ऐसा नहीं है कि इस अस्पताल के बुरे हाल कोई भाजपा के सत्ता में आने के बाद ही हुए हैं। इसके बुरे हाल तो उसी दिन से तय हैं जिस दिन से ये गरीबों का इलाज करने वाला अस्पताल बनना तय हुआ था, इस बात की पुष्टि आप अपने आस-पास किसी भी अस्पताल को देख कर कर सकते हैं जो सरकारी और गरीबों के लिए हो

ऐसा नहीं है कि इस अस्पताल के बुरे हाल कोई भाजपा के सत्ता में आने के बाद ही हुए हैं। इसके बुरे हाल तो उसी दिन से तय हैं जिस दिन से ये गरीबों का इलाज करने वाला अस्पताल बनना तय हुआ था, इस बात की पुष्टि आप अपने आस-पास किसी भी अस्पताल को देख कर कर सकते हैं जो सरकारी और गरीबों के लिए हो
July 11 08:54 2020

कोरोना आये या प्रलय सरकार के पास गरीबों के लिए अस्पताल नहीं अस्तबल ही हैं…

विवेक कुमार की ग्राउंड रिपोर्ट

सेक्टर 7 फरीदाबाद ईएसआई अस्पताल में गरीब मजदूर इलाज करवाने आते हैं पर अस्पताल का जो आलम है उसे देख कर लगता है कि यहाँ आने वाला हर व्यक्ति ठीक हो न हो, बीमार हो कर जरूर वापस जाएगा। अस्पताल परिसर में दाखिल होते ही जान पड़ता है कि किसी ब्रिटिश काल के खँडहर में आ गए हों। टूटी सडक़ें और गड्ढों में जमा पानी में पक्की सडक़ खोजना एक मुश्किल काम है, अस्पताल की इमारत से झड़ता प्लास्टर और सफेदी अस्पताल को पुरातन काल की तरफ ले जाने को अग्रसर है।

अस्पताल में दाखिल होते ही पाया कि दो कुत्ते खेल रहे हैं, यानी जो स्थान किसी के लिए मरने जीने के लिए है वही इनके लिए खेलने-कूदने, खाने-पीने और आसान भाषा में कहें तो ‘चिल’ करने की जगह है। एक मजे की बात और है कि इसी अस्पताल में पिछले कई महीनो से रेबीज का इंजेक्शन भी नहीं है और अगले कई महीनो तक होगा भी नहीं।

आपातकालीन वार्ड के बाहर एक टूटी स्ट्रेचर पर मरीज कहाँ तक पहुँचेगा ये तभी मालूम पड़ेगा जब कोई मरीज अपनी जान का जोखिम लेकर उस पर लेट सके। डबुआ कालोनी से अपनी 70 साल की माँ को ईएसआई अस्पताल में दाखिल करने के लिए 37 वर्षीय मनोज नंगे पाँव ही भागे चले आये। सब्जी, फल ढोने में इस्तेमाल होने वाली ईको वैन में भारी शरीर वाली माँ को हाथ से पंखा झलते हुए जब आपतकालीन के बाहर आये तो पाया कि वैन से उतार कर अन्दर ले जाने के लिए स्ट्रेचर ही नहीं है। गार्ड ने बताया कि चार स्ट्रेचर तो थे पर हैं कहाँ नहीं बता सकता।

आपातकालीन वार्ड में सिर्फ एक डाक्टर के साथ घिसट रहे ईएसआई में एक दूसरे से दूरी बनाने वाली चिडिय़ा का नाम ही नहीं है। फर्श पर गोले बना कर अपनी जिम्मेवारी पूरी कर चुके अस्पताल को भी कितना दोष दिया जाए?

कमरा नंबर 51 के बाहर लम्बी कतार में मरीज खड़े थे। जिनको बैठने की कुर्सी मिल गई वे बैठ गए और जो नहीं बैठ सके उन्होंने एडजस्ट करने का सनातनी फार्मूला निकाला और तीन लोगों की कुर्सी में आगे पीछे होकर चौथे की जगह बना ली व बच्चा गोदी में। पर जनसँख्या भी बहुत है इसलिए कई लोगों को इसका भुगतान टूटी टांग में भी खडे रह कर करना पड़ रहा था।

इतनी भीड़ का कारण क्या है? कुर्सी पर सोने की मुद्रा में बैठे एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति ने बताया कि डाक्टर साहब का इंतजार कर रहे हैं और वो न जाने कब आएँगे। कमरा नम्बर 51 के बाहर खड़े मरीजों में अधिकतर लोग 8 बजे के आस-पास ही आ गए थे और पिछले तीन घंटों से बस खड़े ही हैं। गार्ड से डाक्टर के लेट होने का कारण जानने का प्रयास किया तो उसने बताया, एक डाक्टर बैठे हैं और दूसरे ओपीडी में हैं, जब ओपीडी से आएँगे उसके बाद ही यहाँ के मरीजों को देखेंगे।

लगभग सभी मरीजों के मुंह से अस्पताल और वहां के स्टाफ के लिए अपशब्द ही निकल रहे थे। हमने अस्पताल के एमएस पुनीत बंसल से मिल कर कोरोना काल में ऐसी अव्यवस्था का कारण जानने का प्रयास किया। बंसल ने बताया कि इस वक्त उनके पूरे अस्पताल में सिर्फ 15 चिकित्सक हैं जबकि एनआईटी में 600 बैड वाली ईएसआई को कोरोना अस्पताल में बदल दिया गया है। वहां रोज लगभग 2000 मरीज आते थे और अब वे सभी सेक्टर 7 के इसी अस्पताल में आने लगे हैं। 50 बैड वाले अस्पताल में 15 डाक्टरों के साथ हम क्या-क्या कर सकते हैं, फिर भी हम अपनी ओर से पूरा प्रयास कर रहे हैं ताकि सोशल डिसटेंसिंग का पालन हो पर जनता इतनी गैरजिम्मेदार है कि वे चिपक-चिपक कर ही खड़े होते हैं। बंसल ने बताया कि उन्होंने सरकार को सभी तकलीफों के मार्फत लिख कर दिया है, क्योंकि किसी भी टास्क को पूरा तो दूर, शुरू कर पाने तक के लायक स्टाफ नहीं है अस्पताल में, तो और क्या ही कहा जाए।

24 साल की रूबी को अपनी माँ का सिटी स्कैन करवाना है और ईएसआई तीन नम्बर बंद होने के बाद सेक्टर ईएसआई ले आई। यहाँ सिटी स्कैन की सुविधा ही नहीं है, तो रूबी चाहती है, अस्पताल उनकी माँ को किसी निजी अस्पताल में रैफर कर दे। मात्र रेफर करवाने के लिए रूबी को तीन दिन घायल माँ को लेकर अस्पताल के चक्कर काटने पड़े।

इतनी अव्यवस्थाओं का कारण सबके लिए अलग-अलग है पर असल समस्या एक ही है और वो है सरकार का नजरिया। मरीजों को लगता है क्योंकि डाक्टर को आठ बजे आना था और अब तक अपने कमरे में नहीं है तो यही है असली दोषी। डाक्टर का इंतजार करते मरीज उत्सुकतावश कमरे के दरवाजे पर मधुमक्खी सा चिपकने लगते हैं क्योंकि उन्हें डर है कोई और कहीं दूसरे रास्ते से भीतर न घुस जाए, वे कई घंटों से इंतजार में हैं तो उनका नंबर पहले आना चाहिए। क्योंकि चिकित्सक को ओपीडी भी देखनी है तो वह देर से ही आ सकेगा और इस बीच मरीजों की भी बढ़ती जाएगी जिसे संभाल पाना मात्र एक गार्ड के वश का नहीं हो सकता। ऐसे में जब मरीज एक-दूसरे पर लदेंगे तो गार्ड व एम्एस बंसल जो पहले ही कई अन्य समस्याओं से घिरे हैं को सारी समस्या इन गरीब मजदूरों में ही दिखेगी। पर जैसा के हमने पहले लिखा असल समस्या सरकार की सोच और कार्यशैली में है।

ऐसा नहीं है कि इस अस्पताल के बुरे हाल कोई भाजपा के सत्ता में आने के बाद ही हुए हैं। इसके बुरे हाल तो उसी दिन से तय हैं जिस दिन से ये गरीबों का इलाज करने वाला अस्पताल बनना तय हुआ था, इस बात की पुष्टि आप अपने आस-पास किसी भी अस्पताल को देख कर कर सकते हैं जो सरकारी और गरीबों के लिए हो। पर हाँ खट्टर सरकार ने अस्पताल को फर्श से उठा कर पताल में जरूर झोंकने की कवायद की है।

मजदूरों के पैसे से बना मजदूरों का एनआईटी तीन स्थित ईएसआई अस्पताल कोरोना के नाम पर छीन कर वहां के मरीजों को ईएसआई सेक्टर 7 भेज दिया गया। यहाँ चिकित्सकों की संख्या को नहीं बढ़ाने के साथ-साथ न तो आधारभूत संरचना की व्यवस्था की गई न ही दवा की, पर बड़े से बैनर और फ्लेक्स लगवा दिए गए जिनमे डीजाईनर गमछे पहन कर मोदी-खट्टर के नाम पर कोरोना से बचाव का उपदेश लिखवा दिया गया है। शायद इन्ही से जनता का इलाज हो जाए पर सच ये है कि बैनर,पोस्टर और मार्केटिंग की संस्कृति ही इस देश को हर रूप में बीमार कर रही है और लोग एक-दूसरे को दोषी समझ गालियाँ देकर अपना नागरिक कर्तव्य पूरा कर रहे हैं।

  Article "tagged" as:
  Categories:
view more articles

About Article Author

Mazdoor Morcha
Mazdoor Morcha

View More Articles