इन हालात में खट्टर पर तो यही कहावत फिट बेठती है कि घर नहीं दाने अम्मा चली भुनाने।

इन हालात में खट्टर पर तो यही कहावत फिट बेठती है कि घर नहीं दाने अम्मा चली भुनाने।
July 18 09:20 2020

न पुल बनाना न मेडिकल कॉलेज खोलने, बस ढोल पीटने

फरीदाबाद (म.मो.) बीते छ: साल से हरियाणा के मुख्यमंत्री खट्टर हर जि़ले में मेडिकल कॉलेज खोलने का तथा स्थानीय सांसद एवं केन्द्रीय मंत्री कृष्णपाल गूजर मंझावली पुल बनाने का ढोल पीट रहे हैं। अनेकों डेड लाइन घोषित हो चुकने के बाद पुल तैयार होने के कोई आसार नहीं दिखते।

15 अगस्त 2014 को गूजर ने केन्द्रीय सडक़ मंत्री नितिन गडकरी से मंझावली स्थित यमुना पुल की आधारशिला रखवाते समय हज़ारों की भीड़ जुटा कर पूरे नौटंकी अंदाज में घोषित किया था कि ठीक दो साल में फरीदाबाद को नोयडा से जोडऩे वाला यह पुल चालू हो जायेगा। यह मोदी का जमाना है जहां काम बिजली की गति से होता है। नौटंकीबाज़ों की इस नौटंकी को भांपते हुए ‘मज़दूर मोर्चा’ ने उसी दिन लिख दिया था कि ये दो साल में पुल चालू करने की बात करते हैं, पुल चालू होना तो दूर, दो साल में यदि ये डीपीआर (डिटेल्ड प्रोजेक्ट रिपोर्ट) भी तैयार कर दें तो बहुत बड़़ी बात होगी। हुआ भी वही, दो साल में इन नौटंकीबाज़ों से डीपीआर तक नहीं बन पाई।

इस बीच मुद्दे को चर्चा में रखने के लिये सांसद हर दूसरे-तीसरे महीने इस पुल को लेकर तरह-तरह की बयानबाज़ी जरूर करते रहे। कभी टेंडर जारी हो रहा है तो कभी ज़मीन की पैमाइश हो रही है तो कभी ज़मीन लेने के लिये कमेटी बन रही है तो कभी कुछ। इस दौरान इस पुल के लाभ गिनाना नेताजी कभी नहीं भूलते थे। फरीदाबाद से नोयडा की दूरी घटना, दिल्ली होकर जाने से लगने वाले जाम से बचना तो सबको दिखता है, परंतु नेताजी को जयपुर, अलवर, गुडग़ांव और न जाने कहां-कहां से आने वालों को होने वाला लाभ भी नज़र आता था। परंतु यह लाभ तो आज तक हुआ नहीं, होगा जब होगा, लेकिन पुल के न बनने से जो नुक्सान हो रहा है, उसके लिये क्या यह सरकार जिम्मेवार नहीं है? क्या यह क्षतिपूर्ति नेता जी व उनकी सरकार करेगी?

छ: वर्ष बाद अब फ़िर से उस पुल की सुध आई है। अब पुल तक पहुंचने वाली सडक़ बनाने के लिये भूमि खरीदने की बात सोची जा रही है। पता नहीं कब वह भूमि खरीदी जायेगी और कितने साल में वह सडक़ बनेगी और कब अधूरा पुल पूरा होगा? वैसे बीते लोकसभा चुनाव में गूजर को भारी मतों से जिता कर जनता ने यह तो बता ही दिया है कि पुल व सडक़ आदि की जरूरत ही क्या है, बस ‘देश हित’ में साम्प्रदायिक जहर उगलते रहो, वही काफी है सत्ता में बने रहने और वोट पाने के लिये।

खट्टर के मेडिकल कॉलेज

उधर खट्टर हर जि़ले में मेडिकल कॉलेज खोलने के दावे भी लगातार करते आ रहे हैं। परन्तु अब वे हर जि़ले के बजाय तीन जि़लों-कैथल, यमुनानगर, और सिड़सा-में खोलने पर तो आ गये हैं।  वैसे चार साल पहले इन्होंने करनाल के निकट मधुबन में 100 एकड़ में एक मेडिकल  यूनिवर्सिटी खोलने की भी घोषणा की थी जो आज तक ज़मीन पर तो क्या फाइलों तक में नहीं खुल पाई है। और उक्त तीन मेडिकल कॉलेज कौन से ये खोले बैठे हैं। अभी तो केवल मंजूरी देकर अखबारों में सुर्खियां बनाई हैं। करीब डेढ साल पहले रिवाड़ी के निकट एम्स के स्तर का मेडिकल कॉलेज खोलने का भी ड्रामा उस क्षेत्र में किया था जिसके नाम पर लो$गों को बेवकू$फ बना कर  वोट बटोर लिये। अब वहां न एम्स है न मेडिकल कॉलेज ओर न कभी होगा।

करनाल स्थित कल्पना चावला मेडिकल कॉलेज का निर्माण कार्य बीते 8-9 साल से घिसट रहा है। पूरा करने के लिये सरकार के पास पैसा नहीं है। नये मेडिकल कॉलेज की तो बात छोडिय़े केन्द्र सरकार ने जो दो मेडिकल कॉलेज खानपुर व नूंह में बना कर हरियाणा को दे दिये, वे ही चलाने भारी पड़ रहे हैं। उन में न तो पर्याप्त स्टा$फ है और न उपकरण एवं आवश्यक साजो-सामान। राज्य का सबसे पुराना मेडिकल कॉलेज रोहतक का है। यह लगभग दिल्ली के एम्स जितना ही पुराना है।

परन्तु राज्य सरकार के भ्रष्टाचार व भाई-भतीजावाद ने इस मेडिकल कॉलेज का बेड़ा गर्क कर के रख दिया। यदि इसे सही ढंग व नीयत से चलाया जाता तो यह किसी तरह भी एम्स से पीछे नहीं रहता। एम्स का सालाना बजट करीब 5300 (पांच हजार तीन सौ)करोड़ (जो अपर्याप्त) है वही रोहतक मेडिकल कॉलेज का बजट मात्र 700 (सात सौ) करोड़ के आस-पास है। इसी लिये आये दिन उस क्षेत्र के मरीज़ दिल्ली को रेफर होते हैं।

रही बात खट्टर द्वारा मधुबन में मेडिकल यूनिवर्सिटी खोलने की तो पाठक समझ ले कि राज्य के सात मेडिकल कॉलेज व डेंटल कॉलेजों के लिये पहले से ही एक यूनिवर्सिटी रोहतक में है। परन्तु इसका खर्चा चलाना सरकार के लिये भारी पड़ रहा है। स्टाफ का वेतन बचाने के लिये पुराने सेवानिवृत लोगों को औने-पौने दामों पर रखा गया है। इनके द्वारा मेडिकल कॉलेज के रोजमर्रा के कामों को दक्षतापूर्वक न कर पाने के चलते तमाम कॉलेजों को आये दिन गंभीर परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इस अधकचरे स्टाफ का खर्चा चलाने के लिये भी यूनिवर्सिटी तरह-तरह से बहानेबाज़ी करके कॉलेजों एवं छात्रों पर जुर्मानों का बेजा बोझ डालती रहती है। इन हालात में खट्टर पर तो यही कहावत फिट बेठती है कि घर नहीं दाने अम्मा चली भुनाने।

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Mazdoor Morcha
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