कमाई के लिये मौत का भय जरूरी दवा कम्पनियों के लिये ‘कैश क्रॉप’ है वायरस की खेती

कमाई के लिये मौत का भय जरूरी  दवा कम्पनियों के लिये ‘कैश क्रॉप’ है वायरस की खेती
March 16 09:29 2020

मज़दूरों मोर्चा ब्यूरो

यूं तो आज पूरा दवा उद्योग ही मरीज़ों की कीमत पर पूरी बेदर्दी से मोटे मुना$फे का धंधा कर रहा है। दवा बिक्री के लिये तमाम बीमारियां उनके लिये एक $फसल की भांति है जिसमें प्रदूषण व मिलावटी खान-पान एक तरह का खाद-पानी का काम करते हैं। इस से उद्योग को नियमित आय होती है। परन्तु कोई-कोई दवा कम्पनी तुर्त-फुर्त मोटे मुना$फा कमाने के लिये कैश क्रॉप के तौर पर वायरस की खेती करती हैं।

दुनिया भर के 100 से अधिक देशों में आज करोना वायरस का नाम इसीलिये खड़ा किया गया है कि इसका वेक्सीन मार्केट में आये बगैर ही दवा कम्पनियों की बिक्री यकायक बेहिसाब बढ़ गयी है जबकि इसका वैक्सीन अभी ट्रायल स्टेज पर है। किसी भी दवा के तीन ट्रायल होते हैं, पहला लेबोरेट्री में, दूसरा जानवरों और तीसरा मनुष्य (वालेंटियरों) पर। आज की गर्मागर्म मार्केट में वैक्सीन निर्माता चाहते है कि उन्हें तीनों ट्रायल बाइपास करके सीधे मार्केट में उतरने दिया जाय। इसी चक्कर में सारा मीडिया करोना वायरस का भय अधिक से अधिक बढाने में जुटा है।

जुकाम का वायरस रायनों है जिसका आज तक कोई वैक्सीन न तो बना है न इसकी जरूरत महसूस हुई। सप्ताह भर में जुकाम स्वत: ठीक हो जाता है, कोई दवा लो या न लो। करोना वायरस रायने का बड़ा भाई है। जो लोग इसकी चपेट में आने के बावजूद ठीक भी हो गये वे बिना किसी विशेष वैक्सीन अथवा दवा के ही ठीक हो गये।

इसमें केवल वे ही लोग मारे गये जो पहले से ही किसी अन्य बीमारी, मधुमेह, निमोनिया, गंभीर अस्थमा, टीबी, कैंसर आदि के मरीज़ थे। वे लोग भी इसका शिकार होते हैं जिनकी प्रतिरोधक शक्ति पहले से क्षीण होती है और कुपोषण के साथ-साथ प्रदूषित वातावरण में रहने को मजबूर होते हैं।

बतौर कैश क्रॉप वायरस की खेती का इतिहास बेशक एचआईवी से शुरू होता है लेकिन उससे पहले इसका प्रयोग दुश्मन देश के प्रति हथियार के तौर पर भी होता रहा है। उस से जन-संहार तो हो जाता था परन्तु लाभ कुछ विशेष नहीं होता था। पूंजीपति को चाहिये लाभ तो इसके लिये मारना नहीं डराना ररूरी है। यदि लोग मर ही जायेंगे तो वैक्सीन कौन खरीदेगा? एचआईवी वैक्सीन ज़्यादा लाभकारी नहीं हो सका क्योंकि इसका इंक्यूबेशन बहुत लम्बा था, इसमें लोग 10-20 साल तक खींच जाते थे इस लिये इस से कोई विशेष लाभ नहीं हो पाया। $िफर मार्स, सार्स, बर्ड फ्ल्यू, स्वाइन फ्ल्यू, इबोला व जीका जैसे वायरस बना कर जनता में छोड़े गये। इनमें सबसे खतरनाक था इबोला क्योंकि इसमें मृत्यु दर 80-90 प्रतिशत तक थी, जब इतने सारे लोग मर ही जायेंगे तो $िफर वैक्सीन कौन खरीदेगा? इस लिये करोना, जीका आदि जैसे वायरस तैयार किये गये जिनसे मृत्यु दर दो से ढाई प्रतिशत तक ही हो बल्कि जीका से तो एक भी प्रतिशत नहीं मरे।

इस कारोबार का असली गढ़ अमेरिका है। एक बार डब्लूएचओ द्वारा इमरजेंसी घोषित कर दिये जाने के बाद दुनिया भर के देश न केवल उनसे वैक्सीन खरीदते हैं बल्कि अरबों-खरबों का लैबोरेट्री का सामान भी खरीदते हैं। करोना को लेकर डब्लूएचओ ने सातवी बार इमरजेंसी घोषित की है। बस इसी से उनके वारे न्यारे हो जाते हैं।

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