यूसुफ किरमानी
फेसबुक, ट्वविटर, वाट्सऐप, प्रिंटरेस्ट, लिंक्डइन समेत तमाम सोशल मीडिया साइट पर आप जो कुछ भी लिखते पढ़ते हैं, उससे ये कंपनियां पैसे कमा रही हैं। यानी आपकी लिखी एक लाइन इनके लिए गोल्ड है। इसे इस तरह समझिए। आप अखबार या कोई पत्रिका पैसा देकर खरीदते हैं तो उस अखबार या पत्रिका को उसमें काम करने वाले पत्रकार बड़ी मेहनत से तैयार करते हैं। लेकिन फेसबुक समेत तमाम सोशल मीडिया साइट पर आप और हम मुफ्त में लिखकर पैसा कमाने का माध्यम बनते हैं। वहां आप मुफ्त में जो चीजें पढ़ रहे हैं, उन्हें कोई नियंत्रित कर रहा होता है। तो मेरा इन दो तथ्यों के लिखने से दो बातें साफ हुईं। आप फेसबुक समेत तमाम सोशल मीडिया साइट पर जो कुछ लिख रहे हैं, फेसबुक उससे कमाई कर रहा है। दूसरी तरफ आप फेसबुक पर जो पढ़ रहे हैं, उन्हें कोई नियंत्रित कर रहा है। जो वो चाहता है, वही आप पढ़ते हैं।
अब असल मुद्दे पर आते हैं। अमेरिकी अखबार वॉल स्ट्रीट जनरल ने पिछले हफ्ते एक खबर छापी जिसमें कहा गया था कि भारत में फेसबुक वहां की भाजपा सरकार के लिए काम कर रहा है। वह कट्टर हिन्दूवादी भावनाएं भडक़ा रहा है। मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने वाली पोस्ट को बढ़ावा दे रहा है। फेसबुक कंपनी के 11 अफसरों ने अपने मैनेजमेंट से कहा कि इसे तुरंत रोका जाए क्योंकि यह फेसबुक के सिद्धांतों के खिलाफ है। जब यह मामला उछला तो फेसबुक के अंदर काम करने वालों ने यह बात लीक की कि भारत के लिए फेसबुक की नीति निर्देशक अंखी दास दरअसल भाजपा एजेंट की तरह काम कर रही हैं। वॉल स्ट्रीट जनरल की रिपोर्ट ने यह भी कहा था कि फेसबुक के कर्मचारियों ने जब भाजपा नेताओं की नफरत फैलानी पोस्ट हटानी चाही तो अंखी दास ने इसका यह कहकर विरोध किया कि फेसबुक को इससे भारत में व्यापारिक नुकसान हो सकता है। अंखी दास ने यह बात बाकयदा पत्र लिखकर कही थी। यह पत्र भी लीक हुआ।
2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले अंखी दास को उनके स्टाफ ने उन कंटेंट को हटाने को कहा था जो झूठे थे गलत थे। कांग्रेस के ऐसे पेज हटा दिए गए थे। स्टाफ चाहता था कि भाजपा के भी वैसे पेज हटा दिए जाएं। इससे पहले अंखी दास ने 2017 में फेसबुक का लोगो लगाकर नरेन्द्र मोदी के समर्थन में एक लेख भी लिखा था।
यह रिपोर्ट छपने के बाद फेसबुक प्रवक्ता एंडी स्टोन ने स्वीकार किया कि अंखी दास ने राजनीतिक नफा नुकसान का जिक्र किया था। इस रिपोर्ट के सामने आने के बाद भारत में इस मामले को पत्रकार आवेश तिवारी और कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जोरशोर से उठाया। इस पर तिलमिलाकर फेसबुक की अंखी दास ने आवेश तिवारी के खिलाफ एफआईआर दर्ज करा दी। इसका मैंने और देश के तमाम पत्रकारों ने जबरदस्त विरोध किया। पत्रकारों की इंटरनैशनल संस्था सीपीजे ने फेसबुक को पत्र लिखा। जब हमला बढ़ा तो फेसबुक ने अंखी दास से पल्ला झाड़ते हुए कहा कि यह अंखी दास का व्यक्तिगत मामला है। फेसबुक ने कोई एफआईआर किसी के खिलाफ दर्ज नहीं कराई है। लेकिन बात यहां खत्म नहीं होती है।
किसी भी मीडिया संस्थान या सोशल मीडिया कंपनी को जब हमारे आपके लिखने पढऩे या उसे खरीदकर पढऩे से धंधा चलाना है तो उसकी जवाबदेही बनती है। लेकिन हम लोगों यानी जनता की कमजोरी है कि वह न तो मीडिया संस्थानों से और न ही सोशल मीडिया कंपनियों से जवाबदेही तय करने की मांग करता है। आप कोई भी तथाकथित राष्ट्रीय अखबार या टीवी पर न्यूज चैनल देखते हैं तो उसमें जो सामग्री परोसी जा रही है, आप उसे देखने या पढऩे के लिए बाध्य हैं। साथ में उसके साथ चल रहा या छपा हुआ विज्ञापन भी देखने को बाध्य हैं। यानी आप के बिना…यानी जनता के बिना मीडिया का यह धंधा चल नहीं सकता। लेकिन जनता की आंखें बंद हैं। जनता को अगर याद हो, नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद अमेरिका की यात्रा की। वह फेसबुक के अमेरिका स्थित मुख्यालय भी गए। वहां खींचा गया उनका एक फोटो बहुत मशहूर हुआ था। वह फेसबुक के मालिक मार्क जुकरबर्ग से इस तरह गले मिल रहे थे, जो दो बिछड़े हुए दोस्त बहुत लंबे समय बाद मिले हों। उस समय अमेरिकी मीडिया की आंखें इस घटनाक्रम पर बंद थीं। लेकिन यहां भारत में बैठकर मेरे जैसे तमाम पत्रकार लिख रहे थे कि मोदी का फेसबुक मुख्यालय जाना दरअसल उस कंपनी को अपनी पार्टी और सरकार के पक्ष में लाने की कोशिश है। मोदी ने फेसबुक मुख्यालय जाने की दावत इसी अंखी दास के कहने पर कबूल की थी। उसके बाद तो फेसबुक की यह शक्तिशाली महिला अधिकारी नरेंद्र मोदी की वेबसाइट के लिए लेख भी लिखने लगी यानी अंखी दास ने फेसबुक को थाली में रखकर मोदी सरकार को सौंप दिया।
बहुत लंबे समय से हम लोग फेसबुक से मांग करते आ रहे हैं कि फेसबुक उन अधिकारियों के नाम सार्वजनिक करे जो उसने भारत में रखे हैं और वो जो अमेरिका में बैठकर भारत के बार में फैसले लेते हैं। हमारी इस मांग का औचित्य यह है कि फेसबुक जब यह कहता है कि वह धर्म, जाति, लिंग, क्षेत्र, भाषा के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करता है और समान अवसर सभी के लिए की बात करता है तो फिर उसे अपने भारतीय अधिकारियों का नाम बताने में शर्म कैसी। उन नामों के सामने आने से यह पता चल सकेगा कि फेसबुक में दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों के अधिकारों का सरोकार रखने वाले कितने लोग हैं। अमेरिका में फेसबुक को यह बताना पड़ता है तो भारत में क्यों नहीं। अमेरिका में व्हाइट कर्मचारियों के अनुपात में ब्लैक कर्मचारी भी हैं। लेकिन भारत में यह भेदभाव क्यों। अमेरिका में तो तमाम मीडिया हाउस और सोशल मीडिया कंपनियां इस बात का ख्याल रखती हैं कि किसी समुदाय की भावनाओं को भडक़ाने वाले विज्ञापन न छपने या दिखने पाएं लेकिन भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश के लिए फेसबुक की यह नीति क्यों नहीं है।
जनता यह सब करने के लिए फेसबुक समेत तमाम सोशल मीडिया कंपनियों को बाध्य कर सकती है। आप उनके ग्राहक हैं। आप किंग है। लेकिन सोशल मीडिया कंपनियों को लेकर जनता अपनी ताकत नहीं पहचानती। जब फेसबुक, वाट्सऐप, ट्विटर अस्तित्व में नहीं आए थे तब आपकी जिन्दगी कैसी थी। अगर आप फेसबुक, वाट्सऐप को अपनी कीमती समय दे रहे हैं तो आपको उसकी कीमत वसूलने का भी तो अधिकार है। वो कीमत है सोशल मीडिया पर बिना भेदभाव सामग्री का दिया जाना, किसी भी समुदाय के खिलाफ नफरत फैलाने वाले कंटेंट को रोका जाना। फेसबुक या वाट्सऐप लोगों को आपस में जोडऩे की बात कहकर मार्केट में आए थे लेकिन अब यही सबसे ज्यादा लोगों को आपस में बांट रहे हैं। सोचिए भारत के करोड़ों लोग अगर फेसबुक, वाट्सऐप, इंस्टाग्राम का इस्तेमाल बंद कर दें तो इन कंपनियों का क्या होगा। इसलिए अगर आप फेसबुक पर हैं तो आये दिन यह लिखकर उस पर दबाव बनाइए कि फेसबुक का इस्तेमाल समुदायों और समाज को बांटने के लिए नहीं होगा। किसी भी मीडिया हाउस या सोशल मीडिया की ताकत आपसे है, वे खुद में कोई ताकत नहीं हैं।
(लेखक : वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक)