अजातशत्रु
अमेरिका के मिनयोपोलिस शहर में एक काले व्यक्ति जार्ज फ्लायड ने एक सिगरेट खरीदी। सिगरेट के पैसे देने पर उसका दुकानदार से झगड़ा हो गया जिस पर दुकानदार ने पुलिस बुला ली। गोरे पुलिस अधिकारी ने उसको नीचे गिराकर, हथकडिय़ां पहनकर, उसकी गर्दन को घुटने से तब तक दबा कर रखा जब तक कि सांस घुटने से उसकी मौत नहीं हो गई। पुलिस वाले के अन्य तीन साथी भी साथ खड़े थे और भीड़ को नजदीक आने से रोक रहे थे। भीड़ में अनेक लोगों की प्रार्थना और गुस्से से भरे विरोध के बावजूद भी गोरे पुलिस वालों ने जार्ज फ्लायड को नहीं छोड़ा। वह घिघियाता रहा कि मेरा दम घुट रहा है, मैं सांस नहीं ले सकता, मेरा गला छोड़ दो, लेकिन उसे छोड़ा नहीं गया। वह मर गया, यह हत्या भी।
इस हत्या से पूरा अमेरिका उबल पड़ा। लोगों ने कोरोना वायरस की परवाह किये बिना बहुत बड़े-बड़े और उग्र प्रदर्शन किये। अमेरिकी राष्ट्रपति निवास ‘व्हाइट हाउस’ को भी प्रदर्शनकारियों ने घेर लिया और डर के मारे राष्ट्रपति ट्रम्प को भी एक घण्टा एक भूमिगत बंकर में छिपना पड़ा। राष्ट्रपति ने हालांकि इन प्रदर्शनों के खिला$फ सेना को तैनात करने की धमकी दी लेकिन अमेरिकन सेनाध्यक्ष और कई जनरलों ने लिखित और वीडियो संदेशों के माध्यम से अपने सैनिकों और देश को स्पष्ट कर दिया कि सेना की निष्ठा संविधान में है और उनकी शपथ संविधान बचाने को लेकर है राष्ट्रपति को बचाने के लिये नहीं।
अनेकों प्रांतों की पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर किसी भी तरह का बल प्रयोग करने से गुरेज ही नहीं किया बल्कि कई शहरों में पुलिस वालों ने अपने साथियों द्वारा की गयी इस हत्या के लिये एक घुटना टिका कर मा$फी मांगी। अनेकों अन्य देशों में भी काले और गोरों ने मिलकर इस नस्ली भेदभाव और हिंसा के खिला$फ प्रदर्शन किये। अन्तत: सरकार को झुकना पड़ा और उन चारों पुलिस वालों को बर्खास्त करके गिरफ्तार कर लिया गया। मुख्य अभियुक्त को हत्या और अन्य तीन को हत्या करने में सहयोग करने के आरोप में मुकदमा चलाने की घोषणा की गई। मुख्य अभियुक्त को इसके लिये 40 साल की सज़ा हो सकती है। अमेरिका में फौजदारी मुकदमें ज्यादातर छह महीने के अंदर निपटा दिये जाते है। और गवाहों और वीडियो सबूत भारी संख्या में उपलब्ध होने के कारण इस मुकदमें में अभियुक्त को सज़ा होना तय है। यही नहीं अमेरिकन राज्य मिन्सोटा के पूरे पुलिस बल को भी भंग करने पर विचार चल रहा हे और पूरे अमेरिका में पुलिस बलों को नस्लीय घृणा और भेदभाव के प्रति संवेदनशील करने के लिये उसमें बड़े सुधार करने के लिये भी विचार किया जा रहा है।
दूसरी तरफ भारत में बड़े पैमाने पर गुजरात, यूपी, बिहार, मध्यप्रदेश में दलितों को पीटा गया, हत्यायें भी कर दी गयी लेकिन कोई आंदोलन नहीं। मुस्लिमों को भीड़ द्वारा पीट कर मारने के भी अनेक उदाहरण है-अखलाक से लेकर तबरेज तक। उत्तर-पूर्वी दिल्ली में दंगे करवा कर भी मुस्लमानों के कत्लेआम की साजिश की गई।
इससे पहले 2002 में गुजरात में मुसलमानों का नरसंहार और 1984 में सिखों का दिल्ली में नरसंहार भी हमारे देश में जातिय और धार्मिक आधार पर घृणा और हिंसा के खिलाफ लोगों में कोई उबाल पैदा नहीं कर सका। उल्टा इस नफरत को और भडक़ाया जाता रहा-कभी (मुस्लिम) जमातियों को कोरोना फैलाने वाले बताकर, कभी उन्हें गो-हत्यारे या चोर बताकर। यह गौरतलब है कि पूरे अमेरिका (बल्कि विश्व) में किसी ने जार्ज फ्लायड की गलती पर कोई सवाल नहीं उठाया क्योंकि उसे उसके छोटे-मोटे जुर्म के कारण नहीं मारा गया बल्कि नस्लीय हिंसा के कारण मारा गया। जबकि हमारे यहां 2002 में धार्मिक हिंसा भडक़ा कर एक व्यक्ति मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक बन गया। कैसे, क्यों? यहां पीडि़तों में ही दोष ढूंढा जाता रहा। उन्हीं को ओर ज्यादा प्रताडि़त किया जाता रहा।
नस्लीय हिंसा और भेदभाव के खिला$फ ये आंदोलन अमेरिका में एकदम से नहीं पैदा हो गया बल्कि इसका एक लम्बा इतिहास है। इसके लिये माल्कोम एक्स जैसे नेताओं ने अपनी जान की कुर्बानी दी है। 1930 में शुरू हुआ यह समता का आंदोलन 90 साल की लड़ाई के बाद जा कर वो मुकाम हासिल कर पाया कि अमेरिका की लगभग पूरी जनता कालों की समानता के पक्ष में खड़ी हो गयी और इसके सामने न सिर्फ प्रांतीय बल्कि अमेरिकी संघीय सरकार को भी झुकना पड़ा। ट्रम्प जैसे बड़बोले बेशर्म राष्ट्रपति को भी अपना थूका कई बार चाटना पड़ा। अपने बयान वापिस लेने पड़े। लेकिन दूसरी तरफ 1920 में पैदा हुये आरएसएस ने इसी दौर के 100 सालों में भारत को पूरी तरह धार्मिक और जातीय घृणा से सरोबार कर दिया । उन्होंने अपनी मेहनत से देश की जनता को पूरी तरह विभाजित कर दिया। यानी 90 साल में कालों के आन्दोलन ने अमेरिका को भेदभाव के विरुद्ध इकठ्ठा करने का, जोडऩे का काम किया तो 100 साल के अपने काम से आरएसएस ने भारत को तोडऩे का, जनता को धार्मिक और जातिय आधार पर बांटने का काम किया। इस तुलना से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि इनमें से कौनसा देश प्रगति करेगा और खुशहाल बनेगा। क्या भेदभाव और असमानता से परिपूर्ण समाज एक खुशहाल और समृद्ध देश बनायेगा? नहीं, कभी नही। भारत को यहां तक पहुंचाने वाले वर्तमान शासकों के रहते यह देश गृहयुद्ध की तरफ जाता ही दिखायी दे रहा है, उन्नति और समृद्धि के रास्ते पर नहीं।