्योंकि इसी राजमार्ग पर मेरा पैतृक गाँव भी स्थित है, इसलिए राजमार्ग जो पहले बहुत बड़े-बड़े आम और बरगद के पेड़ों से ढका एक गुफा जैसा प्रतीत होता था उसे आज पेड़ों से विहीन देखना अत्यंत दुखदायी है। वो भी मात्र इसलिए कि यहाँ कभी फोर लेन का हाइवे बनाया जाना तय हुआ था जो आज तक नहीं बना, उल्टे काम भी बंद पड़ा है। जबकि आज भी इसपर चलने वाली गाडिय़ों की संख्या इतनी नहीं कि टू लेन के हाइवे को भी भर सकें।

उत्तर प्रदेश ट्रांसपोर्ट विभाग की खटारा बस में गोरखपुर से 30 किलोमीटर की दूरी पर बसे कौडीराम कस्बे का सफर दो घंटे में पूरा हुआ वहां से अपने गाँव पाली जो 10 किलोमीटर है में गिनकर 73 मोड़ मुडऩे के बाद घर पहुँच सका। भारत के पिछड़े इलाकों में एक मेरा गाँव पाली कई जातियों से बनता है। हर जाति वर्ग का अपना एक टोला-मोहल्ला है और उसमे हाशिये पर हर जगह की तरह दलित जातियां ही हैं।

अगले दिन दलित बस्ती की तरफ रुख किया ये जानने की लोलुपता के साथ कि जिन योजनाओं के पोस्टर देश की राजधानी दिल्ली के हर पेट्रोल पम्प से लेकर अन्तराष्ट्रीय हवाई अड्डे तक प्रधानमन्त्री मोदी की तस्वीर के साथ चिपकाया हुआ है क्या वे योजनायें जमीन पर भी उतनी मजबूती से चिपकी हुई हैं।

80 वर्षीय बुजुर्ग महिला जो पिंकू की अम्मा के नाम से ही जानी जाती हैं,अपने गाल पर पड़ी नील दिखाते हुए बोली की साहेब कल रात मुझे भूमिहार लोगन ने मारा, क्योंकि मैं उनके खेत के किनारे की घास काट रही थी और ऐसा उन्हें मंजूर नहीं। इस उम्र में मार खा कर बुढ़ापा भी खराब कर लिया, इतना कह कर वो बुजुर्ग सुबक पड़ीं। महिला का एकमात्र बेटा पिंकू फरीदाबाद के ही किसी कारखाने में काम करते हुए अपनी जान गँवा बैठा है। अब उसकी माँ के पास सिर्फ उसका नाम बचा है जो मौत तक उससे अलग नहीं होगा।

पिंकू की माँ को उज्जवला योजना के तहत सिलेंडर मिला था, जिसके लिए गाँव के प्रधान ने उनसे 200 रुपये भी लिए थे। एक बार सिलेंडर लेने के बाद दोबारा नहीं भरवा सकीं क्योंकि पिंकू की माँ की आर्थिक समस्याओं के साथ-साथ गैस के दाम भी बढ़ते जा रहे हैं।

रामानंद बहू (गुड्डी) के पांच बच्चे हैं। वह प्लास्टिक और जूट की बोरियों को बांस के डंडों में बाँध कर एक आठ फीट लम्बी और आठ फीट चौड़ी झोपड़ी बना कर जीवन गुजर कर रही है। गुड्डी ने बताया, उज्जवला योजना के तहत एक गैस सीलेंडर मिला था। कुछ दिन उसपर खाना भी बनाया था पर जब खत्म हो गया तो दाम महंगे होने के कारण दोबारा भरवा नहीं सकी। गैस पर खाना बनाये आठ महीने हो गए। अब कैसे खाना बनता है? मिट्टी के बने अपने चूल्हे को दिखाते हुए गुड्डी ने बताया, इसी चूल्हे पर लकडिय़ों से बनता है, यदि मिल जाएँ तो। जब लकडिय़ाँ उपलब्ध नहीं होती तो पत्तों पर बनता है और जब बरसात में वो पत्ते भी भीग जाते हैं तो भूखा ही सोना पड़ता है।

50 वर्षीय बडक़ा के पति का देहांत दो माह पहले सांप काट लेने और फिर इलाज न मिलने से हो गया।  बडक़ा को 30 वर्ष पहले उसका पति बंगाल के मालदा जिला से शादी करके लाया था। आज उसकी जबान से बांग्ला भाषा लगभग समाप्त हो गई है और भोजपुरी ने उसकी बांग्ला संस्कृति को अपनी चादर में समेट लिया है। सिलेंडर को अपने पति की निशानी मानते हुए इतने जतन से रखा है कि शायद ही किसी ने अपने गहनों को इतना सहेज रखा होगा। बडक़ा के सिलेंडर पर एक बूँद भी तेल की नहीं गिरी है, ऐसा क्यों, बडक़ा ने बताया, वो चूल्हे पर खाना बनाती थी जिसकी वजह से उसे टीबी हो गई। मरहूम पति ने उसे इस दु:ख से निजात दिलाने के लिए प्रधान को सिलेंडर के लिए घूस भी दी थी दो सौ रुपया। जिस दिन सिलेंडर मिला उसके अगले दिन ही सांप ने जिन्दगी को ही डंस लिया। पति मर गया और अब लकड़ी पर खाना बनाने को अनाज मिल जाए वही बहुत है, सिलेंडर कौन भरवा सकेगा।

उज्जवला योजना का कमोबेश यही हाल पूरे गाँव के गरीबों में है। उज्जवला के बाद आयुष्मान योजना का हाल जानने का भी प्रयास किया गया। गाँव में एक अस्पताल है जिसमे कोई डॉक्टर नहीं आता। छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी बीमारी तक के लिए पास की बांसगांव तहसील में जाना पड़ता है जहाँ प्राइवेट डॉक्टर मोटी फीस वसूलता है। योगी के शहर गोरखपुर के सदर अस्पताल में चले जाएँ तो महीनों धक्के खाने पड़ते हैं।

40 वर्षीय मिलन ने बताया कि हालिया दिल्ली दंगों से जान बचा कर वो गाँव भाग आये और यहाँ आने के बाद अचानक उनकी तबियत बिगड़ गई। गोरखपुर के एक निजी अस्पताल में इलाज की प्रक्रिया शुरू की तो ज्ञात हुआ कि उनके ह्रदय में पेसमेकर डालना पड़ेगा। इतनी सी उम्र में ऐसी बिमारी। और इलाज का खर्चा लाख रुपये से भी अधिक। मिलन आयुष्मान कार्ड बनवाना चाहते हैं जिसे बनाने के लिए कई अधिकारियों और उनके दफ्तरों के चक्कर काट चुके हैं। कार्ड नहीं बन पा रहा है और अब गाँव के लोगों से ही सूद पर पैसे लेकर इलाज करने की कोशिश करेंगे।

मिलन की ही तरह छबई की दशा भी बहुत बुरी है। 70 साल के छबई ने सारी जिन्दगी एक भूमिहार जमींदार के हल जोते। पिछले पांच वर्षों से छबई बेरोजगार हैं, मशीनों ने इस सामन्ती समाज में ऐसे हरवाहों की उपयोगिता को समाप्त कर दिया। आँख की रोशनी से लगभग हाथ धो चुके छबई का एकमात्र बेटा उन्हें इसलिए छोड़ गया क्योंकि अपने परिवार की गरीबी का भार उठाने में असमर्थ वो अपने पिता के भार को नहीं उठा सकता था। छबई की मरहूम बेटी का एकमात्र जिंदा बचा बेटा उनकी जिन्दगी का सहारा है जिसके शरीर पर चर्मरोग हो गया है। सांप की केंचुल सा दिखने वाला ये रोग बढ़ता ही जा रहा है और न जाने किस दिन छबई के अंतिम सहारे को भी लील ले। इसी डर में जीने वाले इस बुजुर्ग को आयुष्मान कार्ड के नाम पर एक प्रिंट आउट दे दिया गया है जिसके बदले स्थानीय दुकानदार ने 100 रुपये वसूल लिए। प्रधानमंत्री की फ्लैगशिप स्कीमों का यही हाल पूरे तहसील में है। छबई, बडक़ा, गुड्डी ये वो किरदार हैं जिनका नाम यहाँ लिखा गया अन्यथा ऐसे किरदारों से यह पूरा क्षेत्र ही पटा पड़ा है।

गाँव अब खाली हो चुके हैं, और ये गरीब यहाँ से निकल कर गुरुग्राम, दिल्ली, फरीदाबाद, नौएडा, गाजियाबाद सरीखे स्मार्ट शहरों में जा रहे हैं। उन स्मार्ट शहरों में भी उनके रहने के लिए गंदे नालों के किनारे बनी झुग्गियां और उसके लिए भी राजनीतिक भेडिय़ों की खुशामद और रिश्वतें देनी पड़ती हैं। ऐसी ही एक बस्ती फरीदाबाद के सेक्टर 4-5 के सामने बसी थी जिसे उजाडऩे की कवायदें जारी थीं और जिसका वृत्तान्त ‘मजदूर मोर्चा’ ने पिछले अंकों में विस्तार से छापा है। बमुश्किल प्रेम नगर और पटेल नगर नामक वह 15000 निवासियों की बस्ती फिलहाल बच सकी है।

आयुष्मान योजना पर दस हजार करोड़ रुपये खर्चने का दावा करके पचास करोड़ लोगों को सीधे लाभान्वित करने का जुमला बेचने वाले देश के प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी असल में देश को बीमा कंपनियों के हाथों बेच रहे हैं। उनका आठ करोड़ लोगों को गैस सिलेंडर देने का दावा भी उतना ही झूठा और कोरा है जितने सच्चे हैं गुड्डी और छबई जैसों के दयनीय हालात।

कैसी विडम्बना है, जिन गरीबों ने समाज को इतना कुछ दिया, इतना सम्मान दिलाया, सबके घर बनाये, सडक़ें बनायीं, जमींदारों की जमींदारी चमकाई उनके लिए न योगी के गाँव में कोई शरण है और न ही मोदी के स्मार्ट शहरों में। जबकि शहरों के कोने कोने में पोस्टरों में वो घास काटती खुशहाल औरत दिखती है पोस्टर पर मोदी के साथ जो कहती है सिलेंडर ने उसकी जिन्दगी बदल दी। वैसे ही दिल्ली के हर मेट्रो स्टेशन पर एक बुजुर्ग महिला पोस्टरों पर उसी मोदी के साथ ये झूठ कहती दिखाई जाती है कि आयुष्मान योजना ने उसकी जिन्दगी बचा ली।

कौन हैं ये लोग जो पोस्टरों में दिख रहे हैं पर जमीन पर कहीं नहीं नजर आते। प्रधानमंत्री का जैसे कोई सहपाठी आज तक नहीं मिला, जैसे शिक्षक नहीं मिला जैसे कोई ग्राहक नहीं मिला जिसने उनकी बनाई चाय पी हो, वैसे ही कोई लाभार्थी भी नहीं मिलता जिसे इन योजनाओं का सच में कोई लाभ हुआ हो। ये सभी सिरे से फर्जी योजनायें हैं। योजना की जगह इन्हें प्रचार अभियान और प्रचार योजना कहना उचित होगा। एक आदमी आठ करोड़ लोगों को गैस सिलेंडर देने का झूठ बोलता है और साथ ही गैस के दाम भी दिन रात बढ़ाता रहता है कि वे खरीद ही न सकें। आयुष्मान के नाम पर बीमा कंपनियों को पैसे कमवाता जाता है पर एक भी सरकारी अस्पताल को ठीक करने की न ही बात करता है न ही नया अस्पताल खोलता।

पाली गाँव के अस्पताल का माहौल संरचना के हिसाब से कम से कम ऐसा होता कि चिकित्सक काबिलियत हासिल करने की मेहनत पर फक्र कर सकता न कि ऐसा स्थान जहाँ कोई जानवर भी बैठना पसंद न करे। समाज के हर तबके को सम्मान स्वरूप यदि कार्यस्थल ही नहीं दिया जा सकता तो उससे कार्यकुशलता की उम्मीद बेमानी है। सरकारी अस्पतालों को ठीक नहीं करना उल्टे निजी बीमा कंपनियों की जेबें भरना कहाँ का राष्ट्रप्रेम है? पचास हजार करोड़ के बजट के बावजूद पैसा इन गरीबों के हक में न खर्च हो? एक यात्रा वृत्तांत में योगी-मोदी के रामराज्य के इतने दर्शन क्या काफी नहीं?

 

 

रॉंग साइड खड़े वाहन से तीन लडक़े मरे, लानत है ऐसी पुलिस को

बल्लबगढ (म.मो.) बीते बुधवार की रात करीब 10 बजे एक मोटरसाइकिल पर सवार 18-20 वर्ष की आयु के तीन लडक़े रॉंग साइड खड़े एक पानी के टैंकर से टकरा कर मौके पर ही मर गये। हादसा चंदावली के निकट आईएमटी की मास्टर रोड का है। कार्यवाही के नाम पर पुलिस ने टैंकर चालक के विरुद्ध लापरवाही का मुकदमा दायर कर के अपने कत्र्तव्य की इतिश्री कर ली।

वास्तव में देखा जाये तो यह मुकदमा सम्बन्धित पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध ही दर्ज होना चाहिये था क्योंकि पुलिस का यह कत्र्तव्य है कि वह रॉंग साइड तो क्या किसी भी साइड में किसी वाहन को खड़ा न होने दे और न ही किसी वाहन को रॉंग साइड पर चलने दे। इसके लिये पुलिस को व्यापक अधिकार दिये गये हैं। वाहनों के नियमित ढंग से चलने व उनसे कानून की पालना कराने के लिये इस शहर में का$फी लम्बा-चौड़ा ट्रै$िफक पुलिस विभाग बनाया गया है। इसके बावजूद शहर की लगभग सभी सडक़ों पर दिन-रात वाहनों का जमावड़ा लगा रहता है। इससे न केवल जाम की स्थिति बनी रहती है बल्कि हादसों में मौत भी अक्सर होती रहती हैं। लगभग यही स्थिति रॉंग साइड यानी उल्टी दिशा से आने वाले वाहनों की है जिसके प्रति पुलिस आंखे मीचे रहती है।

कहने को कहा जा सकता है कि बाइक सवार कौन से भले थे जो एक बाइक पर तीन लद कर चल रहे थे और हेल्मेट भी नहीं पहने थे। हो सकता है कि उनकी बाइक में लाइट भी न हो और शराब भी पी रखी होगी। इस सबके लिये मरने वाले तो सज़ा-ए-मौत पाकर परलोक सिधार गये, परन्तु क्या पुलिस भी इस सबके लिये जि़म्मेदार नहीं है? क्या पुलिस का काम केवल वारदात अथवा दुर्घटना होने के बाद का$गज काले करना मात्र ही है? कोई भी वारदात अथवा दुर्घटना को होने से रोकने के लिये प्रिवेंटिव कार्यवाही करना पुलिस का दायित्व नहीं है? विदित है कि इन सब की रोक-थाम एवं जन-धन की हानि को रोकने के लिये पुलिस के पास व्यापक अधिकार हैं। परन्तु दुर्भाग्य की बात यह है कि शासन-प्रशासन द्वारा पुलिस की प्राथमिकता में यह सब रखा नहीं गया। उसकी प्राथमिकतायें तो कुछ और ही बना दी गयी हैं।

 

 

 

 

 

 

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Mazdoor Morcha
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