नगर निगम का बजट बना जन-धन लूटने का परमिट
फरीदाबाद (म.मो.) बजट पास कराने की मजबूरी में सात माह बाद बुलाई गयी सदन की बैठक में लगभग सभी पार्षदों ने, पक्ष-विपक्ष का भेद-भाव मिटा कर खूब हंगामा किया। लूट के स्तर तक हुंचे भ्रष्टाचार के प्रति सभी पार्षदों ने अपना रोष प्रकट किया। पार्षद दीपक चौधरी ने तो यहां होने वाली बेहिसाब लूट की तूलना उस सोमनाथ मंदिर तक से कर डाली। जिसे साल दर साल लुटेरे लूट कर ले जाते थे।
पार्षदों ने इस बात पर भी गहरा रोष प्ररकट किया कि बजट बनाते वक्त उनकी राय तक लेने की जरूरत नहीं समझी गयी। शहर के किस वार्ड में क्या और कैसे काम होना चाहिये यह जानने की भी जहमत नहीं उठाई गयी। कोई यह जहमत उठाये भी क्यों? सरकार एवं निगम चलाने वाले अपने पार्षदों की औकात भली-भांति जानते हैं। जो पार्षद माह में एक बार अपने सदन की बैठक तक बुलवा पाने के लायक नहीं हों तो बजट पर उनकी क्या राय ली जाये? वे सब हाथ खड़े करने लायक ही हैं सो अधिकारियों ने बजट के समर्थन में उन सबसे हाथ उठवा कर सर्वसम्ती से अपना मनचाहा बजट पास करवा लिया।
शहर में चलने वाले छोटे-बड़े सभी अखबारों को छान मारने के बावजूद बजट की विस्तृत जानकारियां नहीं मिल पाई। केवल इस बात पर खुशी जताई गयी कि न तो कोई नया कर लगाया गया है और न ही किसी कर की दर बढाई गयी है। समझ नहीं आता कि अब नया कर लगाने को रह ही क्या गया है? हर चीज़ पर तो पहले से ही टैक्स लगा रखा है, हां सांस लेने पर अभी टैक्स नहीं लगा है। यदि प्रदूषण पर नियंत्रण यह शासक वर्ग नहीं कर पाया तो सांस लेने के लिये शुद्ध हवा भी खरीदनी पड़ेगी। इसकी व्यवस्था भी बाजार में होने लगी है।
बहुत कम लोग जानते हैं कि गृह कर, फायर टैक्स, सीवर पानी टैक्स आदि जैसे प्रत्यक्ष करों के अलावा अनेकों ऐसे अप्रत्यक्ष कर भी निगम वसूलता है जो दिखाई नहीं देते। शहर में खरीदे जाने वाले प्रत्येक वाहन के पंजीकरण, प्रत्येक जमीन जायदाद के पंजीकरण के लिये बिकने वाले स्टांप पेपर में से निगम को हिस्सा मिलता है। उपभोग की जाने वाली बिजली की हर यूनिट पर पांच पैसे निगम को मिलते हैं और ठेके से बिकने वाली हर शराब की बोतल से भी निगम को टैक्स मिलता है। कारोबार एवं उपभोग बढने के साथ-साथ इन सभी करो की वसूली भी स्वत: बढती जाती है। जाहिर है इस से निगम की आय में बिना किसी प्रयास के बढती जाती है। वह बात अलग है कि निगम की इस आय में सेंधमारी करके निगम अधिकारी एक मोटी रकम खुद ही डकार जाते हैं जिसका खुलासा बीते दिनों हुए एक ऑडिट से हुआ था, लेकिन पकड़े जाने के बावजूद न तो किसी से कोई रिकवरी हुई और न ही किसी को जेल।
निगम की मूल आय इन्हीं टैक्सों से होती है और निगम को चलाने के लिये वेतन-भत्ते व अन्य दफ्तरी खर्चों के लिये निगम को इसी आय में से एक चौथाई यानी 25 प्रतिशत से अधिक खर्च नहीं करना चाहिये। लेकिन 70-80 प्रतिशत तक पहुंचने वाले इस खर्च को 30 प्रतिशत तक दिखाने के लिये निगम तमाम अनुदानों, व अपनी जायदादों की बिक्री से मिलने वाली रकम को भी अपनी आय में जोड़ लेता है। वास्तव में अनुदान आदि शहर की विकास परियोजनाओं को बढावा देने के लिये होता है और क़र्ज़ लेने की नौबत तो आनी ही नहीं चाहिए। लेकिन आए कैसे नहीं जब इसमें बैठे तमाम नालायक एवं लुटेरे अधिकारियों का एक मात्र लक्ष्य लूटना व खाना ही हो। और तो और लूटेरों की इस फौज में सेवानिवृत अधिकारियों को भी सलाहकार बना कर लूटने-खाने के लिये आमंत्रित कर लिया जाता है।
अनुदान के रूप में स्मार्ट-सिटी फंड से जब हज़ारों करोड़ मिलने लगे तो ‘स्मार्ट सिटी लिमिटेड के नाम से बाकायदा एक कम्पनी का गठन कर दिया गया। कंपनियों की तर्ज़ पर इसमें सीईओ व अन्य अधिकारियों की फौज़ पलने लगी, विदेश यात्रायें होने लगी, लेकिन शहर की दुर्दशा ज्यों की त्यों बनी रही। गंदगी के ढेर बढने लगे, सीवर ज्यों के त्यों उफनते रहे। निगम अधिकारियों की काहिली के विरुद्ध नागरिकों को एनजीटी तक जाना पड़ा, लाखों, करोड़ों के जुर्माने निगम पर होने लगे। इसके बावजूद निगम की कार्यशैली में कतई कोई अन्तर नहीं आया वह ज्यों का त्यों मद-मस्त हाथी की तरह बेफिक्र हो कर विचर रहा है